देवियों, भाइयो। व्यक्ति एवं समान के ऊपर नियत्रंण करने वाली दो ही शक्तियाँ
प्रमुख है। एक शक्ति का नाम- धर्मतंत्र और दूसरी का नाम राजतंत्र। राजतंत्र मनुष्य
के ऊपर नियंत्रण करता है और धर्मतंत्र मनुष्य के भीतर श्रेष्ठताओं एवं रचनात्मक
प्रवृतियों को ऊपर उठता है। उभारता है एक का काम संसार में और व्यक्ति में महत्ता
को,श्रेष्ठता का ऊँचा उठाना है और दूसरे
का काम मनुष्य की अवांछनीय गतिविधियों पर नियत्रंण करना है। भौतिक क्षेत्र राजनिति
का है और आत्मिक क्षेत्र धर्म का है। दोनों ही एक गाड़ी के दो पहियों के तरिके से
एकदूसरे के पूरक है। एकदूसरे का एकदूसरे से घनिष्ट संबंध है। राजनिति यदि ठिक हो, राजसत्ता यदि ठिक हो, तो मनुष्यों की धार्मिकता, विचारणा, आध्यात्मिकता और श्रेष्ठता अक्षुण्ण बनी रहेगी और यदि मनुष्य की
धर्मबुद्धि ठिक हो, तो उसका परिणाम राजनिति पर हुए बिना
नहीं रहेगा।
दोनों एक दूसरे के पूरक
मित्रों अच्छे व्यक्ति, धार्मिक व्यक्ति अच्छी सरकार बना सकने
में समर्थ है और अच्छी सरकार में यदि अच्छे व्यक्ति जा पहुँचे, तो साधन स्वल्प होते हूए भी, सामग्री स्वल्प होते हूए भी समाज का
हितसाधन कर सकते है। धर्म के मार्ग पर जो रूकावट पैदा हो या जो कठिनाइयाँ हों, उनको दूर करना राजसत्ता का काम है और
राजसत्ता में विकृतियाँ पैदा हों, उनको
नियत्रंण करना धर्मसत्ता का काम है। वस्तुत: दोनों ही एक दूसरे के पूरक है। दोनों
ही समर्थ है। दोनों का ही क्षेत्र बड़ा व्यापक है और दोनों की सामथ्र्य लगभग एक
समान है। हमारे देश में धर्मसत्ता राजनितिसत्ता से कहीं आगे थी। इस समय गई -गुजरी
अवस्था में भी जबकि विकृतियाँ चारों ओर से फैल पड़ी है। ऐसे समय में भी धर्मसत्ता
का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। हम देखते है कि इतनी जनशक्ति, धनशक्ति, भावनशक्ति, विवेकशक्ति इस धर्मक्षेत्र में लगी
हुई है। यदि ये शक्तियाँ ठीक दिशा में
नियोजित की गई होतीं और उनका ठीक तरीके से
उपयोग किया गया होता, तो जो काम राजसत्ता देश भर में कर सकती
है, उसकी अपेक्षा सौ गुना ज्यादा काम
धर्मसत्ता ने कर लिया होता,
क्योंकि अपने देश में धर्मसत्ता का
स्थान बहुत ऊँचा और महत्त्वपूर्ण है। अपने यहाँ ससांर के सभी क्षेत्रो से अधिक
धार्मिक प्रक्रियाओं की ओर ध्यान दिया जाता है। अपने यहाँ सन्त-माहत्माओं को ही
लें, साधु-ब्राह्मण को ही ले, तो इतना बड़ा वर्ग जिस देश में है जो
धर्म के आधार पर जीविका भी प्राप्त करता है। अपने मन में यह समझता भी है कि हम
धर्म के लिए जीवित है। न केवल अपने आप को समझता है, अपितु समाज में यह भी घोषित
करता है कि हम समाज के ही नहीं है, हम
धर्म के लिए भी है। अगर इन लोगों की गतिविधियाँ सहीं रही होतीं और यदि इन लोगों के
विचार करने की शैली सही रही होती तो इनके द्वारा इतना बड़ा विशाल कार्य देश में ही
नहीं, समस्त विश्व में कर सकना संभव हो गया
होता कि दुनिया को उलट-पुलट कर लिया जाता।
भगवान बुद्ध के केवल ढाई लाख शिष्य थे। उन ढाई लाख शिष्यों को भगवान बुद्ध ने आज्ञा दी कि आप
लोगों को सारे एशिया और सारे विश्व के ऊपर छाप डालनी चाहिए। इस समय जो अनैतिक और
