एक राजा के चार रानियाँ थीं। वह सबसे
छोटी (चौथी) रानी के बहुत नजदीक था व उसको नित्य नए-नए वस्त्र आभूषण लाकर देता था।
तीसरी रानी को भी बहुत प्रेम करता था, सदा
साथ रखता था, जहाँ भी जाता उसको साथ लेकर जाता।
दूसरी रानी को कभी-कभी पूछता था।
पहली रानी से कम ही मतलब रखता था, परन्तु पहली उसको बहुत प्यार करती थी।
एक बार राजा बीमार पड़ गया। वैद्यों ने भी हाथ खड़े कर दिये। एक दिन राजा ने चारों
रानियों को बुलाया व कहा कि उसके ऊपर जाने का समय आ गया है। सबसे पहले चौथी रानी
से प्रश्न किया कि क्या वह उसके साथ जाने को तैयार है?
चौथी
रानी ने स्पष्ट मना कर दिया। तीसरी रानी से भी वही प्रश्न किया, उसने भी अपनी अनिच्छा जाहिर की। दूसरी
से भी वही प्रश्न किया, उसने भी कहा कि यह तो सम्भव ही नहीं है, केवल शमशान तक तुमको छोड़ आएगें। चौथी
से जब यही प्रश्न किया गया वह तुरन्त राजा के साथ चलने के लिए तैयार हो गयी व बोली
कि जब सारा जीवन साथ निभाया है तो अन्त
समय कैसे साथ छोड़ा जा सकता है।
हर मनुष्य के साथ ये चार रानियाँ जुड़ी
हुर्इ हैं। चौथी रानी उसका शरीर है जिसको वह खूब सजाता है नए-नए वस्त्र उपहार खाने
पीने का बढ़िया समान देता है परन्तु वह उसके नहीं जाता। तीसरी रानी धन है जिससे वह
आजीवन प्रेम करता है। सदा साथ रखता है हर समय उसका चिन्तन करता है परन्तु साथ नहीं
जाता। दूसरी रानी उसके मित्र सम्बन्धी है जिनको वह कभी-कभी पूछता है वो उसको शमशान
छोड़कर आते है। पहली रानी उसके कर्म है जिनसे वह कम ही मतलब रखता है, जिनके बारे
में कम ही सावधान रहता है, परन्तु वो सदा उसके साथ जुड़े रहते हैं ।
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राय बहादुर लालचंद जी की गणना पंजाब के
श्रेष्ठ समाजसुधारकों में होती थी। उन्होनें कन्या गुरूकुल को एकमुश्त बड़ी धन
राशि दान करने की पेशकश की। यह सुनकर गुरूकुल के प्रधानाध्यापक ने निजी तौर पर
उन्हें कृतज्ञताज्ञापन करने की सोची। इस उद्देश्य से वे लालचंद के घर पहुँचे। काफी
देर खटखटाने पर भी जब किसी ने दरवाजा नहीं खोला तो वे द्वार खोलकर अंदर पहुँचे।
उन्होने देखा कि अंदर एक बुढा व्यक्ति दुसरे बुढ़े व्यक्ति के पैर दबा रहा है।
उन्होने पैर दबाते हुए व्यक्ति से पूछा कि
लालचंद जी कहाँ मिलेंगे। जब उन्हें यह उत्तर
मिला कि पैर दबाते व्यक्ति ही लालचंद जी है। तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न
रहा। उन्होने लालचंद जी से पूछा कि जिसके पैर वे दबा रहे थे वे कौन है? राय बहादुर जी ने उत्तर दिया- ‘‘वो
मेरा सेवक है। पिछले चालीस वर्षो से उसने मेरी अनवरत सेवा की है। और आज उसका
स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तो आज उसकी सेवा की बारी मेरी है’’ यह सुनकर प्रधानाध्यापक महोदय का सिर
श्रद्धा से झुक गया।
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पंडित चिदंबर दीक्षित की ख्याति
कर्नाटक के सुप्रसिद्ध चमत्कारी संत के रूप में थी। देश-विदेश में अनेकानेक
व्यक्ति उनके पास आशीर्वाद की चाह लेकर आया करते थे। एक दिन एक महिला उनसे माँ
बनने का आशीर्वाद लेने पहुँची। उसने दीक्षित जी से उल्लेख किया कि वो अनेको संतों
की शरण में जा चुकी है और तमाम व्रत-उपवास कर चुकी है, पर उसकी मनोकामना आज तक पूर्ण नहीं हुई।
दीक्षित जी ने उसे दो-तीन मुठ्ठी चने देकर एक कोने में बैठने को कहा। कुछ देर
पश्चात दीक्षित जी ने देखा कि सड़क पर खेलते हुए बच्चों ने उस महिला से कुछ चने
माँगे, पर महिला ने उनकी याचना का उत्तर देने
की बजाय दूसरी ओर मुँह कर लिया। बेचारे बच्चे
कातर भाव से उसकी ओर ताकते रहे। यह दृश्य देखकर दीक्षित जी महिला से बोले- ‘‘तुम मुफ्त में मिले चनों को बाटने में
इतनी निष्ठुरता दिखाती हो तो भगवान से यह कैसे आशा करती हो कि अपनी वो एक प्यारी
आत्मा तुम्हारे घर भेज देंगे। पहले ममत्व और करूणा का विस्तार करो। जब सही पात्रता
तुम्हारें अंदर विकसित हो जाएगी तो परमात्मा का अनुग्रह भी तुम्हारे पीछे दौड़ा
आएगा।’’ उस महिला की आँखें खुल गई और
