ऋषि संस्कृति के लिए, भारत के उत्थान के लिए,
उच्च चरित्र व प्रचण्ड साधना।
है हमारी एक मात्र यही कामना ।।
अपने उद्देश्य के लिए पूरा जोर
लगाएँगे,
निर्भय होकर हम आगे बढ़ते जाएँगे।
अंशदान, समय दान ही नहीं, शीश दान भी कर जाएँगे ।।
सावित्री कुण्डलिनी तन्त्र
क्या साधना के द्वारा बाह्य
परिस्थितियों पर नियन्त्रण सम्भव है? जैसे क्या किसी की हार को जीत में बदला जा सकता है? क्या किसी का हृदय परिवर्तन सम्भव है? ये सभी उच्च स्तर के प्रयोग साधना के माध्यम से
सम्भव होते नजर आएँगें यह सावित्री महाविज्ञान है जिसको अभी तक गोपनीय रखा गया है।
देवशक्तियाँ सुपात्रों के आने तक इनको गोपनीय रखना पसन्द करती हैं। इनके कई कारण
है- पहला यदि कम पात्रता वाला व्यक्ति अपनी प्रसिद्धि के चक्कर में इन प्रयोगों को
करना चाहे तो अपना नुकसान भी कर सकता है। दूसरा इनके लिए उपयुक्त वातावरण की
आवश्यकता रहती है। कहने के लिए आश्रम बहुत है परन्तु अधिकतर आश्रम वालों की चाह यह
रहती है कि ज्यादा से ज्यादा जनता आए जिससे जनता का लाभ हो, धन की वृद्धि हो व आश्रम की प्रसिद्धि हो। उनका
ध्यान धन व जनता को Manage करने में ही लगा रहता है। श्री अरविन्द अपने जीते जी
बड़े सुपात्रों को ही अपने आश्रम में घुसने देते थे क्योंकि उन्होंने वो आश्रम
उच्च स्तरीय प्रयोगों के लिए सुरक्षित रखा था। भीड़ बढ़ने से आश्रम उच्च स्तरीय
साधनाओं से वंचित रह जाते हैं। अधिकतर आश्रमों में आधी से अधिक जनता साधना वाली
मानसिकता की नहीं होती। ऐसा होने पर जो दूसरे लोग साधना करना भी चाहते हैं उनको भी
व्यवधान उत्पन्न होता है। यदि आश्रम साधना की मानसिकता को लेकर चलते हैं तो उन्हें
दिखावे की मानसिकता को रोकना होगा, भीड़ को बढ़ने से रोकना होगा अनावश्यक प्रचार को रोकना होगा, आश्रम से पल रही अनावश्यक गन्दगी को साफ करना
होगा। वहाँ औषधि कलक, गौ दूध, गौघृत, यज्ञ आदि का उचित प्रबन्ध करना होगा, शान्त वातावरण का निर्माण करना होगा। हम
छोटे-छोटे लाभों के चक्कर में बड़े लाभों से वंचित रह जाते हैं। आज इस बात की
आवश्यकता है कि आश्रमों में सावित्री के प्रयोगों पर शोध कार्य हो। हमारे सामने
कुछ ज्वलन्त प्रश्न आकर खड़े हो जाते हैं। श्री अरविन्द, श्रीराम ‘आचार्य’, महर्षि रमण, देवरहा बाबा अनेक आत्माएँ शरीर छोड़ गयी। हम उनका प्रचार करते हैं उनका गुणगान
करते हैं परन्तु जो प्रयोग दुनिया को बदलने के लिए वो करते थे उसको क्यों नहीं
अपना पाते। ठीक है दूसरा कोई श्री अरविन्द या श्रीराम ‘आचार्य’नहीं बन सकता परन्तु उसका एक या दो प्रतिशत तो कर सकता है। या उस दिशा में कुछ
तो सफलता हासिल कर सकता है।
हम कहते हैं कि श्री अरविन्द जी
विज्ञानमय कोष का अनावरण कर गए श्रीराम ‘आचार्य’ आनन्दमय कोष का अनावरण कर
गए परन्तु ऐसे कितने साधक हैं जो आज्ञा चक्र अथवा सहस्त्रार चक्र पर ध्यान करते आ
रहे हैं या करने का प्रयास कर रहे हैं। यदि उनको हम छोटे-मोटे सम्मेलन बुलाएँ तो
उनका उत्साह वर्धन होगा एक दूसरे के अनुभवों से सभी लाभन्वित होंगे। हम ढ़ोल पीट
रहे हैं कि विश्व कुण्डलिनी जागरण का महान प्रयोग इस युग के विश्वमित्र ने किया।
परन्तु वो कौन हैं जो इस Channel में आ रहे हैं। क्या हमने कभी यह खोजने का प्रयास
