‘‘ कुलक्षणी! तुम्हारी माँ ने तुम्हें ऐसी
शिक्षा पढ़ा कर भेजा है हमारे घर कोई काम
ठीक से नहीं कर सकती ओर जो करेगी बस उलटा करेगी, बिगाड़कर रख देगी । मैं तो इसके काम से परेशान हो चुकी हूँ। अभी शादी
के कुछ वर्ष पूरे नहीं हुए है। और यह स्थिति है तो हमारी उम्र आने तक इसका क्या
होगा। और तो और तुम्हारे घर वालों ने दहेज में जो सामान दिया है, उसे मैं किसी को दिखा भी नहीं सकती शरम
के मारे। ‘‘ करूणा अपनी बहू आँचल को जी भर कर कोस
रही थी और सही अर्थो में क्रूरतम सास की भूमिका निभा रही थी। वह अपने नाम के
विपरीत अत्यंत शंकालु, परनिंदक एवं क्रूर थी। उसके मुँह से
गाली धारा ऐसी बहती, जैसे चूल्हे में पड़ी गीली लकड़ी का
धुआँ सबकी आँखों को नम कर देता है। करूणा ने एक ही साँस में इतिहास के पन्नों को
खोलकर रख दिया था। करूणा जब गरियाती तो सभी शांत होकर सुनते रहते, परिवार में किसी में इतनी हिम्मत नहीं
थी कि उसका पगतिवाद कर सके। आँचलअपनी साड़ी के पल्लू को अपने हाथों से जोर से
पकड़ी हुई थी। गाली की बौछार का केंद्र वह ही तो थी। वह अपने ससुराल में सास की
गाली सुन-सुनकर थक गई थी और अब तो अभ्यस्त सी होने लगी थी। अपने घर से प्राप्त
संस्कारों के कारण ही उसने करूणा को कभी पलटकर जवाब नहीं दिया। अशिष्ट सास को
शिष्ट एवं शालीन आँचल का यह मौन जवाब था। पता नहीं ऐसा कब तक चलेगा, परंतु धैयपूर्वक आँचल सब सहते हुए भी
व्यथित नहीं थी। ससुर आनंद मोहन ने इस बार अपनी पत्नी करूणा के इस व्यवहार से
क्षुब्ध होकर रोष प्रकट किया था और सारे
परिवार ने उनका साथ दिया था। आँचल के पति सुजीत, देवरानी रंजना, ननद
पायल सभी ने उनको हिम्मत दी थी। ऐसा लग रहा था कि परिवार में अधर्म, अत्याचार के विरूद्ध लड़ी जा रही लडाई
अपने मुकाम तक पहुँच जाएगी। करूणा के लिए यह अस्तित्व का प्रश्न था। वह अब तक अपने
परिवार को अपनी उँगली पर नचाती आ रही थी। उसके सामने उसका अस्तित्व डगमगाने लगा।
उसके अहंकार को तेज चोट लगी और वह फुफ्कार कर उठ खड़ी हुई। जब उसने देखा कि सामने
की लडाई से वह पराजित हो जाएगी तो उसने कुटिल चालें चलनी शुरू की। ऐसी चाल जो उसके
अपनों के विरूद्ध थी। उसके तरकश में अभी बहुत सारे विष -बुझे तीर पड़े थे। उसने
अनशन के बहाने अपने पति आंनद मोहन को भावनात्मक रूप से प्रताड़ित करना प्रारंभ कर
दिया। आनंद अपनी पत्नी के इस व्यवहार से भली भाँति परिचित थे,परंतु करें तो वह क्या करें । वह न
चाहते हुए भी करूणा की जिद के आगे हथियार डालने लगे। अपने कमरे में करूणा योजना
बुन रही थी कि कैसे फिर से अपने विरूद्ध चलने लगी हवा के रूख को अपनी ओर मोड़ सके।
