Monday, March 31, 2014

Sadhna Abhiyan hi Kyun-2

     जैसे संसारिक शोधों के दो पक्ष होते हैं ज्ञान और विज्ञान! वैसे ही अध्यात्मिक साधनाओं के भी ये दो पक्ष होते हैं। ज्ञान पक्ष को गायत्री व विज्ञान पक्ष को सावित्री कहा जाता है। आचार्य जी इस विषय में लिखते हैं- हमारे प्राचीन अध्यात्म की केवल ज्ञान शाखा जीवित है। विज्ञान शाखा लुप्त हो गई। धर्म, नीति, सदाचरण आदि की बात ही सब जगह कही जाती है। विज्ञान की उपलब्धियाँ हाथ से चली गई, जो शरीर में विद्यमान अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनन्दमय शक्तिकोशों की क्षमता का उपयोग करके व्यक्ति और समाज की कठिनाइयों को हल कर सकें। पतजंलि योग दर्शन, मंत्र महार्णव, कुलार्णव तंत्र आदि शक्ति विज्ञान के ग्रंथ तो कई हैं पर उनमें वर्णित सिद्धियों को जो प्रत्यक्ष कर दिखा सकें, ऐसे उच्च साधक नगण्य के बराबर शेष रह गए हैं।
     आवश्यकता इस बात की है कि उन लुप्त विद्याओं को फिर खोज निकाला जाए और उसे सार्वजनिक ज्ञान के रुप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाए कि प्राचीन काल की तरह उसका उपयोग सुलभ हो सके। ऐसा संभव हुआ तो भौतिक विज्ञान को परास्त कर पुनः अध्यात्म विज्ञान की महत्ता प्रतिष्ठापित की जा सकेगी और लोक मानस को उस सतयुगी प्रवाह की ओर मोड़ा जा सकेगा जिसकी हम अपेक्षा करते हैं।
     आचार्य जी अपने जीवन के अन्तिम चरण में व्यथित थे। उन्हें कोई ऐसा योग्य उत्तराधिकारी नहीं मिल पाया जिसको वो जाने से पहले इस सारे विज्ञान को अनुभूत करा सकते। अतः साधनाओं को सरल बनाने व सुपात्रों को देने के लिए आज भी देवसत्ताएँ व्याकुल हैं। शीघ्र ही समर्थ साधकों का एक ऐसा समूह उभरने जा रहा है जो राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने जीवन की आहुति समर्पित करेगा व अपना देश भारत विश्वामित्रके गरिमामय पद से सुशोभित होगा।
     यह सभी जानते हैं कि युग-ऋषि श्रीराम आचार्यजी को उनके महान् गुरु द्वारा समय-समय पर हिमालय बुलाया जाता रहा।
1. प्रथम हिमालय यात्रा - वर्ष 1927
2. दूसरी हिमालय यात्रा - वर्ष 1937
3. तीसरी हिमालय यात्रा - वर्ष 1960-1961
4. चैथी हिमालय यात्रा - वर्ष 1971
     चार बार लगभग एक - एक वर्ष के वो हिमालय में तप साधना करते रहें। कहते हैं कि 1970 के आस-पास उनका एक शरीर हिमालय में ही साधनारत हो गया था। आचार्य जी जब 1971 में हिमालय जाने लगे तो यह कहकर गए थे कि अब वो हिमालय से ही योजना का संचालन करेंगे। जब लोटे तो लोगों को आश्चर्य हुआ। किसी परिजन के पूछने पर बताया कि असली शरीर वहीं है जो मुख्य रूप से सक्रिय है। जो लौटा है वह गौण है। आज भी ऐसे हजारों साधक हैं जो अपनी घर गृहस्थी के चलते साधना अभियान में दृढ़ता से जुटे हैं। इनके भी यह आवश्यकता समय-समय पर प्रतीत होती रहती है कि साल छह माह यदि घर गृहस्थी से दूर किसी पवित्र आश्रम में साधना करने के लिए मिल जाए तो ये ऋषि स्तर तक पहुँच सकते हैं। मैं यह प्रश्न सभी से पूछना चाहता हूँ चाहे वो जनता हो या आश्रम के मुखिया कि इन साधकों के लिए क्या कोई व्यवस्था का प्रावधान किसी ने किया है? क्या आश्रम केवल ढ़ोल, ढपली, घंटे, नगाड़े बजाने के लिए ही बनाए गए हैं?