किया? या हम भेड़-चाल में चल रहे हैं। पैसा, मीडिया के द्वारा मिशन को बड़ा करते रहो, Name and Fame अर्जित करते रहो। आज लीक से हटकर चलने की, सोचने की आवश्यकता हैं। आश्रम परम्परा एक व्यापार न बने वरण तक्षशिला नालन्दा
की तरह उच्च स्तरीय तपस्वी, प्रतिभावान व्यक्तित्व गढ़ने की कार्यशाला बने, यह अवतारी सत्ता, देव सत्ता की अपेक्षा है। क्या हम उस अपेक्षा पर खरे उतर पा रहे हैं? क्या हम उसी दिशा में आगे बढ़ पर रहे हैं? या हम इतने पर ही सन्तुष्ट है कि हमने इतनी
जड़ी-बूटी बेच दी, इतनी हवन सामग्री बेच डाली, मेलों में इतनी पुस्तकें बेच दी। इतने लोगों के इतने सत्र करा दिए। यह कार्य
तो बहुत से मिशन कर रहे हैं फिर अवतार, महावतार अथवा युग निर्माण का दावा करने वाले क्या कुछ नया समाज को दे पा रहे
है? इस बात से किसी को बुरा मानने की जरूरत नहीं है
अपितु गम्भीरता पूर्वक एक मंथन, एक समीक्षा की आवश्यकता है। यदि हम अपने को राष्ट्र का सजग प्रहरी, अर्थात् जीवन्त पुरोहित कहते हैं, देवसत्ताओं के वफादार अथवा उत्तराधिकारी कहते
हैं तो बहुत विचारपूर्वक आगे बढ़ने की आवश्यकता है। अन्यथा सरकार जनता को कब तक
बहलाएगी? कब तक मूर्ख बनाएगी? एक न एक दिन तो उसकी पोल खुल ही जाएगी, फिर अपनी कथनी करनी के अन्तर पर पछताएगी। यदि
स्थिति बिगड़ी तो जनता के जूते भी खाएगी। भारत की आत्मा जैसे-जैसे जाग रही है वह
हर प्रश्न का जवाब माँगेगी। क्यों नहीं समय रहते वायदे पूरे हो पाए ये सवाल
उठाएगी। जिन्होंने भी देवसत्ताओं के लिए अपना जीवन कुर्बान करने की शपथ ली है वो
भीष्म पितामह की भूमिका न निभाएँ। आश्रमों को तपोस्थली, साधनास्थली ही बने रहने के लिए संघर्ष करें।
किसी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण वहाँ विकार उत्पन्न न होने पाए। पितामह
तो शरशैय्या पर कष्ट पाए थे। यदि हमने चुनौतियाँ स्वीकार नहीं की तो हम जीते जी
कष्ट पाएँगे।
भारत के हर आश्रम में अध्यात्म
विज्ञान के प्रयोग चलने चाहिए। वहाँ की पवित्रता संरक्षित रहनी चाहिए। वो व्यापार
अथवा व्याभिचार की ओर नहीं मुड़ने चाहिए। इतिहास से हमें सीखना चाहिए। बौद्ध मठ जब
व्याभिचार की ओर मुड़े तो तन्त्र व व्याभिचार के कारण सब कुछ अनर्थ हो गया। अनेक
मन्दिरों के ऊपर आज भी अश्लील चित्र उस इतिहास के साक्षी है। जैसे राम जन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि पर जाकर हम अपनी तौहीन कराते
हैं, क्या ऐसे मन्दिरों में घूमकर हमारा सिर लज्जा से
नहीं झुकता? यह सब कैसे हुआ? अनजाने में हुआ, गलती से हुआ। बड़ी सँख्या में युवक व युवतियाँ साधना के लिए बौद्ध मठों में आने
लगे। मठ वाले उन्हें देख फूले नहीं समाते थे व बड़े-बड़े खवाब देखते थे। परन्तु
धीरे-धीरे वहाँ साधना की जगह वासना ने पैर पसारने शुरू कर दिए। आश्रमों में बढ़ती
भीड़ पर यदि नियन्त्रण न रहे तो यह गोरखधन्धा पनपने में देर नहीं लगती। हम तो इस
अहं में जी रहे हैं कि हमारा आश्रम बहुत बड़ा है। यहाँ इतनी सारी गतिविधियाँ चलती
है। परन्तु यदि वहाँ कोई गलत कार्य हो गया तो मीडिया को, जनता को जवाब देना कठिन हो जाएगा और वर्षों की
मेहनत पर पानी फिर जाएगा।