आनंद को अपनी पत्नी के कोप का शिकार होना पड़ा। आनंद सोचा रहे थे कि कोर्इ कैसे
दूसरों को कष्ट देकर इतना प्रसन्न हो सकता है। क्या करूणा की अंतरात्मा मर चुकी है? या वह किसी गहरे मनोविकार से ग्रसित
है। उनके पास न तो इसका कोई जवाब था और न ही इस गहन समस्या का कोई समाधान सूझ रहा
था। परिवार इस कला, क्लेश तथा घुटन भरी यंत्रणा से टुटने
के कगार पर था, सभी इस विषाक्त वातावरण में छटपटा रहे
थे। पर करूणा अपना अनशन जारी रखे हुई थी। आनंद मोहन के दिमाग में एक विचार कौंधा।
उन्होंने आँचल को एकांत में बुलाया और कहा-’’आँचल
बेटी! तुम हमारी बेटी पायल के समान हो। बहू तो बेटी ही होती है। पता नहीं इस बात
को तुम्हारी सास कब समझेगी ओर हमारे घर में कब सुख-शांति एवं सौहार्द का वातावरण
पनपेगा। करूणा तो सुधरने से रही। मैं इसे अच्छी तरह से जानता हूँ। स्थिति और भी
जटिल एवं भीषण हो जाए, उसके पहले तुम एक काम करो, सुमित के साथ चली जाओ। सुमित तो नौकरी
कर ही रहा है, तुम भी वहाँ कोई नौकरी ढूँढ लेना और दोनों शांति से रहना। मैं
तुम्हारी देवरानी रंजना को कुछ को कुछ दिन के लिए मायके भिजवा देता हूँ तथा पायल
को उसके नाना के पास छोड़ देता हूँ। ‘‘ आँचल
ने कहा-’’ काश ऐसी उदार उदात्त भावना एवं श्रेष्ट
विचार सभी के होते। जितना आप परिवार को एकजुट एवं एकत्रित करने का प्रयास करते है, उसनी उलाहना, कटाक्ष, व्यंग्य एवं उपहास सहने के बावजूद शायद ही कोई ऐसी कल्पना कर सके। हम
तो आपकी एवं माताजी की सेवा करना चाहते है,परंतु
इतनी कटुता एवं विषाकता से यह संभव नहीं
हो पाता है। हम तो यहाँ आकर और आपको देखकर जान सके कि कैसे आप इतने वर्ष शांत इवं धैर्यपूर्वक सारी मानसिक एवं
भावनात्मक पीड़ा को बिना किसी को बिना किसी को कुछ कहे पीते रहे है। अपने परिवार
के लिए सारे दु:ख का आप कालकूट की तरह पान करते रहे है। आँचल ने आगे कहा--’’ पिताजी! आप जाएँ और प्यार से माताजी को
मनाकर भोजन करा दें, वह कब तक भूखी रहेंगी। मेरे जाने से तो
वह औश्र भी क्रोधित हो जाएँगी। इसलिए मैं थाली में भोजन परोस देती हूँ आप उन्हें
अपने हाथों से खिला दें। ‘‘
आनंद थोड़ा आवेश में आकर बोले--’’पत्थर भी एक बार पिघल जाएगा, परंतु करूणा किस मिट्टी की बनी है कि
वह पिघल नहीं सकती। उसके सामने भावना, संवेदना, सेवा आदि मूल्यों का कोई मोल नहीं है।
ये अनमोल तत्त्व उसके लिए मूल्यहीन है, परंतु मुझे तो यह सब सहना है। चलो
छोड़ों। एक प्रयास और सही।’’
आँचल एवं रंजना नं भोजन की थाली सजा दी
और पायल ने थाली पिताजी एवं माताजी के कमरे तक पहुँचा दी, पर काल को कुछ और ही मंजूर था, क्योंकि उसके गर्भ में कोई चीज पक चुकी थी, बस एक घटनारूपी बहाने की ही तो आवश्यकता थी। इस घर में करूणा के
