रामकृष्ण परमहंस जी के शिष्यों में स्वामी
अभेदानन्द अद्भूत प्रतिभा के धनी थे। स्वामी जी लंदन में एक वर्ष और अमेरिका में 25 वर्ष रहे एवं
अपनी वाणी और साधना के द्वारा लोगों का मन मोह लिया। अपने विदेश प्रवास के दौरान
उनको नाना प्रकार के कष्ट झेलने पडे़ लेकिन उन्होंने कभी भी अपनी मानसिक स्थिरता
नहीं खोई। उन्हें अटूट विश्वास था कि रामकृष्ण उनकी रक्षा कर रहें हैं एवं दिव्य
प्रेरणा दे रहे हैं। एक बार उनको लन्दन होते हुए अमेरिका जाना था। जहाज का टिकट
खरीदने का प्रबन्ध कर लिया था। टिकट खरीदने जाते समय उन्हें एक आवाज सुनाई पड़ी
जिसने उन्हें टिकट खरीदने से रोका वो घबरा कर इधर-उधर देखने लगे परन्तु कोई नजर
नहीं आया। जब वे दोबारा टिकट खरीदने के लिए चलने लगे वही आवाज पुनः उनके कानों में
पड़ी। उस जादुई आवाज से उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया। दूसरे दिन
समाचारपत्रों में एक खबर मोटे शीर्षक में छपी थी। ‘एस.एस. लुसिटनिया ईज नो मोर’। लुसिटनिया उस
जहाज का नाम था जिससे अभेदानन्द अमेरिका जाने वाले थे। यह जहाज अटलाॅटिक महासागर
में डूब गया था।
विदेशों में लोग इनकी रोग निवारक शक्ति से
आश्चर्यचकित थे। योगबल से लाइलाज रोगों का बड़ी सरलता से निदान कर देते थे। बदले
में कोई उनको धन्यवाद, स्वर्ण अथवा धन देते तो ये यह कह कर स्पष्ट
इंकार कर देते थे कि मैंने कुछ नहीं किया जो किया मेरे कृपालु गुरुदेव ने किया।
साधना से सिद्धि के लिए प्रायश्चित अनिवार्य
एक साधक अपना सामान्य जीवन जी रहे थे उनके पास
अपना निजी मकान नहीं था। बड़ी कठिनाई से कुछ धन जोड़कर कुछ लोन लेकर उन्होंने एक
मकान का सौदा किया। जो मकान बेच रहा था वह थोड़ा प्रभावशाली व अहंकारी व्यक्ति था।
बयाने की रकम दे दी गयी। अपनी आदत के अनुसार मकान बेचने वाले ने व्यर्थ की रौबदारी
व धमकी देना प्रारम्भ किया कि वह न मकान देगा न बयाना वापिस करेगा।
सम्भवतः वह मजाक ही कर रहा होगा परन्तु साधक
अपना सन्तुलन खो बैठा। उसने भी गर्मागर्मी में कहा कि वह गायत्री साधक है उसका धन
हजम करना आसान नहीं है। यदि उसे तंग किया तो इसके दुष्परिणाम भुगतने होंगे। साधक
के अन्तर्मन में मकान मालिक के प्रति दुर्भावना ने जन्म ले लिया। उसी दिन साँयकाल
मकान मालिक का जोरदार एक्सीडेन्ट हुआ। उसको साधक की दी चेतावनी का स्मरण हो गया और
उसने साधक को बुलाकर कहा कि वह तो मजाक कर रहा था। जिस दिन चाहे रजिस्ट्री करा
लें। मकान की सही सलामत रजिस्ट्री हो गयी।
साधक कच्चा था उसे इस बात का घमण्ड हो गया कि
उसकी बद्दुआओं से मकान मालिक का इतना नुक्सान हो गया। साधक यह बात बड़े गर्व से
अपने मित्र बन्धुओं को बताया करता था। अब तो स्थिति यह हुई कि जब कोई साधक को
