भारतीय संस्कृति में दशांश अनिवार्य कहा गया है । भगवद्गीता कहती हैं यज्ञ किए बिना जो ग्रहण करता है वो पाप की कमार्इ खाता है । उपनिषद् कहते हैं ‘तेन व्यक्तेन भुन्जी था’ अर्थात् त्याग के साथ ही भोग करना चाहिए । अर्थात् अपनी कमार्इ का एक अंश परमार्थ के लिए अवश्य दें । जब व्यक्ति किसी मुसीबत में कष्ट में होता है तो चारों ओर सहायता की गुहार लगाता है । कर्इ बाद समस्या इतनी विकट होती है कि रिश्ते नातेदार मित्र बन्धु, चिकित्सक सब रखे रह जाते हैं ओर व्यक्ति तडपता रहता है । ऐसे समय में यदि व्यक्ति आस्तिक है तो देव सत्ताएँ व्यक्ति की मदद करती है । परन्तु परोक्ष सत्ताएँ भी कर्मफल सिद्धान्त को नहीं काटती । जब द्रोपदी ने लाचार होकर भगवान को पुकारा तो भगवान ने उसके पुण्यों व पापों का लेखा जोखा किया । पता चला कि द्रोपदी ने एक लाचार साधु की मदद की थी । एक सन्त नदी से बाहर नहीं निकल पा रहे थे क्योंकि उनके अधोवस्त्र बह गए थे । द्रोपदी ने अपनी साड़ी का आधा टुकड़ा उनको देकर उनकी लाज बचायी । वह पुण्य भगवान ने द्रोपदी के कष्ट निवारण में उपयोग किया । यह घटना मनुष्य को सीख देती है कि मानव को जन के बैंक बैलेस के साथ पुण्य कर्मो का संचय भी अवश्य करना चाहिए । पता नहीं किस समय क्या काम आ जाए ।जो व्यक्ति अपने द्वारा कमाए हुए धन को केवल अपने या अपने परिवार तक ही सीमित रखना चाहते हैं उसके एक अंश (दशांश) को जन कलयाण के निमित्त नहीं दान देते उसके भयानक दुष्परिणाम उनको भोगने पड़ते हैं । 1- ऐसे व्यक्तियों में कृपाणता (कंजूसी) की ग्रन्थि बन जाती है व्यक्ति अपने धन को बढ़ता देख प्रसन्न होता रहता है । उसका अवचेतन मन धन के साथ आसक्त हो जाता है । अवचेतन मन का दूसरा कार्य है शरीर में जमा दूषित पदार्थों को बाहर निकालना । जोड़ने की प्रवृत्ति से ग्रस्त अवचेतन मन शरीर के भीतर की गन्दगी को भी अन्दर ही जोड़ कर रखना चाहता है । इससे व्यक्ति न रक्त एवं अन्य अंश दूषित होते जाते है व व्यक्ति तरह-तरह के रोगों का शिकार हो जाता है । ऐसा व्यक्ति अक्सर कब्ज का शिकार पाया जाता है । 2- प्रत्येक व्यक्ति की नाड़ियाँ संचित कर्मों से अवरूद्ध पडी रहती है । जैसे-जैसे व्यक्ति की उम्र बढ़ती है उसका शरीर कड़ा होता जाता है कड़े शरीर में दर्द व जुड़ाव की प्रवृत्ति उभरती है । परन्तु यदि व्यक्ति दया, करूणा, प्रेम अथवा उच्च आदर्शों के लिए त्याग करता है तो नाड़ियां शुद्ध होती है उनमें उचित प्राण प्रवाह चलता रहता है और व्यक्ति लम्बी उम्र तक स्वस्थ बना रहता है । उस व्यक्ति की उम्र अधिक होती है जो मानवीय गुणों से भोतप्रोत रहते हैं । 3- व्यक्ति में धन के प्रति बढ़ती आसक्ति उसके भीतर तरह-तरह के विकार जैसे भय अथवा अहंकार पैदा कर सकते हैं । अत: धन के अपना न मानकर भगवान का सकझ उसके एक अंश को अच्छे कार्यो में अवश्य लगाए । 4- कर्इ बार व्यक्ति का मन बहानेबाजी करता है कि किसको दूँ, कोर्इ सुपात्र नहीं मिल रहा है । ऐसे में भी दंशाश के अलग रखना अनिवार्य है । इससे व्यक्ति की आत्मा रक्त उसके धन के सदुपयोग व निर्देश देती रहेगी ।जैसे रूका जब सडन उत्पन्न करता है वैसे ही धन का स्वयं के निमित संचय व्यक्ति के व्यक्तित्व में अवरोध उत्पन्न करता है । परिवार में बच्चों के संस्कार बिगड़ने लगते हैं व आपस में अविश्वास पैदा होता चला जाता है । सम्बन्धों में खटास का सबसे बड़ा कारण संचित धन ही है अत: धन का वितरण अनिवार्य रूप में करना व करवाना चाहिए ।
देने का सुख जीते जी उठाएं
उपलब्धि के लिए सक्रिय रहने वाले लोग जब सफल होते हैं तो वे वह निर्णय नहीं कर पाते कि अपनी उपलब्धि का क्या करें। उपलब्धि उबलती हैं। समय रहते उपयोग न करे तो भाप बनकर उड़ जाएगी और गलत तरीके से उपयोग करें तो हम झुलस भी सकते हैं। लोग अपनी ही उपलब्धियों के साथ एक अनिर्णय की स्थिति बना लेते है। परमशक्ति कहती है- ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: संपूर्ण प्राणियों के हित में जिनकी रति है, ऐसे मनुष्य मुझे प्राप्त होते हैं। कुल मिलाकर हमारी उपलब्धि के केंद्र में केवल हम ही न रहें। जैसे ही हम इसे परहित से जोड़ते हैं हमारा व्यक्तित्व ही बदल जाएगा। हम जो भी काम करेंगे, उसमें उत्साह बना रहेगा। इसलिए अपनी उपलब्धि को परहित से जोड़ने के निर्णय में बिल्कुल विलंब न करे। वरना हमारी उपलब्धि हमारे लिए कब्र बन जाएगी। लोगों को उनकी ही उपलब्धि की चिता पर जलते देखा गया हैं। आप जितना बांटेगे, उतना अधिक सुरक्षित होंगे। सांसारिक दृष्टि से देखने पर लगता है कि यदि उपलब्धि को बांटा तो कम हो जाएगी। दुनिया की दृष्टि में यह गणित गलत नहीं है, बटेगा तो घटेगा। लेकिन जब हम आध्यात्मिक कोण से सोचेंगे, तब बांटने पर क्या बढ़ेगा यह समझ में आ जाएगा। यहां देने से और बढ़ता है, क्योंकि ऐसा करने से अनचाहे ही आपकी पात्रता बढ़ती जाती है। इसलिए मिली हुर्इ वस्तुओं से दूसरों का हित करें। आपके पास जो भी है, वह किसके क्या काम आ सकता है, इस पर लगातार दृष्टि रखें। देने का सुख जीते जी भोगें।
No comments:
Post a Comment