अलावा सभी आपस में प्रेमपूर्वक रहने का प्रयास करते थे, परंतु करूणा सबके बीच कलह का बीज बोती
रहती थी। आनंद मोहन को इस बीज को निष्क्रिय करने में अथक मेहनत करनी पड़ती थी। वह
केवल भगवान से यहीं प्रार्थना करते थे कि करूणा का हृदय परिवर्तन हो जाए, पर करूणा का हृदय तो पाषाण था। अधर्म के अलावा उसे कुछ सूझता ही नहीं था।
कर्मप्रिय आनंद कर्मफल के सिद्धांत को समझते थे। उन्हें तो यह भय लगता था कि इतने
दुष्कर्म करने के बाद करूणा का क्या होगा और उनके जीवन का कौन सा ऐसा भीषण कर्म था, जिसके
फलस्वरूप उन्हें ऐसी पत्नी प्राप्त हुई। वह भगवान की प्रार्थना करके अपने अंतर्मन
की व्यथा को शांत करते थे और शायद उनकी इस प्रार्थना का ही परिणाम था कि घर टूटने
से बचा रहता था। आनंद ने पायल से भोजन की थाली लेकर देवल के ऊपर रख दी और अपनी
पीड़ा को छिपाकर शांत-संयत भाव से बोले--’’ करूणा!
चलो भोजन कर लो। भोजन करने के बाद जो मन में आए करना, पर पहले भोजन कर लो। तुम्हारे भोजन
नहीं करने से घर में किसी न भोजन नहीं किया है। सभी बच्चे भुखे है।’’ करूणा कटाक्ष के साथ तेज स्वर में
बोली--’’ मेरी चिंता किसको है? मेरे लिए भला कोई कैसे भूखा रह सकता
है। तुम भी कहीं बाहर से खाना खाकर मेरे सामने भूखे रहने का स्वांग तो नहीं रच रहे
हो। ‘‘ करूणा के व्यंग्य आनंद को लग गए, परंतु उन्होने कुछ कहा नहीं। करूणा का शरीर भारी था। भूख, द्वेष
ईर्ष्या एवं जलन के सम्मिश्रण से
उसका चेहरा विकृत हो गया था। वह अपने बिस्तर से उठकर थाली एवं गिलास को फेंकना
चाहती थी कि उसका पैर मुड़ गया और वह वहीं नीचे धम्म से गिर गई । गिरते समय उसका
हाथ थाली पर लगा और थाली का गरम भोजन उसके चेहरे एवं आँखों में गिर गया। दरद के
मारे वह भीषण चीत्कार करने लगी और बिलखने
लगी । इस चीत्कार को सुनकर आँचल समेत सभी
वहाँ दौड़े चले आए। आनंद करूणा के चेहरे से गिरे हुए भोजन को हटा रहे थे। आँचल ने
कहा--’’ पिताजी! आप छोड़ दें। हम सब सँभाल
लेंगे। ‘‘वह सबसे पहले करूणा को उठाकर बिस्तर पर
लिटाने लगी, परंते शरीर इतना भारी था।
वह उसे उठा नहीं पा रही थी। आँचल, रंजना और पायल तीनों ने मिलकर करूणा को
बिस्तर पर लिटा दिया। इतने में दुर्योग से करूणा के शरीर का दायाँ पैर एवं हाथ
तेजी से फड़का और निढाल हो गया। उसका चेहरा भी टेढ़ा-मेढ़ा हो गया। जीभ लड़खड़ाने
लगी और बोलने से वंचित हो गई । आंनद ने तुरंत अपने दोनों बेटे सुमित एवं विनीत को
फोन लगाया। संयोग से दोनों उस समय शहर में ही थे। दोनों ही तीव्रता से चिकित्सकों को लेकर उपस्थित हो गए। चिकित्सकों ने कहा--’’ करूणा को गहरा पैरालिसिस अटैक