थोड़ा सा भी तंग करता साधक के अन्तःकरण में उसके प्रति दुर्भावना जन्म ले लेती।
दूसरों का नुक्सान हो जाता व साधक घमण्डी होता गया। धीरे-धीरे साधक की साधना की
ऊर्जा दुर्भावों में परिवर्तित होने लगी।
वह साधक जिसकी प्रार्थना पर बड़े-बड़े रोगी ठीक
हो जाया करते थे अब स्वयं ही बीमार रहने लगा। बीमारी बढ़ती गयी। एक दिन साधक ने
अपने भीतर झाँक कर जब कठोर आत्मविश्लेषण किया तो पूरी वस्तुस्थिति उसके सामने
स्पष्ट हुई लेकिन अब तक काफी देर हो चुकी थी व काफी नुक्सान हो गया था।
अब साधक ने प्रण लिया कि आने वाले तीन वर्षों तक
वह किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखेगा जो उसे तंग करेगा भगवान् से उसकी सदबुद्धि की भी प्रार्थना करेगा व उसके प्रति सद्भाव बनाने का प्रयत्न करेगा।
साधक को सावधान रहना होता है जैसे यदि बच्चा बाप
के कान मरोड़ दे तो क्या बाप बच्चे को पीट डालेगा। नहीं मात्र हँस कर छोड़ देगा
क्योंकि वह जानता है कि बच्चे को पता नहीं वह क्या कर रहा है।
साधकों का दृष्टिकोण भी दुनियावी लोगों के साथ
ऐसा ही होता है। वे उन्हें बालक समझकर नजरंदाज करते रहते हैं। ईसा मसीह को जब
क्रूस पर लटकाया गया तो उनके मुख से दो वाक्य निकले।
”हे प्रभु तेरी
इच्छा पूर्ण हो।“
”हे प्रभु इन्हें
माफ करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।“
ईसा मसीह को पता था कि पूर्व जन्म में कोई ऐसा
प्रारब्ध बचा है जिसको भोगना अभी शेष है और क्रूस के माध्यम से परमात्मा उसका
भुगतान करना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने पहला वाक्य बोला। यदि उनकी दुर्भावना लोगों
के प्रति बढ़ जाती तो नए कर्मों का बोझ लदना प्रारम्भ हो जाता। इसलिए कोई नया
कर्मफल न जुड़े उन्होंने दूसरा वाक्य बोला।
बोध (जागृति) होने से पहले जो दुष्कर्म किए उनका
भुगतान अनिवार्य है। अंगुलिमाल अब बौद्ध भिक्षु बन चुके थे। सड़क पर भिक्षा के लिए
निकलते तो लोग उन पर क्रोधित होकर पत्थर मारते। बहुत मार खाते-खाते वो बुरी तरह
घायल हो जाते लेकिन कहते किसी को कुछ नहीं। अपने कर्मों का प्रायश्चित मानकर सब
कुछ सह जाते।
ऋषि वाल्मीकि
डाकू से साधक बने तो उन्हें पश्चाताप् हुआ कि इतने लोगों को लूटा, मारा, अनाथ किया।
उन्होंने अपने कर्मों का प्रायश्चित करने के लिए निराश्रितों के लिए एक आश्रम
खोला। देवी सीता ने अपने वनवास काल में उन्हीं के आश्रम में जाकर शरण ली व लव-कुश
को जन्म देकर पालन किया।
उच्चस्तरीय साधना में भावनाओं के अंधड़ चलते
हैं। जरा सा भी व्यक्ति चुका और ट्रेन पटरी से उतरी। वैराग्य, सदभाव, करूणा, क्षमा, साहस, अनुशासन, संयम इसलिए साधक
सदैव आत्मविश्लेषण करता रहें कि वह त्याग, तप व तितिक्षा के पथ पर लम्बे समय तक चलने के
लिए अपनी मानसिकता परिपक्व कर चुका है अथवा नहीं। कुछ ऊँचा पाने के लिए प्रयास की