अवांछनीय वातावरण पैदा हो गया है, उसे
ठीक करना चाहिए। भगवान बुद्ध की इच्छा के अनुसार गृहत्यागी, धर्म पर निष्ठा रखने वाले ढाई लाख व्यक्ति रवाना हो गए और सारे विश्व पर छा
गए। उन्होने बौद्ध धर्म-संस्कृति एवं बौद्ध भावनाओं का प्रसार सारे विश्व में कर
दिया।
विराट संख्या एवं बढ़े हुए साधन
मित्रों आज हमारे साधन बहुत ज्यादा
बढ़े-चढ़े है। अपने इस भारतवर्ष में
सरकारी जनगणना के हिसाब से छप्पन लाख व्यक्ति इस तरह के है जो कहते है कि हमारी
जीविका केवल धर्म के आधार पर चलती है। धर्म ही हमार व्यवसाय है। रोटी कमाने का
स्रोत है। कुछ लोग ऐसे भी है। जिनकी जीविका धर्म नहीं है, जो केवल अपने मन और संतो के लिए स्वांत: सुखाय और सामान्य
कर्त्तव्य समझ करके पूजा-पाठ या धार्मिक कृत्य करते है। धर्म के माध्यम से जीविका
कमाने वालो में साधू -बाबाजी, पंड़े-पूजारी
आते है। यह संख्या छप्पन लाख हो जाती है। यह संख्या इतनी बड़ी है कि सरकार के
एंपलाइज-कर्मचारियों की सख्या उससे कम है। सेमी गवर्नमेंट और पूरी गवर्नमेंट दोनों
को मिला करके हिंदुस्तान में चालीस लाख के लगभग कर्मचारी है, लेकिन धर्मसत्ता के पास छप्पन लाख
कर्मचारी है। यह जनशक्ति इतनी बड़ी है कि उसको यदि किसी रचनात्मक कार्य में लगा
दिया जाए, तो सरकार के द्वारा कितने ही रचनात्मक
और नियंत्रणात्मक कार्य होते है, उन
सबकी अपेक्षा धर्म में काम करने वाले ज्यादा काम करे सकते है। क्योंकि सरकार की
मशीनरी में केवल वेतनभोगी लोग होते है, समय
पर काम करने वाले होते है। जरा भी ज्यादा समय खर्च हो जाए, तो वे ओवर टाइम माँगते है। उन्हें
पेंशन देने की जरूरत पड़ती है। और भी बहुत से खरचे करने पड़ते है, इसलिए वे कर्मचारी बहुत मँहगे भी होते
है। उनके जीवन का उद्देश्य सेवा नही होता। अधिकांश लोगों की इच्छा-उद्देश्य नौकरी
करना, पेट भरना होता है। लेकिन मित्रों धर्म के लिए जिन्होंने आजीविका स्वीकार की है, उनके सामने तो लक्ष्य भी होना चाहिए।
उनके पास तो समय ज्यादा होना भी संभव है। आठ घंटे ही काम करेगें, यह क्या बात हुई । संत-महात्मा छह घंटे
सो लिए, भिक्षा से रोटी मिल गई , बनी-बनाई रोटी मिल गई , दो घंटे नित्य कर्म में लगा दिए, आठ
घंटे हो गए। आठ घंटे के बाद सोलह घंटे उनके पास बच जाते है। यदि वे इस सारे समय को
धर्मकार्यों में लगाना चाहे, तो
उनमें से एक व्यक्ति दो आदमियों के बराबर काम कर सकता है। उनमें भावनाएँ होती है, निष्ठाएँ होती है, धर्म विश्वास होता है और भी बहुत कुछ
बातें होती है। ये छप्पन लाख व्यक्ति वस्तुत: इतनी बड़ी जनसख्यां है कि चाहे तो
भगवान बुद्ध के ढाई लाख शिष्यों की अपेक्षा दुनिया भर में तहलका मचा सकते है।
एक लाख व्यक्तियों ने फैलाया तीन-चौथाई
दुनिया में धर्म
ईसाई मिशनरी के पास केवल एक लाख पादरी
है और वे पादरी सारी दुनिया में छाए हुए है। उत्तरी ध्रुव से लेकर भारतवर्ष के
नागालैंड और बस्तर तक में,
जंगलों में और आदिवासियों के बीच काम
करते है। उनका यह विश्वास है कि इसा ईसा
मसीह का संदेश और ईसायत का संदेश
घर-घर पहुँचाया जाना चाहिए। इस विश्वास के आधार पर वे अपनी सुविधाओं का ध्यान किए
