प्रश्नोत्तरी
1. प्रश्नः श्री
अरविन्द एवं युगऋषि श्रीराम ‘आचार्य’ जी ने अपने लेखों एवं प्रवचनों में नवयुग के
आगमन की बात कही है परन्तु उनकी भविष्य वाणी वर्तमान समय को देखते हुए सही नहीं
प्रतीत हो रही है। ऐसा क्यों?
उत्तरः जैसे वैज्ञानिक लोग उच्च स्तर के प्रयोग
करते हैं प्रयोगों में कुछ कमियाँ रहने पर उनको सुधारा व सँवारा जाता है इसी
प्रकार ऋषि सत्ताएँ वातावरण परिष्कार के लिए उच्च स्तरीय प्रयोग करती हैं। दूसरे
शब्दों में आसुरी शक्तियों व प्रवृत्तियों के विरूद्ध संघर्ष करके उनको परास्त करके
ही उज्ज्वल भविष्य की कल्पना की जा सकती है जैसे युद्ध में यदि कोई कमांडर या कोई
टुकड़ी कमजोर पड़ जाए तो आपेक्षित परिणाम नहीं निकल पाते। उसकी क्षति-पूर्ति के लिए दूसरी
बड़ी सेना नियोजित करनी पड़ती है। उसी प्रकार युग-निर्माण के महासंग्राम मे कमजोर
पक्षों की क्षति-पूर्ति के लिए देव-सत्ताएँ व्यवस्था बना रही हैं।
जैसे वैज्ञानिक जब मिसाईल बनाते हैं तो समय का एक आंकलन प्रस्तुत करते हैं माना
अगले पाँच साल में यह प्रक्षेपात्र तैयार करेंगे उसके लिए सारी व्यवस्थाएँ बिठानी
पड़ती हैं। उस आंकलन में थोड़ी-बहुत कमी या अधिकता हो सकती है परन्तु यह नहीं समझा
जाए पूरे पाँच साल में नहीं बन पाया तो आगे भी नहीं बन पाएगी। समय-समय पर उच्च
स्तरीय कमेटियों को सभी विभाग रिपोर्ट भेजते हैं व जरूरत के अनुसार कमजोर पक्षों
को मजबूत बनना पड़ता है। युग-निर्माण का यह महासंग्राम मानव मात्र के उज्ज्वल
भविष्य के लिए मानव द्वारा ही लड़ा जाना है। यदि मानव इसमें लापरवाही करता है
उसमें उचित भूमिका नहीं निभाता तो डाट-डपट कर उसको ठीक करना पड़ता है अर्थात
मुसीबतों कठिनाईयाँ, आपदाएँ मानव को सही दिशा में चलने के लिए बाध्य
करती हैं।
2. प्रश्नः प्रायः
लोगों की यह शिकायत रहती है कि अच्छे लोग ही कष्ट क्यों पाते हैं?
उत्तरः इसके जवाब में युगऋषि श्रीराम जी का कहना
है कि अच्छे लोगों में परिष्कार की, पवित्रता की चाहत बड़ी तीव्र होती है। ऐसी जीवात्माएँ अपने को महाकष्ट में डाल कर भी अपने सभी दाग धो देना चाहती हैं। जब
इनके दाग धुल जाते हैं तो ये परिष्कृत हो जाती हैं यही दिव्य आत्माएँ बाद में
महाकाल की महायोजना में भागीदार बनती है।
प्रश्नः एक बार एक व्यक्ति ने एक महात्मा से
प्रश्न किया महाराज, हम संसारी जीव अपने प्रारब्धों के कारण दिन रात
तरह तरह के झंझटों में उलझे रहते हैं। साधन भजन के लिए समय ही नहीं मिलता। क्या इस
प्रारब्ध क्रम से हमारा परित्राण संभव नहीं है?
उत्तरः महात्मा ने उत्तर दिया- ”प्रत्येक
व्यक्ति को अपना कर्मफल भोगना ही होगा। किन्तु कड़ी धूप में जैसे कोई राही छाता के
द्वारा सहूलियत प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार यदि कोई मनुष्य भगवान के चरण में
छाया का आश्रय ले तो कठोर प्रारब्ध की तीव्रता कुछ कम हो जाती है।“ यदि कोई व्यक्ति
समुद्र में स्नान के लिए जाए व किनारे बैठ कर प्रतीक्षा करता रहे कि समुद्र में
लहरें खत्म हो जाएँ तो हम स्नान करे यह असम्भव है। इसी प्रकार संसार का कोलाहल
थमने वाला नहीं है। यदि ऐसा सोचते रहे तो कभी साधना नहीं हो पाएगी जितना सम्भव हो
सके इसी क्षण से शुरु कर दो। धीरे-धीरे कर के ज्ञान की एक अग्नि उत्पन्न होगी जो
सारे प्रारब्धों को भस्म करती चली जाएगी। ”ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा।“
मनुष्येतर प्राणियों की ओर दृष्टि डालने पर
स्पष्ट होगा कि सब केवल किसी एक विषय में आसक्त हैं। पतंग के नाश के कारण है- उसका
रूप-ग्राही चक्षु, जिससे वह दीपशिखाा की रूपज्वाला में जलकर भस्म
हो जाता है। मृग को मृत्युजाल में फँसाने के लिए उसकी कर्णेन्द्रिय ही कारण रहती
है जो उसे वंशी-ध्वनि सुनने को विवश कर व्याध के शर का शिकार बना देती है। हाथी
स्पर्शेन्द्रिय की दुर्बलता से छलनामई हथिनी की ओर अग्रसर होकर जाल में जा फँसता
है और मछली रसना के आवेश में आकर बंसी बिंध जाती है। इन सब जीवों का विनाश केवल