कीमत भी ऊँची देनी होती है।
परमात्मा हम सबको इस लायक बनाए कि हम साधना पथ
पर दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ते रहे व माँ भारती की सेवा करते रहें।
नकारात्मक विचारों का स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव
हमारे भीतर उत्पन्न हर विकार की जड़ में होता है, कोई न कोई नकारात्मक
विचार। यदि बुरे विचारों पर रोक न लगाई जाए, तो वही विकारों में बदल जाते हैं। कभी क्रोध, तो कभी ईष्र्या, कभी लोभ, तो कभी मोह! और
इन नकारात्मक विचारों-विकारों- भावनाओं का प्रभाव हमारे देह पर भी नकारात्मक रूप
में प्रकट होता है अर्थात् देह भी रोगग्रस्त हो जाती है। एस.पी. ग्रासमैन ने अपनी
पुस्तक ‘ए टेक्स्ट बुक
आॅफ फिज़ियोलॅाजिकल साइकोलाॅजी में एक ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने
विन्सेण्ट थाम्प्सन का वर्णन किया जो उदर शूल से पीडि़त थे। पर आश्चर्यजनक बात यह
थी कि थाम्प्सन को दिन में ठीक 2 बजे यह दर्द उठता था। थाम्प्सन ने अनेक
डाॅक्टरों को दिखाया। परन्तु उपचार नहीं हो सका। अन्ततः मनोवैज्ञानिक ग्रासमैन ने
उनका केस अपने हाथों में लिया। काफी खोजबीन के बाद मनोवैज्ञानिक के हाथ सूत्र लग
गया। दरअसल, प्रतिदिन रैमिंजे कम्पनी के मालिक थेक्सी ठीक दो बजे थाम्प्सन के घर के बाहर
से जाते थे। किसी समय में थाम्प्सन और थेक्सी अच्छे दोस्त हुआ करते थे। पर फिर
किसी कारणवश दोनों में मतभेद हो गया और वे एक दूसरे के शत्रु बन गए। अब जब
थाम्प्सन अपने भूतपूर्व मित्र थेक्सी को अपने घर के बाहर से जाता देखते, तो उनका मन
नकारात्मक विचारों-भावों से भर उठता। चिकित्सकों ने जाँच करने के बाद पाया कि ठीक
उसी समय थाम्प्सन के नाड़ीमंडल से एक प्रकार स्त्राव होता और यह आमाशय व आंतों में
विष की तरह फैल जाता, परिणामतः वे पीड़ा से कराहने लगते। अतः थाम्प्सन
के रोग का कारण उनके पेट में नहीं, उनके मन में था। उनके नकारात्मक विचार उनकी
पीड़ा का कारण थे।
तब डाॅ॰ ग्रासमैन ने थाम्प्सन के उपचार के लिए
अनेक मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां अपनाई। जैसे कि जुडिशस सप्रेषन अर्थात् मन में जो भी
गलत विचार उठ रहा है, उसे जबरदस्ती दबाने का प्रयास करें। दूसरी प्रवृत्ति थी- जुडिशस सेग्रिगेशन अर्थात् बुद्धि का प्रयोग कर निषेधात्मक और सकारात्मक विचारों
को अलग-अलग करें। फिर सकारात्मक विचारों पर खुद को एकाग्र करने की कोशिश करें।
तीसरी प्रवृत्तिय जो अपनाई गई, वह थी जुडिशस फाॅरगेट फुलनेस अर्थात् दूसरों को
क्षमा करने की कोशिश करें। चौथी प्रवृत्ति थी- इमेजिनेशन अर्थात् सकारात्मक विचारों की कल्पना करें।
कभी-कभी ये विधियाँ अपने परिणाम नहीं दे पाती
