पहले जमाने में जो आध्यात्मिक
उन्नति करना चाहते थे वो ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या कहकर संसार से सम्बन्ध विच्छेद
कर लेते थे। लेकिन आज के समय में इस
परिपाटी में परिवर्तन हुआ है। यह परिपाटी युगानुकूल नहीं है। आज व्यक्ति के लौकिक व आध्यात्मिक दोनों पक्षों को मजबूत
बनाकर चलना पड़ता है अर्थात ‘ब्रह्म सत्यं जगत् सत्यं’ का उद्घोष लेकर चलना पड़ता है। यह तथ्य सर्वप्रथम श्री अरविंद जी ने उजागर
किया जिसको युगऋषि श्रीराम ‘आचार्य’ जी ने साकार कर दिखाया। आचार्य जी ने भली-भाँति परिवार व बाल बच्चों का पालन
पोषण करते हुए ऋद्धि-सिद्धियों से भरा पूरा जीवन जिया। देवात्मा हिमालय ने सर्वप्रथम
लाहिड़ी जी को इस कार्य के लिए चुना।
लाहिड़ी जी की चार सन्तानें थी। उन्होंने परिवार में रहकर क्रिया योग द्वारा परम
पद प्राप्त किया।
आज भी युग निर्माण के उद्देश्य से हमें तपस्वी साधक चाहिए परन्तु
साथ-साथ वो उच्च पदों पर आसीन भी हों जिनसें जनता प्रेरणा लेकर तप के , साधना के मार्ग पर चलें। उच्च पदों पर यदि भोगी-विलासी
भ्रष्ट व्यक्ति बैठे होंगे तो नीचे वाले लोग भी वैसा ही बनने,अनुसरण करने का प्रयास
करेंगे। एकांगी उन्नति से काम नहीं चलता। जब आचार्य जी हिमालय यात्रा पर कैलाश की परिक्रमा कर रहे थे तो उनके तप एवं
विद्वता से प्रभावित होकर कुछ तिब्बत के भिक्षुओं ने उनसे वहाँ की दुर्गति का कारण जानता चाहा। आचार्य जी का स्पष्ट
उत्तर था कि तिब्बत ने आध्यात्म के क्षेत्र में तो प्रगति करनी चाही परन्तु लौकिक क्षेत्र की उपेक्षा कर दी इस
कारण वहाँ कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गयी। रथ के दो पहियों की तरह हमें लौकिक व आध्यात्मिक दोनों पक्षों में सन्तुलन बनाकर
चलना पड़ता है अन्यथा जीवन में विपदाएँ आ जाती हैं अर्थात हम अपनी आधी प्रतिभा
लौकिक उत्थान के लिए लगाएँ व आधी
आध्यात्मिक उन्नति के लिए। लेखक की आगे
पढ़ने की कोई इच्छा नहीं थी परन्तु देवसत्ताओं के आदेश पर Ph.d की पढ़ाई करनी पड़ी। लौकिक व
आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति व्यक्ति कर सके , दोनों ही क्षेत्रों में
ऊचाईयाँ छू सके । इसके लिए व्यक्ति को
24 गुणों की आवश्यकता होती है। जो निम्नलिखित हैः-
यह कहा जाता है कि अनाहत चक्र से
ब्रह्मरन्ध्र की दूरी 24 अंगुल होती है। इसकी पार करने के लिए व्यक्ति को निम्न 24 गुणों के धारण करने की आवश्यकता पड़ती है।
1. प्रथा 2. सृजन 3. व्यवस्था
4. नियंत्रण 5. सद्ज्ञान 6.उदारता
7. आत्मीयता 8. आस्तिकता 9. श्रद्धा 10. शुचिता 11. संतोष 12. सहृदयता
13. सत्य 14. पराक्रम 15. सरसता 16. स्वालम्बन 17. साहस 18. ऐक्य
19. संयम 20. सहकारिता 21. श्रमशीलता 22. सादगी 23. शील 24. समन्वय
सबसे पहला गुण प्रज्ञा अर्थात
व्यक्ति पराज्ञान की ओर बढ़ने के लिए
जिज्ञासा रखता है इस विषय में शास्त्र कहते हैं अथातो जो ब्रह्म जिज्ञासा अर्थात