बिना पादरी लोग सारे विश्व भर में काम करते है। परिणाम क्या हुआ? केवल ईसाई धर्म को, भगवान ईसा को जन्म के लिए सिर्फ उन्नीस
सौ सत्तर वर्ष के करीब हुए है। तीन सौ
वर्ष तक तो उनका सारा का सारा क्रिया-कलाप
अज्ञात ही बना रहा। सेंट पॉल ने ईसा के
लगभग तीन सौ वर्ष बाद ईसाई धर्म की खोज की और ईसा की खोज की, उनका जीवन चरित्र ढुँढ़ा, उनके उपदेशों को संकलित किया। तीन सौ
वर्ष तो ऐसे ही निकल जातेतिहाई है केवल सोलह सौ वर्ष हुए है, लेकिन
एक लाख व्यक्ति जो आज है,
इससे पहले तो एक लाख भी नहीं थे। इन
थोड़े से निष्ठावान, धार्मिक व्यकितयों ने ईसायत का इतना
प्रचार कर डाला कि दुनिया में एक मनुष्य
अर्थात एक अरब मनुष्य आज ईसाई है। तीन अरब
की आबादी सारी दुनिया में है। इस थोडे से समय में सारे विश्व में इतनी बड़ी संख्या
फैल गई । इसका कारण क्या है? कारण
केवल उन एक लाख व्यक्तियों का श्रम, उनकी
भावनाएँ और प्रयत्न है जिनकी वजह से उन्होने ईसा
को, बाइबिल के ज्ञान को दुनिया में फैलाया।
मित्रों अगर अपने पास धर्म की शक्ति में लगे हुए व्यक्ति इस तरह की भावना को लेकर
के चले होते कि हमको का, सभ्यता और संस्कृति का, भगवान का संदेश जनमानस में स्थापित
करना है। उससे लोक-मानस को,
जन-जन को प्रभावित करना है। हर व्यक्ति
को धार्मिक बनाना है। और एक ऐसा समाज बनाना है कि जिसमें धर्मप्रेमी लोग रहते है।
मर्यादाओं का पालन करने वाले, परस्पर स्नेह करने वाले और बुराइयों-अनीतियों
से दूर रहने वाले व्यक्ति पैदा हो। बताइए तो उसका परिणाम कितना बड़ा हो गया होता।
जरा विचार तो किजिए। जिसके मन में भगवान की, देश
और धर्म की लगन लगी हुई हो, वह एक ही आदमी कितना बड़ा काम कर सकता
है। हमने कल-परसों महात्मा गाँधी को देखा था, अकेले
ही थे और सारे भारत को जगा दिया। हमने कल-परसों भगवान बुद्ध को देखा, एक ही माहत्मा थे और सारे विश्व को जगा
दिया। कल-परसों स्वामी रामतीर्थ एवं एक ही विवेकानंद को हमने देखा, एक
ही योगी थे। उनने वेदांत का संदेश भारतवर्ष
से लेकर अन्य द्वीप-द्वीपांतरों तक पहुँचा दिया।
भारत में सात लाख गाँव है। यदि छप्पन
लाख संत-माहत्मा इस देश में काम करने के लिए खड़े हो गए होते, तो वह काम कर दिखाया होता कि हमन
राष्ट्र का नया निर्माण ही कर लिया होता।
यह तो अध्यात्म नहीं है
मित्रों भगवान की प्रार्थना करें, पूजा करे, यह बात समझ में आती है, लेकिन डंडा लेकर भगवान के पीछे ही पड़
जाएँ और कहे कि तुमको तो न हम खाने देंगे, न
खाएँगे, न कुछ करेगे और न करने देंगे, तो भगवान भी कहेगे कि अच्छे चेलो से
पाला पड़ा-ये न खाते है, न खाने देते है, न उठते है, न उठने देते है, न चलते है, न चलने देते है, न कुछ करते है, और न करने देते है। भगवान बहुत परेशान
होगा कि बाबा इनसे पिंड कैसे छुड़ाया जाए। लोगों के मन में यह ख्याल है कि ज्यादा
नाम लो, तो क्या हो जाएगा कि भगवान मजबूर होकर
मनोकामना पूरी कर देगा। मित्रों भगवान का नाम लेना साबुन लगाने के बराबर है। थोड़ी
देर साबुन लगाया जा सकता है, लेकिन
इसके बाद यदि भगवान का नाम लिया जाए, तो