एक-एक इन्द्रिय के असंयम के कारण होता है। फिर सोच कर देखो तो जो मानव समष्टि रूप
में इन पाँचों इन्द्रियों का गुलाम है उसकी विपत्ति की सीमा कहाँ है? पाँचों
इन्द्रियाँ अपनी-अपनी ओर खींचतीं, ढकेलतीं उसे विनाश के गर्द में गिराती हैं।
निरन्तर अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही इन्द्रियों का वश में रखा जा सकता है।
सतत ब्रह्मअभ्यास से मनविक्षेप को नाश।
ज्ञान दृढ़ निर्वासना जीव मुक्ति प्रतिभास ।।
”श्री भगवान को पाना हो तो उन्हें दोनों हाथ से
गहना होगा। एक साथ से संसार को जकड़े रहना और दूसरे हाथ से भगवान के चरणस्पर्श
करना यह संभव नहीं है।“
कुछ साधकों की यह समस्या है कि वो जनकल्याण में
रूचि नहीं लेते तो कुछ की यह भी समस्या है कि वो लोक कल्याण में जरूरत से ज्यादा
रूचि लेते हैं। ऐसे व्यक्ति साधना की पूरी शक्ति इस कार्य में झोंक देते हैं। मेरे
विचार से यह आदर्श स्थिति नहीं है। शक्ति का कुछ भाग उन्हें अपने स्वास्थ्य व अपनी
साधना को बढ़ाने में अवश्य लगाना चाहिए।
चाह गई चिन्ता गई, मनुआ बेपरवाह।
जिस मन में संतोष है, वह है शाहंशाह ।।
3. प्रश्नः पुस्तक
में दिया गया है कि सवा लाख लोगों पर शक्तिपात होगा क्या इससे पूर्व में किसी पर
शक्तिपात नहीं हुए? यदि ऐसा हुआ तो वह प्रयोग सफल क्यों नहीं हुआ?
उत्तरः इससे पूर्व अनेक व्यक्तियों पर देव
सत्ताओं ने शक्तिपात किए परन्तु अधिकाँश सम्भाल न पाने के कारण असफल रहे। ऋषि
सत्ताएँ साधकों पर भाँति-भाँति के प्रयोग करके देखती हैं। कारण यह है कि व्यक्ति
में वासना, तृष्णा, अहंता नामक तीन विकार होते हैं। कई बार व्यक्ति वासना, तृष्णा काट
डालता है। मोह बन्धन कट जाते हैं। अब शक्ति या तो देवत्व की ओर चले या असुरत्व की
ओर। रावण वासना, तृष्णा से ऊपर उठ चुका था। सीता जी को उसने नुक्सान नहीं पहुँचाया। बेटे, भाई एक के बाद
एक मरते रहे परन्तु किसी का मोह नहीं सताया।
शक्ति का प्रवाह अहं की ओर मुड़ गया इसलिए भारी
विनाश हुआ। यदि यही प्रवाह विराट, ब्रह्म की सेवा की ओर मुड़ जाता तो वही रावण ऋषि
हो जाता।
अहं का कटना बहुत दुष्कर होता है। साधक को हर
परिस्थिति में स्वयं को देवत्व से चिपके रहना पड़ता है जिससे शक्ति का प्रवाह मद
में न बह जाए।
ऋषि सत्ताओं ने नारी सदी की घोषणा इसीलिए की
क्योंकि नारियों मे देवत्व की माता अधिक होती है। परन्तु ऐसी भी महिलाएँ देखी गयी
जिनको महाकाल ने शक्ति दी और वह प्रवाह गलत दिशा में बह गया। एक महिला साधना की
उच्च अवस्था से कारागार में पहुँच गई।
तमाम विपरीत परिस्थितियों के चलते जो देवत्व को
धारण किए रहते हैं वही शक्तिपात को धारण करने में समर्थ हो सकते हैं। यदि व्यक्ति
निरन्तर अपना गहन आत्म-विश्लेषण करता रहे तभी शक्तिपात सफल हो सकता है।
अनेक साधक अपने जीवन में नारी की गलत भूमिका के
कारण असफल रहे। शास्त्रों के कथनानुसार नारियाँ साधकों की साधना में विघ्न पैदा
करती हैं। आज भी अनेक स्थलों पर रम्भा व मेनका जैसे रोल नारी अदा करती दिखायी देती
है। कुछ नारियाँ अपने पतियों को साधना से भटकाने के लिए मेनका की तरह प्रयास करती
हैं व कुछ सीधा विद्रोह कर देती हैं जिसके दुष्परिणाम पूरे परिवार का भुगतने पड़ते
हैं। पहले नारी को धमकाने पर वह डर जाती थी परन्तु आज कुछ महिलाएँ ढ़ीठ (rigid) होकर
अपना दुव्र्यवहार जारी रखती हैं।
पुरुष और नारी का युग्म है नारी अगर पुरुष की सहधर्मिणी, सहचरी बनकर
साधना मार्ग में पुरुष का सहयोग करे तो दोनों का जीवन श्रेष्ठ हो जाता है। अन्यथा
इतिहास में ऐसे बड़े प्रसंग हैं कि नारी के कारण साधकों की साधना में विघ्न पड़ते
हैं। एक परिवार में यहाँ तक देखा गया कि देवसत्ताओं ने अनेक बार एक साधक की साधना
में बाधा उत्पन्न करने के लिए उसकी धर्मपत्नी को चेतावनी दी परन्तु जब वह नहीं
मानी तो उसके मायके में दुर्घटनाओं का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। अतः सबका दायित्व