जब व्यक्ति को संसार की नश्वरता, दुःखों एवं बंधनों को देखकर ब्रह्म को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है इस
ज्ञान को पराज्ञान कहा जाता है और इस प्रकार की बुद्धि को प्रज्ञा बुद्धि महात्मा बुद्ध अन्दर जब प्रज्ञा जागृत हुई तब वो
अपने व सम्पूर्ण संसार को दुःखों से मुक्त कराने का मार्ग खोजने लगे राजमहल में रह
कर यह सम्भव नही था अतः निरंजना नदी के किनारे एकान्तवास किया।
दूसरा कदम सृजन अर्थात व्यक्ति को
सृजनात्मक (creative) गतिविधियों में अपनी रूचि बढ़ानी होगी सकारात्मक बनना होगा। यह
प्रयास करना होगा कि अपनी ओर से किसी का भी नुक्सान न हो जाए।
तीसरा कदम व्यवस्था अर्थात
सुव्यवस्थित जीवन जीने का अभ्यास ; यदि व्यक्ति ढ़ीली-पीली दिनचर्या जीएगा, फिजूल की बातों में अपना
समय खर्च करेगा, अधिक टीवी, व पदजमतदमज देखने में समय लगाएगा तो उच्च प्रयोजन के लिए कहाँ से समय निकालेगा इसलिए जीवन को
व्यवस्थित करना बहुत आवश्यक है।
चौथा कदम है नियन्त्रण, व्यक्ति को हर दिशा में
नियन्त्रण की आवश्यकता पड़ती है, अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित करें, मन को नियन्त्रित करने का प्रयास करें, धन का दुरुपयोग न होने दें, परिवारिक दायित्वों पर
नियन्त्रण करे, एक या दो से अधिक सन्तान उत्पन्न न करें, इसके अलावा अपनी
हर प्रकार की महत्वकांक्षा पर नियन्त्रण करें।
पाँचवाँ कदम सद्ज्ञान अर्थात
श्रेष्ठ विचार जहाँ से भी मिलें उनको ग्रहण करने का प्रयास करें यदि मन को
स्वाध्याय के द्वारा सद्ज्ञान से नहीं
जोड़ा गया तो उसका पतन निश्चित है।
छठाँ कदम उदारता अर्थात हम उदार
बनेऋ दूसरों को देना सीखें, अपनी नेक कमाई का एक अंश, लोक कल्याण के लिए उदारतापूर्वक समर्पित करते रहें।
सातवाँ कदम आत्मीयता अर्थात सबको
अपने जैसा समझे जो व्यवहार अपने लिए पसन्द नहीं करते तो दूसरों के लिए क्यों करते हैं यदि हम यह नहीं चाहते कि
कोई हमें नीचे गिराए, हमारा मजाक बनाए तो दूसरों की उन्नति को देख कर क्यों जलते हैं? दूसरों की सुख-समृद्धि से
अथवा उनको आगे बढ़ता देख यदि हमको प्रसन्नता होती है, हम कह सकते हैं कि हममें
दूसरों के प्रति आत्मीयता है।
आठवाँ कदम है आस्तिकता अर्थात हम
ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मान कर हम अपने जीवन में आगे बढे़ंगे, अक्सर व्यक्ति, सकीर्ण मानसिकता में उलझा रहता है, छोटी-मोटी कहासुनी में
दुर्भावनाओं को बढ़ाकर, बदला लेने का प्रयास करता है, या कोई विपत्ति या अनिष्ट होने पर अपने साथियों को या भगवान् को कोसने लगता है, भगवान् सब जगह है इसलिए हम
कभी कोई गलत कार्य नही करेंगे, वह न्यायकारी है इसलिए हमारे साथ न्याय अवश्य करेगा, हमें हमारे गलत कार्यों का
दण्ड मिल रहा है यह जान कर हमें दुःखों को सहना होगा व प्रभु से सदा संरक्षण एवं
मार्गदर्शन की चाह रखनी होगी, इसी भावना को आस्तिकता कहते हैं।
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