यौगिक प्राणविद्या क्या है? इस जिज्ञासा के समाधान के लिए जरूरी
है-प्राचीन भारतीय महार्षियों द्वारा सौंपी गई आध्यात्मिक विरासत का गहन अध्ययन को
आधार बनाकर आधुनिक वैज्ञानिक ढ़ाँचे के अनुरूप उस पर व्यापक अनुसंधान। प्राण की
महिमा व महत्व से भारत के सभी प्राचीन शास्त्र भरें पड़ें हैं। वेद-उपनिषदों के
साथ योग आयुर्वेद ग्रंथों ने इसके विविध रूपों को बताया-समझाया है। आधुनिक विज्ञान
में शरीर शास्त्र से संबंधित ग्रंथ इसकी गवैषणाओं से अछुते नहीं है। यहाँ
प्राण-उर्जा, प्राणविद्युत, जीवनीशक्ति आदि अनेक नामों से प्राण की
ही चर्चा की ग है। अध्यात्मवेत्ता हों या
विज्ञान विशेषज्ञ, दोनों ही इस बात पर एकमत है कि प्राण
ही जीवन व चेतना का परिचय एवं पर्याय है। इसके अभाव में सब कुछ मृत व जड़ हो जाता
है। वनस्पतियों, पादपों एवं पुष्पों में प्राण के ही
भिन्न-भिन्न रूप रंग अठखेलियाँ करते है। छोटे-छोटे जंतुओं से लेकर बड़े विशालकाय
जीवों में यही प्राण चेतना के रूप में प्रवाहित होता है। इस सबके बावजूद प्राण की
बहुआयामी क्रीड़ा-विविध आयामी लीला, केवल
मनुष्य में देखने को मिलती है। मनुष्य में प्राण्तत्व के सूक्ष्म अंतर-प्रत्यंतर
अति विचित्र एवं रहस्यमय है। यहाँ प्राण एक ओर शरीर को नियंत्रित रखकर उसे जीवन का
आधार देता है, तो दूसरी ओर मन के द्वारा स्वंय
नियंत्रित होकर अपने ही विकास-परिमार्जन व परिष्कार के द्वार खोलता है प्राण की
सर्वव्यापी अभिव्यक्ति के बावजूद मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जहाँ प्राणविद्या अपना यौगिक आधार
विकसित करती है। अन्यत्र सब जगह प्राण के न्यून अथवा अधिक होने के बावजूद उसके
विकास-परिष्कार अथवा परिमार्जन की कोई संभावना नहीं है। मनुष्य के अलावा अन्य सभी, चाहे वे प्राणी हों या फिर वनस्पति, सभी में प्राण की जो भी व्यवस्था प्रकृति
ने दी है, वही रह सकती है। उसमें किसी भी तरह का
फेर-बदल संभव नहीं है। प्रकृति ही इन्हें प्राण का वितरण करती है और प्रकृति के ही
घात-संघात व जीवन की अन्य प्रक्रियाएँ इन्हें दिए गए प्राण का सदुपयोग-दुरूपयोग
कराती है। प्राणी की स्वयं की चाहत का उसकी प्राण-प्रक्रियाओं पर कोई वश नहीं है।
इन सबसे अलग मनुष्य की कथा कुछ और ही है। मानव व्यक्तित्व के विविध पहलुओं एवं
विभिन्न आयामों की ही तरह यहाँ प्राण-प्रवाह की भी उच्चस्वरीय व्यवस्था है। मनुष्य
के भीतर सप्तचक्रों, पंच प्राणों, पंच उपप्राणों के साथ ग्रंथियों व उपत्यिकाओं
का एक वृहद एवं विशद संजाल है, जो
प्राण के सूक्ष्म अंतर-प्रत्यंतर को नियमित, नियंत्रित
करते हुए सुचारू रूप से प्रवाहित करता रहता है। इस व्यवस्था में तनिक सी गड़बड़ी
व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक रूप से रोगी बना देती है। इसके विपरित यह
प्राण-प्रक्रिया यदि सचारू व अबाधित रूप से संचालित रहे तो मनुष्य हर परिस्थिति
में स्वस्थ व प्रसन्न रह सकता है ओर यदि इस प्राण-प्रवाह को विकसित, परिष्कृत व परिशोधित कर िया जाए ते
मनुष्य विशिष्ट विभूतियों ,
शक्तियों व सिद्धियों का स्वामी बन
सकता है। प्राण की प्रकियाएँ एवं योग की विधियाँ मिलकर जिस महान ज्ञान-विज्ञान की
प्रणाली को जन्म देते है,
उसी का यौगिक प्राणविद्या कहते है।
इसके प्रभाव असाधसारण एवं आश्चर्यजनक है। इससे मनुष्य के अस्तित्व व व्यक्तित्व
में चमत्कारी तथा अचरज भरे परिवर्तन किए जा सकते है। देवर्षि नारद के द्वारा
रत्नाकर को महर्षि वाल्मीकि में बदल देना तथा महात्मा बुद्ध का दुस्य अंगुलीमाल को
शालीन-सदाचारी भिक्षु बना देना ऐसे ही कुछ उराहरण है, जो यौगिक प्राणविद्या के साथ प्राण
प्रत्यावर्तन के महत्व को दरसाते है। ये सभी प्रक्रियाएँ, विधियाँ उसी यौगिक प्राणविद्या के