है कि साधना में जो विघ्न पैदा कर रहा हो उसको रोका जाए। यदि बीच चैराहे पर किसी
महात्मा अथवा गाय कोई दुष्ट मार रहा हो तो क्या वहाँ से गुजरने वाले व्यक्ति इसे
नजर अन्दाज कर जाएँगे? इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी साधक को परेशान
कर रही हो तो उसकी मित्र मण्डली पर भी उस पाप की गाज अवश्य गिरेगी।
कई बार देवसत्ताओं के शाप से दर्दनाक मृत्यु
जैसी वेदनाएँ भी भोगनी पड़ती हैं। समय का दुष्प्रभाव नर और नारी दोनों को भ्रमित
को रहा है। परन्तु अब सन् 2014 से परिस्थितियाँ अधिक सतोगुणी हो गई हैं। तमस
का बड़ा भाग कट चुका है। फिर भी जो साधक साधना के नियमों की अवहेलना करके वयाभिचार
अथवा भ्रष्टाचार में लिप्त होगा अथवा जो कोई साधक की साधना में विघ्न उत्पन्न
करेगा उन सब पर ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा। अन्य सभी पापों का प्रायश्चित सम्भव है, देवात्माओं
द्वारा शमन किया जा सकता है। परन्तु ब्रह्म हत्या के महापाप से नारायण भी रक्षा
नहीं की सकते। साधक की साधना इस राष्ट्र की धरोहर है, उसकी रक्षा हरेक
का कर्तव्य है अन्यथा इसकी उपेक्षा हर किसी को भारी पड़ेगी। इस कर्तव्य से कोई
मुँह नहीं मोड़ सकता।
ऋषि सत्ताएँ अब इस दिशा में कुछ नए प्रयोग कर रही
हैं। पहले साधक के कुःसंस्कार उसको दिखा रही हैं व उनको दूर करने में शक्ति
नियोजित कर रही हैं। इन प्रयोगों को समझा पाना, लिख पाना बहुत कठिन है। इसका मर्म वही जान सकता
है जिसके साथ घटित हो रहा होगा। ऋषियों के इस प्रयोग का नाम हृदय परिवर्तन दिया जा
सकता है। भविष्य में इस प्रयोग से अनेक प्रतिभाशाली आत्माएँ आध्यात्मिक दिशाधारा
का वरन करेंगी।
4. प्रश्नः कईं बार
साधना में हृदय गति (धड़कन) बढ़ती है अथवा सीढ़ी चढ़ने पर साँस
फूलती प्रतीत होती है। समाधान क्या हो सकता है?
उत्तरः यह उत्तेजना (excitement) बढ़ने के कारण होता है साधक पित्त की वृद्धि से ऐसा प्रभाव उत्पन्न होता है।
सर्वप्रथम हृदय चिकित्सक से जाँच कराएँ। ऐसा देखा गया है कि जाँच में हृदय में कोई
दोष नहीं होता।
इसके लिए शान्ति की भावना को भीतर धारण करें।
तनाव रहित वातावरण में रहें। ध्यान ऊपर के चक्रों की ओर केन्द्रित करें। इसके
साथ-साथ अपान वायु मुद्रा का पन्द्रह-बीस मिन्ट प्रातः अभ्यास करें। हृदय रोगों में
यह राम बाण है विवरण निम्न है-
पिहनतम ूपसस बवउम ेववद
लाभ- इससे हृदय एवं वात रोग दूर होते हैं। शरीर
में आरोग्यता का विकास, दिल का दौरा पड़ते ही यह मुद्रा करने पर आराम।
पेट- गैस का निष्कासन। सिर दर्द, पेट दर्द, कमर दर्द, साइटिका, गठिया, दमा, उच्च रक्तचाप, एसीडिटी में लाभ। शरीर का तापमान सन्तुलित। दमा
के रोगी सीढि़यों पर चढ़ने से पाँच- सात मिनट पहले कर लें।
मुद्रा बनाने का तरीका-
अपने हाथ की तर्जनी उंगली को अंगूठे की जड़ में लगाकर अंगूठे के आगे के भाग
को मध्यमा उंगली और अनामिका उंगली के आगे के सिरे से लगा देने से अपानवायु मुद्रा
बनती है लेकिन कनिष्ठिका (छोटी उंगली) बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए।
यह मुद्रा दिल के रोगों में तुरंत ही असर दिखाती है। किसी व्यक्ति को दिल
का दौरा पड़ने पर इस मुद्रा को करने से तुरंत ही लाभ होता है। दिल के रोगों के
साथ-साथ अपानवायु मुद्रा आधे सिर का दर्द भी तुरंत ही कम कर देती है। इसके निरंतर
अभ्यास से पेट के सभी रोग जैसे पेट में गैस आदि तथा पुराने रोग जैसे गठिया और
जोड़ों के दर्द में लाभ होता है। इस मुद्रा को करने से दिल के रोग और ब्लडप्रेशर
जैसे रोग पूरी तरह जड़ से समाप्त हो जाते हैं।
समय-
अपानवायु मुद्रा को सुबह और शाम लगभग 15-15 मिनट तक करना चाहिए।
5. प्रश्नः ये आम
मान्यता है कि ध्यान से मानसिक शान्ति आती है परन्तु मैं जब भी ध्यान करता हूँ
मेरे अन्दर disturbance बढ़ता है और अशान्ति पैदा होती है। कारण और निवारण बताएँ।
उत्तरः जब तक ध्यान मनोमय कोष को परिवर्तित करता है