साधकों के जीविकोपार्जन की व्यवस्था
समाज की बड़ी विडम्बना है कि साधक
को जीवकापार्जन के लिए स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है समर्थ लोग मन्दिरों, आश्रमों के लिए तो पैसा दे देते हैं नाम के
पत्थर लगवा लेते है परन्तु मूलप्रयोजन पूरा नहीं होता। मन्दिरों व आश्रमों की
प्रबन्ध समितियों में कुछ ऐसे लोग जुड़ जाते हैं या धन के चक्कर में जोड़ने पड़ते
हैं जो साधना वाली मानसिकता के नही होते वो केवल बाहरी दिखावों शोभा इत्यादि पर ही
धन खर्चना पसन्द करते हैं। इस कारण मन्दिर व आश्रम तपोस्थली, साधनास्थली ना रह कर दर्शनीय स्थल (Picnic Spot) बन कर रह जाते हैं। पहले मन्दिर
या आश्रम स्वरूप में छोटे होते थे परन्तु उनके भीतर साधक और तपस्वी स्तर के लोग
निवास करते थे जो आने वाली जनता को सही दिशा देते थे, सतकर्मों की ओर प्रेरित करते थे छोटे-बड़े, उच्च-नीच का भेद हटाकर सबको गले लगाते थे, उनकी समस्याओं को हल करते थे, दुर्भाग्यवश आज वो प्रथा समाप्त हो गई तप के मानसिकता
जगह, धन का खेल प्रारम्भ हो गया। आज साधक परेशान है
यदि वह छः-सात घण्टे जीविका उर्पाजन में लगाता है तो साधना के लिए समय व वातावरण
नहीं मिल पाता। यदि आश्रमों की ओर दौड़ता है तो कुछ ही समय में वह साधना को छोड़
वहाँ की राजनीति में फंस जाता है।
जनसामान्य से हमारा निवेदन है कि
इस राष्ट्र की धरोहर साधना व साधकों बचाने के लिए वो एक-एक साधक परिवार को गोद लें
जो समर्थ है वो साधकों की आर्थिक सहायता करें बहुत से ऐसें व्यक्ति है जो अपना
जीवन साधना के लिए समर्पित करना चाहते हैं परन्तु अपनी गरीबी के कारण रोजी-रोटी की चक्की में पिसने के
लिए मजबूर हैं। साधना करने वाले व्यक्ति के भीतर एक संशय बना रहता है कि पता नहीं
भविष्य में उसके जीव-उर्पाजन की व्यवस्था ठीक बन पाएगी या नही, इस कारण वह इधर-उधर भटकता है और पूरे मन से
साधना नहीं कर पाता। बुद्धिजीवी व धर्मप्रेमियों को इसका कोई न कोई विकल्प अवश्य
निकालना चाहिए साधकों एवं भगवान् के भक्तों की योग-क्षेम की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे वो अपना आत्म-सम्मान बनाए रखें और निश्चित
हो कर अपने लक्ष्य की और बढ़े यदि कोई भी व्यक्ति ऐसा करता है अर्थात किसी साधक के
भरण-पोषण में मदद करता है तो साधक की साधना का उसके पुण्यों का एक अंश उस व्यक्ति
तक निश्चित रूप में पहुँचता है। इस परिपाटी से जन सामान्य एवं साधक वर्ग दोनों को
ही बहुत लाभ है परन्तु दुर्भाग्यवश हमने भव्यता के चक्कर में, लोगों को आकर्षित करने के चक्कर में, अपने अंह के चक्कर में वहाँ की दिव्यता खो दी। यह मात्र हमारे मन का एक छलावा
है कि यदि हम धन अथवा स्वर्ण मन्दिरों में चढ़ाएँ तो उससे दैवशक्यिाँ उत्पन्न
होंगी जब तक उस धन का सदुपयोग समाज के उत्थान में न हो। यदि हम अपने पुत्र को फीस
के लिए पैसे दें और वह उस पैसे से अपने दोस्तों को होटलों में पार्टी करा दे तो
क्या हमारा प्रयोजन पूरा हो जाएगा? इसी प्रकार यदि धन मन्दिरों, आश्रमों में चढ़ा दें और उससे साधकों एवं भक्तों वे जीवन-उर्पाजन की व्यवस्था
न हो पाए तो दैवशक्तियाँ कैसे उस धन को स्वीकार करेंगी।
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