उसने अपना जीवन परिमार्जित करने का वचन दीक्षित जी को दिया।
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बंदरों का एक दल आम के बाग में निवास
करता था। बंदर जब भी आम तोड़ने का प्रयत्न
करते तो आम तो कम हाथ लगते,
पर बाग के रखवालों के पत्थर झेलने पडते
थे। तंग आकर बंदरों के सरदार ने एक दिन सभी बंदरों की सभा बुलाई और उसमें घोषणा की
कि आज से हम लोग अपना अलग बाग लगायगे और उसमें आम के पेड़ लगाएँगें। इससे रोज-रोज
के इस झंझट से तो मुक्ति मिले। बात बाकी बंदरों को जँच गई। सबने आम की एक-एक गुठली
ली और जमीन में गड्ड़ा करके बो डाली। प्रसन्नता की लहर व्याप्त हो गई कि अब शीघ्र
ही हर बंदर आम के एक पेड़ का स्वामी होगा, पर
कुछ घंटे ही गुजरे थे कि बंदरों ने जमीन खोद कर गुठलियाँ बाहर निकाल ली, ताकि ये देख सकें कि गुठलियो से पेड़
निकला या नहीं। बात ही बात में सारा बाग उजड़ गया। दूर से यह दृश्य देखते बाग
मालिक ने अपने सहचरों से कहा कि ‘‘ कर्मो
का इच्छानुसार फल प्राप्त करना हो तो प्रयत्न के अतिरिक्त धैर्य की भी आवश्यकता
होती है। अधीर मनुष्य का हाल भी इन मूर्ख वानरों के समान ही होता है।’’ हर विकास के लिए एक समय विशेष अनिवार्य
है। उसके बिना हथेली पर सरसों उगाने मात्र की विडंबना ही हाथ लगेगी।
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एक सद गृहस्थ लुहार था। श्रम और कुशलता से परिवार का पालन-पोषण भली प्रकार कर लेता था। उसके लड़के को अधिक खरच करने की आदत पड़ने लगी। पिता ने पुत्र पर रोक लगाने के लिए कहा-’’तुम अपने श्रम से चार चवन्नियाँ भी कमा कर ले आओ, तो तुम्हें खाना दूँगा अन्यथा नहीं।’’
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एक सद गृहस्थ लुहार था। श्रम और कुशलता से परिवार का पालन-पोषण भली प्रकार कर लेता था। उसके लड़के को अधिक खरच करने की आदत पड़ने लगी। पिता ने पुत्र पर रोक लगाने के लिए कहा-’’तुम अपने श्रम से चार चवन्नियाँ भी कमा कर ले आओ, तो तुम्हें खाना दूँगा अन्यथा नहीं।’’
लड़के ने प्रयास किया, असफल रहा तो अपनी जेबखर्च की चार
चवन्नियाँ लेकर पहुँचा। पिता भठ्ठी के पास बैठा था। उसने हाथ में लेकर चवन्नियाँ
देखीं तथा कहा- ‘‘यह तेरी कमार्इ हुर्इ नहीं है।’’ यह कहकर उन्हें भठ्ठी में फेंक दिया।
लड़का शर्मिदा होकर चला गया।
दूसरे दिन फिर कमार्इ करने की हिम्मत न
पड़ी, तो माँ से चुपके से माँग कर चार
चवन्नियाँ ले गया। उस दिन भी वही हुआ। तीसरे दिन कहीं से चुरा लाया। परंतु पिता को
धोखा न दिया जा सका। वह बार-बार ‘मेहनत
की कमार्इ नहीं’ कहकर उन्हें भठ्ठी में फेंकता रहा।
लड़के ने समझ लिया बिना कमाए बात नहीं
बनेगी। दो दिन मेहनत करके वह किसी प्रकार चवन्नियाँ कमा लाया। पिता ने उन्हें
देखकर भी वही बात दोहरायी तथा भठ्ठी में फेंकने लगा। लड़के ने चीखकर पिता का हाथ
पकड़ लिया और बोला- ‘‘क्या करते है पिताजी, मेरी मेहनत की कमार्इ इस बेदरदी से
भठ्ठी में मत फेंकिए।’’
पिता मुस्काराया व बोला- ‘‘बेटा! अब समझे मेहनत की कमार्इ का
दर्द। जब तुम बेकार के कामों में मेरी कमार्इ खर्च कर देते हो, तब मुझे भी ऐसी ही छटपटाहट होती है।’’
पुत्र की समझ में बात आ गर्इ,
उसने
दुरूपयोग न करने की कसम खार्इ और पिता का सहयोग करने लगा।
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सिखों के गुरूसाहिबानों में तीसरे गुरू
श्री अमरदास जी थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को सामूहिक लंगर में भोजन करने की
प्रथा का सूत्रपात किया। उन दिनों उँच-नीच, छोटे-बड़े
का भेद अत्याधिक विकृत रूप समाज में संव्याप्त था। गुरूसाहिब की यह धारणा थी कि इस
प्रथा से मनुष्य-मनुष्य के बीच उँच-नीच की खार्इ पटेगीं तब से यह प्रथा देश व
विश्वभर में फैले हजारों गुरूद्वारों की एक नियमित परंपरा बन गर्इ है। समाज के सभी
तबके के लोग बैठकर गुरू के लंगर में प्रसाद लेते हैं और स्वयं को धन्य मानते हैं।
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नमस्कार बहुत ही सुदंर लेख
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