व्यक्ति के अन्दर मानसिक शान्ति होती है। परन्तु यदि ध्यान की ऊर्जा विज्ञानमय कोष
में प्रवेश कर विज्ञानमय कोष को हिलाना आरम्भ कर दे तो उसका सबसे पहला सामना
व्यक्ति के प्रारब्धों व संचित कर्मों से होता है। यदि कर्म अधिक कठोर हैं तो
ऊर्जा द्वारा उनको काटने का क्रम व्यक्ति के भीतर तरह-तरह के disturbance (विकृतियाँ) उत्पन्न कर सकता है।
निवारणः इसके निवारण में पहली शर्त तो यह है कि
व्यक्ति डरे नहीं। शान्त मनोस्थिति बनाए रखें। कभी-कभी ऐसी स्थिति बनती है कि अजपा
जप चलता है परन्तु व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक स्थिति अशान्त रहती है ना तो
व्यक्ति से जप छोड़ते बनता है ना अपनी स्थिति सम्भालते बनता है। गायत्री परिवार के
एक साधक के अन्दर इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हुई व मृत्युयोग बना तो वन्दनीया
माता जी ने उसके सहस्त्रार पर दर्शन देकर उसको मृत्युंजय मन्त्र जपने व 24 दिन तक दोनों
समय 24-24 अहुतियाँ डालने
का आदेश दिया। अब साधक के भीतर धीरे-धीरे करके मृत्युंजय महामन्त्र का अजपा जप
शुरू हो गया।
मार्ग के रोड़े
आंतरिक सत्य की अभिव्यक्ति को जिन्होंने
जीवन-लक्ष्य के रूप में चुना है, इसी शरीर में रहते हुए जिनहें नया जन्म चाहिए, जो आत्मा का
साक्षात् और उसमें निवास चाहते हैं, उसी से प्रेरित होकर जीवन-मार्गों पर चलना चाहते
हैं ऐसी चेतना में उठना चाहते हैं जिसमें आत्म-ज्योति झलकती हो, आत्म-सत्य
प्रवाहित होता हो। उन्हें चाहिए कि वे अपनी सत्ता के सर्वोच्च स्तर पर निवास करें।
किसी भी स्थिति में जीवन के निम्न स्तरों पर न आयें। मनोरथों के जाल न बुनें।
इन्द्रिय-सुख की कामनाओं से, भोगों के स्पृहा से दूर रहें। अहंकार की चालों
को पहचानें, उसके प्रभाव में न आयें।
अज्ञानजनित पुराना स्वभाव, उसकी अभ्यासगत
वृत्तियाँ, अध्यात्म-मार्ग में, हमारी आत्म-उपलब्धि में बाधक होते हैं, मार्ग में रोड़े
हैं।
उच्चस्तरीय साधनाओं की सावधानी
इस अवतरण और इसके कार्य के क्रम में यह बात
अत्यावश्यक है कि कोई सर्वथा अपने ही भरोसे न रहे, बल्कि गुरु के आदेश-निर्देश का भरोसा करे और जो
कुछ हो उसे विचार-विवेचन करने और निर्णय करने के लिए गुरु के आगे रखे। कारण, प्रायः ऐसा होता
है कि अवतरण से निम्न प्रकृति की शक्तियाँ उत्तेजित हो जाती हैं और अवतरण के साथ
मिलकर उससे अपना काम निकालना चाहती हैं। ऐसा भी प्रायः होता है कि कोई एक अथवा
अनेक शक्तियाँ जो स्वरूपतः अदिव्य हैं, श्रीभगवान या श्रीभगवती का रूप धारण करके सामने
आती और जीव से सेवा और समर्पण चाहती हैं। यदि ऐसी-ऐसी बातें हो और उन्हें अपना
लिया जाये तो इसका बड़ा ही भीषण नाशकारी परिणाम हो सकता है। हाँ, यदि वास्तव में
साधक की अनुमति केवल भागवत् शक्ति के कार्य के लिए ही हो और उसी शक्ति के
आदेश-निर्देश के आगे प्रणति और शरणागति हो तो सब बातें ठीक-ठीक बन सकती हैं। यही
अनुमति और इसके साथ समस्त अहंकारगत शक्तियों तथा अहंकार को प्रिय लगने वाली सब
शक्तियों का त्याग, ये ही दो बातें सारी साधना में साधक की रक्षा
करती हैं। परन्तु प्रड्डति के सब रास्तों पर सब तरह के जाल बिछे हुए हैं, अहंकार के भी
असंख्य छद्मवेश हैं, अंधकार की
शक्तियों की माया, राक्षसी माया अत्यंत धूर्ततापूर्ण है। बुद्धि पथप्रदर्शन का काम पूरा-पूरा नहीं कर सकती और प्रायः दगा करती है। प्राणगत वासना
बराबर ही हमारे साथ रहती है और किसी भी अकारक चीज के पीछे दौड़ पड़ने के लिए हमारे
अंदर लोभ जगाती रहती है। यही कारण है कि इस योग में हम ‘समर्पण’ पर इतना जोर
देते हैं। यदि हृदयचक्र पूर्णतया खुल जाये और आज्ञाचक्र न खुल पाए तो हृत्पुरुष
चाहे जब निम्न प्रकृति की वासना के क्षोभ से छिप सकता है। इसलिए युगऋषि श्रीराम ‘आचार्य’ जी ने सृष्टि के
आनन्दमय कोष का अनावरण किया जिससे आज्ञाचक्र
बेधन में सफल हो सकते हैं। भावनाशील व्यक्ति हृदय चक्र खोल सकते हैं।
बहुत ही थोड़े, लोग ऐसे होते हैं जो इन संकटों से बचे रहते हैं
