हमने प्रण है लिया युग निर्माण का, चल पड़ा कारवा साधना अभियान का।
वक्त है आसुरी प्रवृत्तियों के संहार का, एक दिव्य नवयुग के निर्माण का ।।
मेरे कुछ मित्र व परिजन मुझसे नाराज
होते हैं । व कहते हैं कि गुरु जी की किताबों का प्रचार न कर, आप अपना समय इन नयी पुस्तकों के लेखन व छपवाने
आदि में क्यों नष्ट कर रहे हो? सामान्य दृष्टि से उनका यह प्रश्न उचित है। श्रीराम ‘आचार्य’ जी जैसे महातपस्वी अवतारी स्तर की शक्ति ने इतना विशाल लेखन कार्य किया तो फिर
मेरे जैसा सामान्य प्राणी क्यों लेखन करे? इस प्रश्न के उत्तर एवं वाद-विवाद में
मैं अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता मात्र कुछ संकेत पुस्तक में दे रहा हूँ । जिनके
चक्षु उन संकेतों को समझने में समर्थ होंगे वो इसका रहस्य पाएँगें एवं पुस्तक की
उपयोगिता को समझ कर साधना अभियान से जुड़ेंगे।
आज यदि मैं अपने आसपास के 100 घरों
का निरीक्षण करुँ तो 100 में से 80 घरों में किसी न किसी अच्छे धर्मगुरु अथवा
संस्था का साहित्य उपलब्ध है। हमने भी लाखों रूपये का साहित्य लोगों के घरों में
विभिन्न अभियानों के तहत पहुँचाया है परन्तु देवपथ पर चलने वाले लोग कितने हैं लोक
कल्याण के लिए समयदान, अंशदान करने वाले लोग कितने हैं, यह सबको पता है। इतने प्रयासों के बावजूद भी क्यों व्यक्ति नहीं जुड़ पाया
देवपथ पर नहीं चल पाया? सामान्य आकलन के अनुसार हमें इस दिशा में और प्रयास करना चाहिए परन्तु
यु(-नीति, कूट-नीति कहती है कि मात्र एक प्रकार का अस्त्र
प्रयोग करने पर यु( नहीं जीता जा सकता। क्या केवल बन्दूक के द्वारा हम कोई लड़ाई
जीत सकते हैं? नहीं, हमें वायुसेना व तोपों की भी आवश्यकता है। इसी
प्रकार हमने प्रचार क्रान्ति, साहित्य क्रान्ति बहुत की व कर भी रहे हैं परन्तु अब साधना क्रान्ति की
आवश्यकता प्रतीत हो रही है। आयुर्वेद में जब वनौषधियों से रोग निवारण नहीं होता तो
भस्म व रसों का प्रयोग करना पड़ता है।
व्यक्ति अच्छी किताब पढ़ता है
अच्छे विचार सुनता है उससे अच्छे भाव ग्रहण करता है परन्तु कुछ समय उपरान्त ही
व्यक्ति विषाक्त वातावरण के सम्पर्क में आता है और अपने पुराने ढ़र्रे पर चलना
प्रारम्भ कर देता है। इस विषाक्त वातावरण से मोर्चा लेने के लिए हमें उच्च स्तरीय
साधकों का पूरे भारत में एक नेटवर्क तैयार करना पड़ेगा। हम यह कहते चले आ रहे हैं
कि देवात्मा हिमालय से एक उच्च स्तर का दैवीय प्रवाह चल रहा है। फिर क्यों नहीं
व्यक्ति उस दैवीय प्रवाह को ग्रहण कर पा रहा है? इस बात को या तो कोई साधक या कोई विज्ञान का विद्यार्थी ही ठीक से समझ सकता
है। विद्युत वितरण के लिए हमें विभिन्न प्रकार के बिजलीघरों (Power House ) की जरूरत क्यों पड़ती है? क्योंकि हमारे घरेलू उपकरण उतने हाई वोल्टेज पर
काम नहीं करते जितने हाई वोल्टेज पर विद्युत का उत्पादन होता है। ट्रांसफार्मर के