     क्या श्री अरविन्द, श्रीराम जी के जाने के बाद इस राष्ट्र में कोई ऐसी विभूति नहीं उत्पन्न होगी जो साधना के उच्च स्तरीय प्रयोगों को सरंजाम दे सके? क्या इनका कोई भी उत्तराधिकारी क्षेत्र में पैदा नहीं हो पाएगा? हर महामानव ने कठोर तप के बल पर साधना के बल पर ही बड़े संकल्पों को पूर्ण किया। फिर उनके बाद उनकी आने वाली पीढ़ी (शिष्य) कैसे इसकी अवलेहना करके समाज में अपना मुँह दिखाने लायक या कुछ कहने लायक रह पाएँगे।
     यह एक कटु सत्य है कि बड़े-बड़े तपस्वियों के आश्रम मात्र भण्डारें करके, साल में एकाध कथा करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। क्या साधना के लिए, क्या आत्मज्ञान के लिए, क्या अपने पूर्वजों के आत्म-सम्मान के लिए उनके दिल में कोई हूक नहीं उठती? क्या भारत का ब्राह्मण पुरोहित वर्ग अपनी गौरव गरिमा के लिए तपस्वी जीवन स्वीकार नहीं करेगा? याद करो मित्रों! हम वो तपस्वी रहे हैं जिनका राजा-प्रजा सभी सम्मान करती थी। हमारे तप साधना के आगे देवता भी नतमस्तक होते थे।
     क्या इस राष्ट्र के उद्धार के लिए सभी आश्रमों के मुखिया उभरते तपस्वियों को साधकों को प्यार और सम्मान नहीं दे सकते? इस आपसी ईष्र्या, द्वेष व मूर्खता ने भारत को पहले मुगलों का, फिर अंग्रेजों को गुलाम बनाकर रखा। क्या इतना दण्ड मिलने के बाद भी अपनी औच्छी हरकतों से बाज नहीं आएँगे? यदि भगवान ने हमारे पुण्यों कर्मों के द्वारा हमें आश्रमों का संचालक बनाया है तो हमारा यह गहन उत्तरदायित्व बनता है कि प्रत्येक आश्रम का एक भाग साधना अभियान के लिए सुरक्षित रखा जाए। हर वर्ष 108 साधकों का चयन किया जाए उन्हें नो माह के लिए उच्च स्तरीय साधना के लिए नियोजित किया जाए।
     इस समय की यह सर्वाधिक आवश्यकता प्रतीत हो रही है क्योंकि घर-गृहस्थी के साथ व्यक्ति साधना तो करता ही है परन्तु उन ऊँचाईयों तक नहीं पहुँच पाता जहाँ से वह सूक्ष्म के गायत्री-सावित्री प्रयोगों को करने में सफल हो सके। जब तक इस स्तर की विभूतियाँ समाज में नहीं उत्पन्न होंगी हमें विभिन्न मोर्चों पर असफलता ही हाथ लगेगी। यदि वायुसेना न हो तो थल सेना बहुत कमजोर हो जाती है। इसी प्रकार यदि सूक्ष्म के प्रयोग करने वाले साधक न हो तो स्थूल के सभी अभियान कमजोर पड़ जाते हैं।

     यह आशा है कि मेरा भारत इस बात की गम्भीरता को समझ कर आवश्यक कदम शीघ्र ही उठाएगा व परमात्मा की आँखों का तारा हो जाएगा।

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