और यथार्थ में इन्हीं लोगों के लिए समर्पण करना सहज होता है। किसी ऐसे पुरुष का
अनुशासन, जो स्वयं
श्रीभगवान से तदात्मभूत हो या जो भगवान का ही प्रतिरूप हो, इस कठिन साधना
में अत्यावश्यक और अनिवार्य है। मोक्ष रूपी परम सुख के अनुभव के लिए अचल श्रद्धा तो
अवश्य चाहिए। अपने लिए कोई चिन्ता न करना, सब परमेश्वर को सौंप देना, ऐसा आदेश ही सब
धर्मों में दिया गया है।
वे बहुत सौभाग्यशाली है, जिन्हें समर्थ
गुरु का संरक्षण व मार्गदर्शन प्राप्त है। ऐसा गुरु जो वशिष्ठ और विश्वामित्र की
विशेषताओं से सम्पन्न हो, जिसने अपने प्रचण्ड तप द्वारा ईश्वरीय सत्ता का
साक्षात्कार किया हो, जो बुद्ध की भाँति आत्मबल का धनी हो, रामकृष्ण की
तरह जिसके अन्तःकरण में भक्तिरस की धारा प्रस्फुटित होती हो, जो कृष्ण की
भाँति योग विभूतियों से सुसम्पन्न हों, सचमुच जिन्हें ऐसे समर्थ गुरु का मार्गदर्शन मिल
गया, समझना चाहिए कि
जीवन लक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली साधना की आधी मन्नत पुरी हो गयी तथा
उत्तरोतर गति से आगे बढ़ने का एक सशक्त आधार-अवलम्बत मिल गया।
साधकों के साथ साक्षात्कार
लेखक- गुरुदेव श्रीराम जी ने जो 24 उच्च कोटि के
साधकों की टीम बनायी थी। आप उसमें से एक रहें हैं। मेरे दो प्रश्न हैं कि क्या आप
उस ऊँचाई तक पहुँच पाए जहाँ गुरुदेव चाहते थे? क्या-क्या बाधाएँ आपके मार्ग में आयी अथवा क्या
आपसे भूल हुई या क्या सफलताएँ मिली?
साधक- मेरी साधना में काफी उतार-चढ़ाव आते रहते
हैं। उच्च स्तर पर पहुँचने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हूँ। साधना के सभी नियमों का
पालन करता हूँ। फिर भी कुछ कारणों वश मेरी साधना उस ऊचाँई को नहीं छू पाई जहाँ
गुरुदेव पहुँचाना चाहते थे। इसके कुछ कारणों में से एक मेरा परिवार के प्रति मोह
रहा है। एक घटना में बता रहा हूँ। मेरे पिता जी जब रिटायर्ड हुए तो उन्होंने घर
बदलना था व रिटायरमेंट की पार्टी रखी हुई थी। मुझे पिता जी ने बहुत जोर देकर
बुलाया। मैं अनुमति लेने गुरुदेव के पास पहुँचा। उस समय मेरी साधना बहुत ही उच्च
अवस्था में थी। गुरुदेव ने कहा, ”बेटा साधनाक्रम में व्यवधान ठीक नहीं है। आपके
छोटे भाई व अन्य परिवार के लोग सब प्रबन्ध कर लेंगे।“ लेकिन मैने
गुरुदेव से निवेदन किया कि बहुत दिन से घर नहीं जा पाया हूँ मिलने की इच्छा हो रही
है कृपया अनुमति दें। गुरुदेव ने पुनः मना किया कि इस समय घर जाना उचित नहीं होगा
परन्तु मैने फिर आग्रह किया कि एक सप्ताह में लौट कर आऊँगा व साधना में जुट
जाउँगा। गुरुदेव ने उस पर नाराज होकर कहा- जैसे तुम्हारी इच्छा फिर मुझसे क्यों
पूछते हो?
मैने सोचा कि घर से आकर कठिन साधना करूँगा व
गुरुदेव को प्रसन्न कर लूँगा। जब मैं घर पहुँचा तो जप में बैठा तो प्रकाश दिखना
बन्द हो गया जो मुझे नित्य दिखता था। मेरे घर पहुँचने पर दो-चार दिन सब ठीक रहा
फिर पिता जी थोड़ा नाराज हुए। मैं घर पर रूठे पिता जी को प्रसन्न करने में उलझा
रहा। एक दिन पिता जी ने डाँटकर घर से भगा दिया। न पिता जी को प्रसन्न कर पाया न
गुरु आज्ञा का पालन।
तीन माह पश्चात् जब वापिस हरिद्वार आया तो ध्यान
जप पूर्णतः ठप हो गया। मैं डरते-डरते गुरुदेव के पास गया। गुरुदेव ने कहा, ”अब इस जन्म में तुम्हारा लक्ष्य तक पहुँचना कठिन
हो गया है। घर पर आसुरी शक्तियों द्वारा तुम्हारी साधना को चैपट कर दिया गया अब
मुझे दोष मत देना। वर्षों की मेहनत पर पानी फिर गया।“
उस गलती पर आज तक पश्चाताप् कर रहा हूँ।
सत्य ही है गुरुसत्ता हम सबकी अन्तरात्मा में
बैठकर ऐसी प्रेरणाएँ हम सब को देती हैं परन्तु हम अपनी भौतिक इच्छाओं के आगे उसकी
अवेहलना करते हैं और उस साधक की भाँति बाद में पश्चाताप्।
ऐसे अनेक अनुभव हमारे सामने आएँ हैं परन्तु उन
सभी का विवरण यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
यह घटना पूज्य गुरुदेव श्रीराम जी के जीवन काल
की हैं। क्षेत्रों से प्रवचन देने वाली एक टोली लेट कर आयी व गुरुदेव के सामने