उसके बराबर भगवान का काम भी किया जाए। तभी एक बात पूरी होती है, अन्यथा बात कहाँ पूरी होती है। यह बात
अगर लोगों को समझ में आ गई होती, तो ये छप्पन लाख व्यक्ति राष्ट्र का
निर्माण और देश की समाजिक,
नैतिक और दूसरी समस्याओं का समाधान
करने के लिए जुट पड़े होते,
यह संख्या कितनी बड़ी है। जितने आदमी
सरकार की मशीनरी चलाते है,
उतनी ही बड़ी मशीनरी धर्मतंत्र के
द्वारा चलाई जा सकती थी। मित्रों धन को ही
लें, तो गवर्नमेंट जितना रेवेन्यू वसूल करती
है, टैक्स वसूल करती है, उससे ज्यादा धन जनता हमारे धर्मकार्यो
के लिए दिया करती है। मंदिरों में कितनी बड़ी संपदा लगी हुई है। सरकार के खजाने में जितनी कुल पूँजी है और
रिजर्व बैंक के पास जितना कुल धन है, लगभग
उतना ही धन मंदिरों और मठों के पास इमारतों के रूप में, नकदी के रूप में, जायदादों के रूप में अभी भी विद्यामान
है। धर्मतंत्र की संपदा एक तरह का रिजर्व बैंक है। अगर धर्मतंत्र की संपदा
भोग-प्रसाद लगाने, मिठाई -बाँटने , पंड़े-पूजारियों का पेट पालने, शंख-घड़ियाल बजाने और कर्मकाड़ करने की
अपेक्षा जनमानस को ऊँचा उठाने के लिए लगा दी गई होती, तो मजा आ जाता।
अत्यधिक अपव्यय धर्म के नाम पर
हिंदुस्तान में सोमवती अमावस्या के दिन
गंगा स्नान का बहुत महत्व है। कल्पना किजिए कि हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक स्नान
करने वालों की संख्या कम से कम सोमवती अमावस्या के दिन पचास लाख हो जाती है। एक
आदमी के आने-जाने का, श्रम का, खाने-पीने का,
दान-दक्षिणा आदि का खर्च बीस रूपया आता
हो और उसे पचास लाख से गुणा कर दिया जाए तो दस करोड़ रूपया प्रति सोमवती अमावस्या
का खरच आता है। आप कल्पना किजिए की कम से कम चार और ज्यादा से ज्यादा पाँच सोमवती
अमावस्या हर खर्च होती है। उनका खरचा लगा दिया जाए, तो पचास करोड़ रूपया खरच करने वालों से प्रार्थना की गई होती कि आप एक खर्च स्नान करने की अपेक्षा गंगा का उपयोग गंगा की
महत्ता समाज में बनाए रखने के लिए विवेकपूर्वक विचार करें। मित्रों जिन शहरों की
गंदी नालियाँ गंगा में डाली जाती है, वहाँ
का पानी अपवित्र कर दिया जाता है। स्नान करने वाले उसी नाले के दूषित पानी मिले हुए गंगा जल को पीता है। और उसी का
आचमन करके चला जाता है। वह गंदा पानी यदि गंगा जल में डालने की अपेक्षा शहर की
नालियों-ड्रेनेज के द्वारा शहर से बाहर निकाला गया होता और खेतों में, बगीचों में डाल दिया गया होता तो कितने
एकड़ भूमि की सिंचाई हो जाती। गंगा में, युमना
में और दूसरी नदियों में जो गंदगी पैदा होती है, उनका पानी खराब होता है, जो
कि स्नान करने लायक और पीने लायक भी नहीं रह जाता, बीमारियाँ और फैलाता है वह पचास करोड़ रूपया यदि उस गंदें पानी का
सुदपयोग करने और नदियों को साफ करने में खर्च किया गया होता, तो कैसा अच्छा होता, मजा आ जाता।
धर्मभावना नहीं, धर्मभीरूता
ल्ेकिन क्या कहा जाए? इसे मै धर्मभीरूता कहता हुँ, धर्मभावना नहीं कहता। अपने देश में
सिर्फ धर्मभीरूता है, धर्मभावना नहीं है। धर्मभीरूता और
धर्मभावना में जमीन आसमान का फरक है। गाँव-गाँव में रामचंद्र जी की लीलाएँ और