अंतर्गत आती है, जिसका प्रति पादन हमारे महान महारिश्यों ने किया है। सामान्य स्थिति
में प्राण-प्रवाह की सामान्य विधि व्यवस्था सामान्यप्रभाव व परिणाम ही दे पाती है।
इसके द्वारा मनुष्य साधारण व स्वस्थ जीवन जीता रहता है। हमारे अंदर प्रकृति ने
पाँच तरह क प्राणों की व्यवस्था दी है। प्रथम प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास
क्रिया का संपादन करना है। इसका स्थान छाती या हृदय है। इस प्राण का सहयोग नाग नाम
का उपप्राण करता है। इसके द्वारा वायु संचार, डकार, हिचकी आदि कर्य संपन्न होते है। इस
तत्व की ध्यानावस्था में अनुभूति पीले रंग की होती है। और षटचक्र बेधन की प्रक्रिया में यह अनाहत चक्र को
प्रभावित करता है। इसके बाद द्वितीय प्राण अपान है। इसका कार्य शरीर के
विभिन्न से निकलने वाले मलों का निष्कासन
करना है तथा इसका स्थान गुदा या जननेंद्रिय है। इसका सहयोग क्रूर्म नाम का उपप्राण
करता है। यह नारंगी रंग की आभा में अनुभव किया जा सकता है। साथ ही यह मूलाधार को
प्रभावित करता है। तीसरा प्राण समान है। इसक्र द्वारा अन्न से लेकर रस-रक्त और
सप्त धातुओं का परिपाक होता है। इसका स्थान नाभि है और इसका सहयोगी उपप्राण कृकल
है। कृकल के द्वारा भूख-प्यास का नियंत्रण-नियमन होता है। इसकी अनुभूति हरे रंग की
आभा के रूप में होती है। इसका संबंध मणिपुर चक्र से है। प्राण का चौथा आयाम उदान
है। इसका कार्य है आकर्षण ग्रहण करना। अन्न, जल, श्वास आदि जो कुछ भी बाहर से ग्रहण
किया जाता है, वह ग्रहण क्रिया इसी के द्वारा संपन्न
होती है। निद्रावस्था तथा मृत्यु के उपरांत का विश्राम ग्रहण करना भी इसी के द्वारा संभव हो पाता है।
इसका स्थान कंठ है और इसकी अनुभूति बैंगनी रंग के रूप में होती है इसका संबंध
विशुद्धि चक्र से है। व्यान पाँचवा प्राण है। इसका कार्य रक्त आदि का संचार तथा
स्थानांतरण है। संपूर्ण शरीर ही इसका स्थान है। हालाँकि कुछ विशेषज्ञ इसका स्थान
नाभि कहते है। गुलाबी रंग के रूप में इसकी अनुभूति है तथा इसका संबंध स्वाधिष्ठान चक्र से बताया गया है। प्राणव
चक्रों के इस संबंध के अलावा प्राण का संबंध ग्रंथियों एवं उपत्यिकाओं से भी है।
इन चक्रों ग्रंथों तथा उपत्यिकाओं के द्वारा व्यक्तित्व प्राण अंतरिक्ष के
ब्रह्मांडीय प्राण से जुड़ते है। यह जुड़ाव योग की विधियों द्वारा ही संभव को पाता
है। यही योग विधियाँ प्राण को व्यापक, विकसित
बनाने के साथ उसे परिष्कृत-परिमार्जित करती है। योग प्राणविद्या का क्षेत्र व्यापक
है एवं विधियों का विस्तार भी काफी अधिक है, लेकिन
कुछ विधियाँ ऐसी है, जिन्हें सामान्यजन भी जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे अपना लेते है। इन्ही में
से एक उपवास है। इसे सामान्य जन द्वारा अपनाई
जाने वाली विधि कह सकते है, लेकिन
यह यौगिक प्राणविद्या का आधार है, जो
सही ढ़ंग से अपनाए जाने पर प्राण को शुद्ध करती है। इसके पश्चात प्राणायाम की
विधियों का क्रम है, जो प्राण केंद्रों को व्यवस्थित एवं
नियंत्रित करने के साथ प्राण-प्रवाह को सुचारू करती हैं इनमें से अनेकों विधियाँ
ऐसी है, जिनका प्रभाव शारीरिक क्रियाओं के साथ
मानसिक क्रियाओं पर भी पड़ता है। इन क्रियाओं से चित शुद्धि में भी साहयता मिलती
है। इन सभी के अलावा धारणा की विधियाँ एवं ध्यान की कतिपय क्रियाएँ भी योग
प्राण-विद्या के महत्वपूर्ण तथा उच्चस्तरीय
उद्देश्य को पूरा करती है। यौगिक प्राणविद्या की इन सभी विधियों के द्वारा प्राण
ओजस् व वर्चस् में स्वाभाविक अभिवृद्धि करने की योग्यता सिद्ध कर लेता है।
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