अपनी खुशियाँ प्रकट करने लगी कि हमारे प्रवचनों को लोगों ने बहुत अच्छे से सुना व
अच्छे से सराहे। गुरुदेव ने उनसे कहा कि अपनी कला पर अभिमान मत करना वो एक कुत्ते
से भी प्रवचन कराने में समर्थ हैं। उनकी यह बात कितनी सटीक थी जो भी मिशन से जुड़ा
उनके सम्पर्क में आया उसमें अद्भुत प्रतिभा विकसित होती चली गयी।
गुरुदेव की बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि
उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि वे कुत्ते से भी प्रवचन करा सकते हैं। कुत्ते में कोई
योग्यता नहीं होती लेकिन एक विशेषता होती है कि वो मालिक के प्रति वफादार रहता है।
यदि हम गुरुदेव के प्रति वफादार बने रहेंगे तो हमारी प्रतिभा विकसित होगी। यदि समर्पित होंगे तो
उच्च विभूतियाँ हमारे भीतर प्रकट होंगी।
पुराणों में सुना था कि अनेकों लोगों ने भगवान
की तपस्या की, भक्ति की, वरदान पाए परन्तु कुछ ही समय उपरान्त उनमें अहंकार उपजा व उन सम्पदाओं का
दुरुपयोग करने लगे। गुरुदेव के जीवन में भी इस प्रकार का उदाहरण अनेक लोगों ने पेश
किया जो मात्र अपनी रोजी-रोटी, पद-प्रतिष्ठा के लिए मिशन से जुड़े रहे परन्तु
वफादारी को छोड़ दिया। जब-जब भी ऐसे लोगों की सँख्या बड़ी कुछ न कुछ अप्रिय घटित
होता रहा। अतः प्रत्येक साधक को नित्य प्रति आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता है कि
उसकी वफादारी, सम्पर्ण में कोई कमी तो नहीं आ रही।
प्रश्नः- हमारे घर वाले हमारी बात नहीं मानते, अच्छे रास्ते पर
नहीं चलते, घर में क्लेश-कलह रहता है, क्या करें? अच्छे कार्यों में विघ्न आते हैं क्या करें?
उत्तरः- इसके लिए घर वालों से मोह का परित्याग
कर दीजिए। तुलसी का मीरा को जो सन्देश दिया गया था वह बहुत ही उपयुक्त है।
”जाके प्रिय न राम वेदेही, तजिए ताहि कोटि
वैरी सम जदपि परम स्नेही।“
इसका अर्थ है कि आप अपने मोह को त्याग दीजिए।
जैसे बाहर लोगों की अच्छी बात बताते हैं वो नहीं मानते तो हम आगे बढ़ जाते हैं।
उसी प्रकार घर वालों को भी अच्छी-अच्छी प्रेरणा दें परन्तु यदि न माने तो उनमें
उलझे नहीं अन्यथा साधक का व्यक्तित्व व साधना दोनों चली जाएँगी। आप अपना काम करें
उन्हें अपना काम करने दें।
अधिकाँश महापुरुषों के जीवन में ये कठिनाईयाँ
आती रही हैं। गाँधी जी से जब लोगों ने पूछा कि अंग्रेजों ने आपको बहुत कष्ट दिया।
उनका उत्तर था कि मैं अंग्रेजों से अधिक दो व्यक्तियों से अधिक परेशान रहा
जिन्होंने जीवन में मेरे लिए समस्याएँ उन्पन्न की। वो हैं एक मेरा बड़ा पुत्र व
मुहम्मद अली जिन्ना।
परम पूज्य गुरुदेव के सामने भी इस प्रकार की
कठिनाईयाँ आयी परन्तु वो सदा महान लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ते रहे। लेखक का जीवन भी
हर प्रकार की दर्दनाक विडम्बनाओं से भरा रहा है। कई बार तो यहाँ तक पाया गया कि जब
भी कोई महत्त्वपूर्ण कार्य चरम पर आया तो विरोधों में, घरेलू झगड़ों व
पारिवारिक समस्याओं में तीव्रता आयी। स्वयं को अभिमन्यु की भाँति चहुँ ओर से घिरा
पाया गया। परन्तु महाकाल की कृपा से धीरे-धीरे सब काम निर्विघ्न पूरे होते
रहे। इस समय कार्य के साथ-साथ भगवद् कृपा के लिए प्रार्थना भी महत्त्वपूर्ण होती
है। भगवान सबको सदबुद्धि दें।
कभी-कभी धमकाना भी पड़ता है। एक बार एक महिला ने
मुझे बताया कि उसकी सास उसको साधना नहीं करने देती थी। समय के साथ उसकी सास
दर्दनाक कैंसर की चपेट में आ गयी। वह महिला अपनी सास की देखभाल व साधना दोनों करती
तो उसका पति उसको साधना छोड़कर घर के कामों के लिए जोर देता। बहुत समय तक महिला
सहन करती रही एक दिन क्रोध में आकर उसने अपने पति को कह दिया, ”अपनी माँ की
दुर्गति आपने देख ली यदि आप भी उसी रास्तें पर चलोंगे तो आपकी भी यही दुर्गति
होगी।“ उस दिन के
पश्चात् उसके घर मे शान्ति हो गयी।
परन्तु कई बार धमकाने से व्यक्ति ढ़ीठ (rigid) हो
जाता है। लेखक स्वयं ऐसी अनेक नारियों व पुरुषों के सम्पर्क में आया जो बहुत ही