(पक्षाघात) हुआ है हम दवा दे तो सकते । परंतु अटैक इतना गहरा है कि कुछ कह नहीं सकते। ‘‘ आनंद ने कहा--’’करूणा को किसी अच्छे अस्पताल में ले
चलने से कुछ हो सकता है क्या! कोई संभावना नजर आती है। ‘‘ चिकित्सकों ने कहा--’’ प्रयास करने में कोई हर्ज नहीं है। आनंद मोहन ने अपने बेटों के
सहयोग से करूणा का हर संभव उपचार किया। अनेकों अस्पताल गए, पंरतु इस बीमारी का कोई उपचार नहीं हो पा रहा था। अंत में एक
ज्योतिष ने करूणा की कुंड़ली देखकर कहा--’’ आनंद जी! यह कोई सामान्य बीमारी नहीं है। यह तो भोगजन्य रोग है।
इस रोग में दवार्इ कोई असर नहीं करती ।
इसे तो केवल भोगना पड़ता है और इसका कोई
उपचार नहीं है। विकल्प है ता, परंतु
आसान नहीं है, इससे यह रोग ठिक तो नहीं होगा, परंतु कष्ट कुछ कम हो सकता है। इनका
भोग इतना प्रबल हे कि इसी अवस्था में दस साल बाद शरीर त्यागना पड़ेगा। ‘‘ आनंद ने कहा--’’आप इस विकल्प को बताएँ, हम हर संभव प्रयास करेंगे। ‘‘ज्योतिष ने कहा--’’महामृत्युंजय
मंत्र का जप ही इसका एकमात्र समाधान है। यदि इस रोग के आगमन से एक वर्ष या छह महीने पूर्व इनके लिए इस मंत्र का जप कराया
जाता तो ऐसी स्थिति ही नहीं आती और आपके घर में व्याप्त कलुषता में भी कमी आती।’’ ज्योतिष महामंत्र की जपविधि बताकर वहाँ से चले गए। आँचल
एवम आनंद मोहन धर्म पर आगाध आस्था रखते थे। उन दोनों ने करूणा के स्वास्थ्य
लाभ का वंकल्प लेकर सोमवार को महामृत्युजय मंत्र का जप प्रांरभ किया। नियत संख्या
में जप पुर्ण जोने के पश्चात दोनों पूर्णाहुति करते। इस प्रकार एक वर्ष
तक यह क्रम चलता रहा। ज पके प्रभाव से करूणा के शारीरिक कष्ट में कमी आने
लगी तथा परिवार में सुख-शांति एवं प्रसन्नता का सुरम्य वातावरण पनपने लगा। एक दिन प्रात: आनंद मोहन ने पुकार-’’ आँचल! बेटी जरा इधर आना। ‘‘ आँचल ने कहा--’’ जी पिताजी! अभी आई ।’’ आनंद ने कहा--’’ बेटी! तुमने अपनी सास की खूब सेवा की है और तुम्हारे सेवा
एवं जप का ही परिणाम है कि हमारी अंतहीन समस्या का समाधान हो सका। विगत रात्रि
मैंने सपने में भगवान शिव के दिव्य स्वरूप का दर्शन किया। वे हमें आशीर्वाद दे रहे
थे और कह रहे थे--जप-तप का मार्ग ही श्रेयस्कर है। आँचल ने कहा--’’ इसी सपने की बात तो मैं भी कहने
आई थी आपको ठीक यही सपना मैंने भी देखा।
भगवान शिव को मैंने साष्टांग प्रणाम किया और उन्होंने मुझे पुत्रवती एवं
सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। आँचल इतना कहने के बाद अपने उस दिव्य सपने में
खो गई जो कि बरसों बाद भगवान शिव की असीम कृपा से संभव हो पाया था।
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