द्वारा वोल्टेज को कम करके घरों के लिए वितरित किया जाता है। हिमालय से जो प्रवाह
चल रहा है वह आम जनता के लिए उपयोगी नहीं है, जब तक कि कुछ साधक रूपी ट्रांसफार्मर उसमें हस्तेक्षप करके, साधक के लिए उसको उपयोगी व सुलभ न बना दे।
इसके लिए हमें एक Divine Connectivity Model तैयार करना पडे़गा जिसमें 24000 विश्वामित्र स्तर की आत्माएँ
सीधा हिमालय के उस प्रवाह को ग्रहण करेंगी ये आत्माएँ आत्मदानी स्तर की होंगी
देवात्मा हिमालय के सर्वाधिक निकट होंगी इसलिए इनको विश्वमित्र की उपाधि दी जाएगी
इनके साथ एक लाख समर्पित स्तर की आत्माएँ जुड़ी होंगी जो इनके प्राण प्रवाह का उपयोग कर नए साधकों
के रूप में उभरेंगी। ये एक लाख समर्पित आत्माएँ 24 लाख सहयोगी कार्यकत्र्ताओं के साथ तालमेल बिठा कर युग-निर्माण
की विभिन्न गतिविधियों को पूर्णता तक ले जाएँगी। जिस प्रकार Internet Connection में Packets Figure को उचित स्थान पर भेजने के लिए switches और Router की
अनिवार्य आवश्यकता है उसी प्रकार देवात्मा हिमालय के इस प्राण प्रवाह को आम जनता
तक ग्रहणीय बनाने के लिए साधकों की एवं Divine Connectivity Model की परम
आवश्यकता है। इस माॅडल को निम्न चित्र के माध्यम से समझा जा सकता है-
Figure : Divine Connectivity Model
वैज्ञानिक लोग जानते हैं कोई भी
बड़ा प्रयोग करने से पहले उसका एक माडल बनाकर छोटे रूप में उसको जाँचना होता है।
युग निर्माण का महासंग्राम जीतने के लिए यह माडल बहुत ही सफल सिद्ध हो सकता है। समर्थ
परिजनों से अनुरोध है कि इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें एवं इसके लिए एक
उच्चस्तरीय कमेटी का गठन करें। यह प्रसन्नता की बात है कि साधना की आवश्यकता को
महसूस करते हुए केन्द्र शांतिकुँज ने सन् 2014 का वर्ष सामूहिक साधना वर्ष घोषित
किया गया है। इससे हमारे पास बहुत से साधक उभर कर आएँगे, इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि एक श्रेष्ठ
व्यूह रचना के अन्तर्गत इनकी शक्ति का उचित नियोजन हो सके एवं इनकी प्रतिभा को
निखारने का अधिक प्रयास किया जा सके। इन्ही विचारों में डूब कर मैंने यह पुस्तक
लिखना प्रारम्भ किया व देवशक्तियों की अनुकम्पा से इसको पूर्ण कर पाया। इस विषय
में अन्य धर्मानुयाईयों का मत भी यही है कि साधना-क्रान्ति युग की अनिवार्य
आवश्यकता है। उदाहरण के लिए ईसाई धर्म की अनुयायी Miss Adil Bear नामक आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न
महिला का कथन है कि आने वाला समय बहुत कठिन है जो नवयुग आने वाला है उसमें वही
व्यक्ति अपना आस्तित्व सुरक्षित रख पाएँगे जो साधना के द्वारा आत्मज्ञान के पथ पर
आगे बढ़ेंगे एवं आत्मशक्ति का संचय करेंगे आकाश से आने वाली दिव्य किरणें (Cosmic Rays) उनको इस दिशा में आगे बढ़ाने के
लिए विशेष औषधि का काम करेंगी।
अन्त में यही निष्कर्ष निकलता है