अडि़यल किस्म के होते हैं जिन पर किसी प्रकार की धमकी या प्यार का कोई असर नहीं
होता। ऐसे में महाकाल ही रास्ता बना सकता है।
एक अनुभव मैं लिखना चाहूँगा जब मैं यह पुस्तक
लिख रहा था तो एक व्यक्ति ने मुझे परेशान करना प्रारम्भ किया जिससे मानसिक शान्ति
भंग होने लगी। मैने भगवान से प्रार्थना की। पता चला कुछ समय उपरान्त वह व्यक्ति
किसी और तगड़े व्यक्ति से उलझ गया व मुझसे अब दोस्ती की चाह रखने लगा। इस प्रकार
मेरी उससे दोस्ती हो गयी क्योंकि-
कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी माँगे खैर।
न काहु से दोस्ती, न काहु से बैर ।।
चार दिन के इस जीवन में कौन दोस्त व कौन दुश्मन।
जिन्हें आत्मज्ञान का महान लक्ष्य पाना है वो दोस्ती-दुश्मनी के इस जंजाल में नहीं
पड़ते वो अपने पुराने कर्मों का लेन-देन पूरा करते हैं।
प्रश्नः- साधना में वासना बहुत तंग करती है, क्या करें? यह प्रश्न
अधिकाँश पुरुष साधकों द्वारा पूछा जाता है।
उत्तरः- आप जिस भी स्त्री को देखें उसकी
शक्ल-सूरत, वेश-लिबास, गुण कर्म स्वभाव की ओर ध्यान न देकर दिव्य भावना (divine feeling) का विकास करने का प्रयास करें। जिस दिन आपके हृदय में नारी को देखकर
उच्च भावना का उदय होने लगेगा ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव हो जाएगा। दूसरी बात नारी
से सम्पर्क कम रखें, मिलने बात करने का समय अल्प रखें। आज कलियुग में
जहाँ साधना की उच्च शक्ति का अवतरण सरल है वहाँ ब्रह्मचर्य की भावना का विकास
थोड़ा कठिन है। इस दिशा में साधक नारियों को भी आगे आना होगा व नारी जाति अपनी
करतूतों से समाज में जो समस्याएँ पैदा कर रही है उसको रोकना होगा।
प्रश्नः- अशुभ कर्मों के प्रभाव से कोई व्यक्ति
कैसे बच सकता है? कर्म बन्धन व कर्म संस्कार से मुक्ति का मार्ग
क्या है?
उत्तरः- यह हम सभी जानते हैं कि शुभ कर्मों के
प्रभाव शुभ एवं अशुभ कर्मों के प्रभाव अशुभ होते हैं। यदि हम शुभ परिस्थितियों को
चाहते हैं तो हमें शुभ कर्मों के द्वारा शुभ संस्कारों के बीज बोने होंगे। यदि हम
ऐसा कर पाने में चुके तो अशुभ कर्मों से उपजे नीच संस्कार अपने अनुरूप अशुभ
परिस्थितियों को जन्म देंगे इसे रोक पाना बहुत कठिन होता है। परन्तु क्या कोई कर्म
सर्वथा शुभ होता है? यह सवाल महत्त्वपूर्ण है। योगीजनों के आराध्य व
परम आचार्य भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- जिस तरह प्रत्येक अग्नि में धूम होने का
दोष होता है, उसी तरह से प्रत्येक कर्म भी दोषयुक्त होता ही है। यदि उत्कृष्ट प्रयास किए जाएँ तो अग्नि में धुएँ की मात्रा कम और बहुत कम की जा सकती
है, परन्तु इसका संपूर्णतः समाप्त होना असम्भव है। इसी तरह शुभ कर्मों के पुण्य
अनुष्ठान में दोष कम और बहुत कम किए जा सकते हैं। इन्हें हटाए जाने की कोशिश की जा
सकती है, पर इन्हें
संपूर्णतः समाप्त कर सकना असम्भव है। कितने भी प्रयास क्यों न किए जाएँ कोई भी
कर्म सर्वथा दोषमुक्त नहीं हो सकता।
इसके लिए उपाय केवल एक ही है कि प्रत्येक कर्म
केवल और केवल भगवान के लिए करें। सम्पूर्ण आसक्ति और समर्पित भगवत् भक्ति
के अभ्यास लम्बे समय तक करें। परमेश्वर के अलावा अन्य किसी से भी भावनात्मक सम्बंध
न जोड़ें। कर्म संस्कारों को काटने का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।
एक बात ओर ध्यान रखें। आप किसी का भी ऋण अपने
ऊपर न चढ़ने दें। उदाहरण के लिए यदि इस पुस्तक से आपको कोई लाभ हुआ है तो इससे उऋण
होने के लिए पुस्तक का समाज में प्रचार कर दीजिए अथवा लेखक की कोई सम्भव सहायता कर
दीजिए। यदि लेखक ने पुस्तक से काई आर्थिक लाभ कमाया होता तो आप ऋणी न होते। रैकी
परम्परा में रैकी लेने वाला देने वाले को कुछ न कुछ धन अवश्य देता है परन्तु
भारतीय परम्परा में सन्त अपने लिए धन की माँग नहीं करते वो समाज के उत्थान के लिए
ही अपने प्रियजनों को प्रेरित करते हैं।
प्रश्नः कभी-कभी साधना में कच्चापन महसूस होता
है। क्या करें?