श्रीकृष्ण की लीलाएँ होती है। एक-एक लीला में बीस-बीस, तीस-तीस हजार रूपया खरच हो जाता है।
केवल मनोरंजन तमाशा होता है। लोग तालियाँ बजाते है मेला-ठेला तमाशा देखते है और
चले जाते है। मित्रों वह धन जो अवांछिनिय और अनावश्यक खेल-प्रसंगों में खरच किया
जाता है, जिसको जनता पूण्य समझती है, उसके द्वारा हमने एक क्रमबंद्ध रूप से
अभिनय मंच बनाया होता, ऐसी थियेटरिकल कंपनियाँ बनाई होतीं, जो
गाँव-गाँव में जाकर भगवान राम और श्री कृष्ण भगवान के जीवन के उद्देश्यों का
शिक्षण देने में समर्थ रहीं होती। उनके नाटक, प्रसंगों
ने जनता के मन-मस्तिष्क को और जनता की दिशाओं को बदल दिया होता, जिससे उनमें नैतिक, सांस्कृतिक और समाजिक चेतना उत्पन्न की
जा सकती थी। पर हम देखते है कि तमाशे के, उपहास
के, मजाक के रूप में भगवान को एक खिलौना
बना देते है। भगवान का सम्मान करने की बात न जाने कहाँ चली जाती है।
दुरूपयोग रूके
साथियों अपने देश की सांस्कृतिक, समाजिक सेवा और नैतिक उथान के लिए धन की जरूरत है। धन के बिना कुछ
संस्थाएँ और प्रवृतियाँ बेमौत भूख से मर जाती है। पैसा ऐसे लोगों को दिया जाता है, जिनकी समझ में नहीं आता कि क्या किया
जाए? इस धर्मभीरू जनता को क्या कहा जाए? उनकी धर्मभीरूता को किसी तरह से
धिक्कारा जाए? इतना समर्थ धर्मतंत्र जिसके पीछे छप्पन
लाख व्यकित काम करते है इतने मंदिरों, मठों
तीथो और कर्मकाड़, श्राद्ध-तर्पण और न जाने क्या-क्या
करने में छप्पन करोड़ रूपया खरच हो जाता हो, तो
जरा भी अचंभे की बात नहीं है। इतनी बड़ी पूँजी एक गवर्नमेंट का बजट बनाने में काफी
है। इतनी बड़ी धन शक्ति, भावनाओं की शक्ति, इतनी बड़ी जनशक्ति, जो कि आज बिखरी पड़ी है और अवांछनीय
दिशा में प्रवाहित हो रहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि नर्इ पीढी़ के
समझदार-विवेकशील लोग इस धर्म के अपच्यय को रोकें। जिसे मै दुरूपयोग कहता हुँ।
मित्रों धर्म की भावना का बूरी तरह से
दुरूपयोग हो रहा है। इसे उस दिशा में लगाया जाए, जिससे कि व्यकित का श्रेष्ट निर्माण हो। मनुष्यों की विचारणा-भावनाओं
में परिष्कार हो और समाज को अच्छे रास्ते पर चलने के लिए प्रकाश मिले। इसके लिए
समझदार-विवेकशील लोगों को आगे आना ही चाहिए। जिस तरीके से राजनिति में
धक्का-मुक्की करके लोग आगे बढते चले जाते है। उसमें उनका सत्ता और पद का लोभ रहा
होगा, लेकिन सेवा का स्तर जो अपने
धर्मक्षेत्र में है वह अन्य किसी क्षेत्र में नहीं है। इसलिए मै आहाव्न करना चाहता
हुँ। उन सब लोगों का, जिनके अन्दर देश भक्ति और विश्वमानव की
पीड़ा विद्यमान है, जो समाज का हितसाधन करना चाहते है, जो लोकमंगल के लिए कदम बढ़ाना चाहते है, उनको धर्म के विकृत स्वरूप का समाधान
करने, धार्मिक भावनाओं और जनशक्ति को ठिक
दिशा देने के लिए कदम बढ़ाकर आगे आना ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो राष्ट्र और विश्व की प्रगति के लिए
एक भारी अभाव बना ही रहेगा। इतनी बड़ी पूँजी, जनशक्ति, भावनाशक्ति का दुरूपयोग होता ही रहेगा।
इसको ठिक करना अब राष्ट्र की हमती आवश्यकता है।
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