कि यदि हम साधना क्रान्ति में सफल हो गए तो सब कुछ अच्छा होता चला जाएगा। कबीर दास
जी का दोहा यहाँ बहुत उपयुक्त है-
इके साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
जैसे सींचे मूल को, फूले फले अघाय ।।
एक साधना रुपी मूल को सींचने से
पूरा अभियान फलता-फूलता नजर आएगा अन्यथा निराशा की स्थिति में इधर-उधर हाथ पैर
पटकते रहेंगे, बन्दरों की तरह व्यर्थ उछल-कूद करते रहेंगे और लीपापोती करके अपनी जान छुड़ाते फिरेंगे।
नरेन्द्र सन्यास लेकर विवेकानन्द
बन चुके थे। उन्हें परमहंस जी ने उपासना-साधना कराई, पर समाधि तक ले जाकर रोक लिया, कहा- ”तुम्हें लोकसेवा का कार्य
करना है।“
विवेकानन्द ने पूछा,”लोकसेवा करानी थी, तो इतना समय व्यक्तिगत साधना में क्यों लगवा दिया।“ उत्तर मिला, ”आत्मसाधना के बिना लोक-साधना नहीं हो सकती। जो बना नहीं वह बनाएगा क्या और जो
नया नहीं बनाया, तो स्वयं बनने का क्या
लाभ!“
विवेकानन्द ने इस मन्त्र को सदा
याद रखा। सेवा और साधना के समन्वित पुरूषार्थ के आधार पर रामकृष्ण मिशन की नींव
रखी गई। इस मिशन ने एक समय में बंगाल प्रांत को जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई।
यह सन्देश हम सभी लोकसेवियों के
लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। बिना अपना निर्माण किए हम मात्र प्रचार कर सकते हैं, युग परिवर्तन में कोई महत्वपूर्ण भागीदारी नहीं
कर सकते। यदि हम कोई उच्चस्तरीय भूमिका निभाना चाहते हैं तो पहले साधना के द्वारा
अपने निर्माण के विषय में गम्भीरता पूर्वक विचार करना होगा। एक लाख तपस्वियों के
निर्माण के युग परिवर्तन जैसा कठिन उद्देश्य कैसे पूरा हो सकता है? आज इस बात को सभी अनुभव कर रहे हैं।
साधना अभियान के लिए आश्रमों की आवश्यकता
आध्यात्मिक साधनाओं के दो पक्ष
हैं- प्रथम पक्ष जिसमें व्यक्ति स्वयं को सुधारने का प्रयास करता है अपने
कुःसंस्कारों, प्रारब्धों को काटने के
लिए संघर्ष करता है। इसको गायत्री कहा जाता है। दूसरा पक्ष है शक्ति जागरण का। जब
व्यक्ति की पात्रता थोड़ी विकसित हो जाती है, ऐसी अवस्था में वह भाँति-भाँति की शक्तियों को जाग्रत करने व उनको सम्भालने की
कला सीखता है। इस पक्ष को सावित्री कहा जाता है। युग-ऋषि श्रीराम ‘आचार्य’ जी ने साधना के पहले पक्ष को दुनिया के सामने रखा व गायत्री परिवार की स्थापना
की। अभी तक दूसरा पक्ष गोपनीय रहा है। समय आ रहा है, यह दूसरा पक्ष भी सुपात्रों के सामने प्रकट होना चाहता है। जिससे व्यक्ति, दिव्य शक्तियों के अर्जन द्वारा स्वयं को
महामानवों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर सके एवं युग परिवर्तन के कार्य में तेजी आए।
ऐसे ही व्यक्ति मानव जीवन को धन्य बना सकेंगे व नव जागरण की मशाल के वाहक बनकर
अपना नाम इतिहास में रोशन करेंगे।
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