उत्तरः कई बार साधक इस दयनीय परिस्थिति में फँस
जाता है जिसमें उसको बहुत कमजोरी महसूस होती है माँसपेशियों में खिचाँव लगता है
कभी ऐसा लगता है जैसे दाँतों का कोई जबड़ा कमजोर हो गया तो कभी कोई आँख नेत्र
कमजोर होता प्रतीत होता है। कभी एक कान से हल्का रिसाव या साँय-साँय की आवाज
प्रतीत होती है, कभी हाथ या पैर सुन्न होने लगते हैं।
यह स्थिति कभी-कभी एक डेढ़ साल तक भी खिँच सकती
है। इससे उभरने के लिए यज्ञ की ऊर्जा एक बहुत प्रभावशाली साधन है। साधक प्रतिदिन
अथवा एक दिन छोड़ कर आधा या एक घण्टे का यज्ञ अवश्य करे जिसमें पूजन क्रम
संक्षिप्त हो व 12-12 अहुतियाँ गायत्री व मृत्युंजय मन्त्र की समर्पित करे। कभी-कभी
यज्ञ की ऊर्जा सहन करना कठिन लगता है परन्तु उसके उपरान्त शरीर में ताकत महसूस
होती है।
साधक को चाहिए कि वो प्रतिदिन स्नान करे। जल में
विश्वा नाम की एक विद्युत होती है जो शरीर की नकारात्मक ऊर्जा को हटाकर स्फूर्ति प्रदान करती
है। यदि ठण्डा पानी सहा नहीं जा रहा हो तो जोर-जबरदस्ती न कर हल्के गुणगुणे पानी
में स्नान करें।
साधक सकारात्मक विचारों के सम्पर्क में रहे व
भावना करें कि परमात्मा से उसे श्रद्धा-विश्वास व प्राणशक्ति मिल रही है तथा मन की
मलिनता दूर हो रही है।
ॐ का उच्चारण भी लाभप्रद होता है भीतर साँस भर के
नाभिचक्र से बोलना प्रारम्भ करें। फिर अनाहत चक्र में ‘ओ’ की ध्वनि महसूस
करें। अन्त में आज्ञा चक्र में ‘म’ की ध्वनि गूँजेगी।
प्रश्नः मन्दिरों में, आश्रमों में, संस्थाओं में, अनेक बार
झगड़े-झंझट रहते हैं। इसका निवारण क्या है?
उत्तरः व्यक्ति यदि अपने अहं पर केन्द्रित होकर
कार्य करता है यह सब झगड़ों-झंझटों की जड़ है। उदाहरण के लिए यदि हम गायत्री
परिवार के कार्यकर्ता हैं तो इस प्रकार के विचारों से बचें कि हम अच्छा गा सकते
हैं, अच्छा बोल सकते
हैं, अच्छा यज्ञ कर
सकते हैं, अच्छे से पद
सम्भाल सकते हैं। अपितु इस मानसिकता से कार्य करें कि देवसत्ताओं की विजय हो।
देवताओं की टोली में अधिक से अधिक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व जुड़ सके। इससे अहं का
केन्द्र टूट जाएगा। व्यक्ति का अपना भी विकास होगा और धरती पर देवत्व भी
फले-फूलेगा। जब तक लोग अहं को लेकर कार्य करेंगे तब तक देवत्व को लाने के लिए
व्यर्थ की उछल-कूद होती रहेगी परन्तु कहीं न कहीं आसुरी शक्तियाँ हमको अपना माध्यम
बनाकर झगड़े-झंझट, वाद-विवाद पैदा करती रहेंगी।
एक सन्त हुए हैं स्वामी रामसुखदास उन्होंने बहुत
लोगों को अध्यात्म पथ पर चलने की प्रेरणा दी। उनके प्रवचन व लेखन का संकलन गीता
प्रैस की एक पुस्तक साधक संजीवनी में प्रकाशित हुआ है जिसको हजारों लाखों लोग पंसद
करते हैं। उन्होंने कभी अपनी फोटो नहीं छपवाई। कभी कोई शिष्य नहीं बनाया। स्वयं के
अहं को विसर्जित कीे अध्यात्म की पवित्र गंगा बहाई। इस प्रकार के उच्च कोटि के आदर्श हम सभी
के लिए प्रेरणाप्रद हैं।
अहं के विसर्जन के सम्बन्ध में एक प्रसंग उपयुक्त है।
निर्जन वन में उग्रश्रवा कठोर तप में निमग्न थे।
उनके केश बड़ी जटाओं में परिवर्तित हो चुके थे। शरीर पर धूल की माटी परत जम गई
थी व निर्जल निराहार तपरत रहने के कारण उनका शरीर क्रश हो चुका था। एक बार गोरेया
पक्षी ने उनकी जटाओं में घोंसला बनाया व अंडे दिए। कुछ समय बाद बच्चे निकले व बड़े
होकर उड गए। उग्रश्रवा इससे बड़े हर्षित हुए कि वे इस अवधि में वह न हिले डुले न
विचलित हुए। इस भाव से वो धीरे-धीरे गर्व से भर उठे व अपनी तप साधना की महिमा को
बताने संसार की ओर चल पड़े कि उनकी तप की बराबरी कौन कर सकता है? समूचे जगत् में
ऐसी महान साधना करने वाला कोई भी नहीं है। तभी उन्हें आकाशवाणी हुई-
तुम अभी अध्यात्म के रहस्य से अनजान हो, उग्रश्रवा। जाओ
और शिव नगरी काशी जाकर गुरुभक्त अनिमेष से अध्यात्म के सच्चे स्वरूप की शिक्षा
प्राप्त करो।
यह सुन उग्रश्रवा बड़े उद्विग्न हुए व लम्बी
यात्रा करके वाराणसी अनिमेष के पास पहुँचे। गुरु आज्ञा के अनुसार वह बनारस में
अपना जीवन बिता रहे थे। उनके सामान्य रहन-सहन में उनकी गुरु भक्ति की सजहता झलकती
थी। द्वन्द्व से उग्रश्रवा को उनके जीवन की महानता का बोध न हो पाया। उनके प्रेम
से अपने पास बैठाकर अनिमेष उनसे बोले-
मुझे ज्ञात है देव कि अविश्रांत दुर्गम पथ पार
करके आप मेरे समीप आए हैं। पथ में भूखे-प्यासे आपको अनेक कष्ट उठाने पड़े हैं। यह
भी मुझे अपने गुरुदेव की कृपा से ज्ञात है कि स्वयं को अकेले मर्मज्ञ मानने के
कारण आप जिज्ञासा भाव से आकाशवाणी सुनकर मेरे
Bahut acchi baate likhi hai guru ji aapne
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