क्योंकि आज का मनोविज्ञान केवल विचारों से विचारों को बदलना चाहता है। उसके पास
कोई ठोस प्रक्रिया नहीं है, जिससे गुजरकर व्यक्ति की सोच में परिवर्तन लाया
जा सके। जैसे कि वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि लोहे को सोना बनाना हो, तो लोहे को सोने
की परमाणु संख्या प्रदान करनी होगी। पर लोहे को सोने की परमाणु संख्या कैसे दी जाए, इसकी उनके पास
कोई प्रक्रिया नहीं। उनके पास केवल सिद्धांत है, प्रयोगात्मक विधि (प्रैक्टिकल
प्रोसेस) नहीं। और केवल सिद्धांत से बदलाव नहीं आया करते। ठीक ऐसे ही मनोवैज्ञानिकों के पास भी सिद्धांत हैं कि आप नकारात्मक मत सोचो, सकारात्मक
विचारों को स्थान दो।
कोशिश करो.... और कोशिश करते-करते इंसान की दशा ऐसी हो जाती है, जैसे सिसिफस की
हो गई थी। कामू एक यूनानी कथाकार हुआ है। उसने एक ग्रंथ लिखा- ‘द मिथ आॅफ
सिसिफस’। सिसिफस को
देवताओं ने सजा दी कि वह एक बड़े भारी पत्थर को पहाड़ की चोटी तक चढ़ाकर ले जाए।
लेकिन वह जैसे ही पत्थर को लेकर चोटी तक पहुँचता था, वह पत्थर लुढ़क कर वापिस नीचे आ जाता था। सिसिफस
फिर उसे लेकर ऊपर चढ़ता था, फिर वह नीचे आ गिरता था। इस तरह यह श्रृँखला
चलती रही। कामू लिखता है कि हम सब भी सिसिफस हैं। हमें भी सजा मिली है। हम बार-बार
निम्न विचारों से ऊपर उठने की कोशिश करते हैं, पर जैसे ही लगता है कि हमारा मन साफ हो गया, अच्छे विचारों
की चोटी पर पहुँच गया, वैसे ही हम दोबारा नीचे आ गिरते हैं। कोई न कोई
नकारात्मक विचार हमें गिरा देता है।
तो क्या इसका निष्कर्ष यह निकाला जाए कि नकारात्मक विचारों को सकारात्मक
में बदला ही नहीं जा सकता? नहीं! ऐसा नहीं है। मनोवैज्ञानिक विधियों की
अपनी सीमाएँ हैं, पर अध्यात्म की नहीं। अध्यात्म तो वहाँ से आरम्भ
होता है, जहाँ विज्ञान की
सीमाएँ समाप्त हो जाती है। इसलिए विचारों का उत्थान करना मनोविज्ञान का नहीं, अध्यात्म का
कार्यक्षेत्र है। मनोविशारद इरा प्रोगाॅफ ने भी इस मत का समर्थन करते हुए कहा- ‘कोई भी
मनौवैज्ञानिक प्रणाली मानव जाति की सेवा तभी पूरी तरह कर सकती है, जब उसके आधार
में अध्यात्म हो। क्योंकि अध्यात्म द्वारा ही अंतःकरण तक पहुँचा जा सकता है और
नकारात्मकता को पराजित किया जा सकता है।’ महात्मा बुद्ध का कथन है- जैसे हम अपना मुख दर्पण
में देख उस पर लगे धब्बे आदि हटाते हैं, वैसे ही अंतःकरण को देखने के लिए दर्पण चाहिए।
अध्यात्म ज्ञान हमें यह दर्पण देता है, जिससे हम अपना अंतस् साफ-साफ देख पाते हैं। हमें
पता चलता है हमारे भीतर चल रहे प्रत्येक विचार-भावना-विकार का। हम अपनी मनःस्थिति
का द्रष्टा बन कर अवलोकन कर पाते हैं और फिर ध्यान-साधना द्वारा शुरू होती है, प्रक्रिया सुधार
की, परिवर्तन की, परिमार्जन की!
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