निर्गुण निराकार शाश्वत ब्रह्मम्।
सगुण साकार सद्गुरु स्वरूपम्û
कलिमल नाशम् हृदय प्रकाशम्।
जल, थल, नभ, पाताल विराजयम्û
दैहिक, देविक, भौतिक ताप हरणम्।
भव शंकर देशिक मम शरणम्û
भारत की भूमि पर सैकड़ों ऐसे
योगियों का वृत्तान्त सुनने पढ़ने को मिलता है जिन्होंने अपनी साधना के बल पर
अदभुत )(ि सि(ियाँ पायी। अपने सम्पर्क में आने वालों को सन्मार्ग में चलाया उनके
कष्टों को दूर किया। इनका जीवन चरित पढ़ना इस बात की प्रेरणा देता है कि भौतिकवादी
जीवनशैली मानव को कष्ट, दुःख के भंवर में फंसा देती है, जबकि साधनापरक जीवन व्यक्ति को भवबन्धनों से मुक्ति प्रदान कराता है। पाठकों
से निवेदन है कि किसी भी समाजिक व्यक्ति की नकल न करें, कोई भी पद प्रतिष्ठा की महत्वकांक्षा न पालें।
अपितु भारत के महान योगियों को अपने जीवन का आदर्श मानकर त्याग तपोमय जीवन की ओर
अपने कदम बढ़ाते जाएँ। एक मात्र यही जीवन का सच्चा सदुपयोग हो सकता है। सावधान!
जीवन के युवाकाल से जो साधना का प्रयत्न करता है, इस ओर अभीप्सा करता है उसको ही कुछ हासिल हो सकता है। जहाँ व्यक्ति की उम्र
चालीस पार करती है संस्कार पकने लगते है, शरीर लचर पचर करने लगता है व हाथ कुछ नहीं आ पाता। अब शरीरों में भी जान कहाँ
रही है? क्या कोई भी व्यक्ति अपने अनुभव से यह कह सकता
है कि भोग विलास के जीवन से सुख उपलब्ध हुआ? नहीं! फिर क्यों हम दुनिया की सच्चाई से मुंह मोड़कर भोगों के कुचक्र में फंस
जाते हैं, यह एक यक्ष प्रश्न है।
महापुरुषों की जीवनियाँ सभी के लिए
बहुत ही प्रेरणाप्रद होती हैं। अतः सदा उच्च चरित्रों का अध्ययन करने का प्रयास
प्रत्येक साधक के करना अनिवार्य है। सि( पुरुषों के विषय में बहुत से रहस्य अभी
अज्ञात है। जैसे सांई बाबा के गुरु कौन थे? गुरु नानक जी ने किनसे दीक्षा ली? सन्त कबीर ने वैसे तो गंगा घाट पर एक सन्त को अपना गुरु बनाया था परन्तु
वास्तव में हिमालय की एक दिव्य आत्मा उनकी गुरु थी। कुछ दिव्य दृष्टाओं अथवा
दृष्टातों के आधार पर साईं बाबा के गुरु लाहिड़ी महाशय थे, गुरु नानक जी के गुरु सन्त कबीर को कहा गया है।
इस प्रकार के रहस्य यदि ठीक से प्रमाण सहित उजागर हों तो विभिन्न मिशनों में एकता
बनने में मदद मिलेगी। कुछ कथनों के अनुसार महावतार बाबा एवं श्री सर्वेश्वरानन्द
जी एक ही है। इनकी असलियत अभी तक हम नहीं जानते, अनुमान ही लगाते रहे हैं। सभी सि( पुरुष एक दूसरे से जुड़े रहे हैं, जैसे त्रैलंग स्वामी लाहिड़ी जी का बहुत आदर
करते थे। समाज के लोग भी सभी एक दूसरे का आदर करें, सहयोग करें तो भारत भूमि स्वर्ग बन जाएगी। इस क्रम में आगे कुछ महामानवों का
संक्षिप्त इतिहास देने का प्रयास किया गया है। पृष्ठों की सीमा के कारण ;सपउपजंजपवदेद्ध अनेक उच्च व्यक्तित्वों को उजागर
करना सम्भव नहीं हो पाया है, इसके लिए ब्लागस पढ़े जा सकते हैं।
देवात्मा हिमालय सदा से ही
महायोगियों, )षियों, सि( पुरुषों की निवास स्थली रही है। भारत की
भूमि पर जितने बड़े महापुरुष हुए हैं उनकी आध्यात्मिक उन्नति में इन्हें दिव्य
पुरुषों का हाथ रहा है। उदाहरण के लिए सन्त कबीर के गुरु वास्तव में एक हिमालयवासी
देवात्मा थी। लौकिक रुप में उन्होंने काशी में घाट पर अपना गुरु बनाया था। पर
वास्तव में उनके गुरु कोई और थे जिसके कोई नहीं जानता।
महान विभुति श्री प्रभुपाद विजय ड्डष्ण गोस्वामी
इसी प्रकार भारत के प्रथम
राष्ट्रपति डा॰ राजेन्द्र प्रसाद जी के दादा गुरु बंगाल के एक महान योगी प्रभुपाद
विजय ड्डष्ण गोस्वामी थे। गोस्वामी जी काशी विश्वनाथ के अवतार त्रैलंग स्वामी के
पास अक्सर जाया करते थे व अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए निवेदन करते थे। त्रैलंग
स्वामी जी ने उन्हें कहा कि वो उन्हें गुरु मान सकते हैं परन्तु उनके असली गुरु
देवात्मा हिमालय पर रहने वाले अन्य सि( पुरुष हैं समय आने पर उन्हें मिलेंगे। समय
आने पर उन्हें अपने गुरु स्वामी
ब्रह्मनन्द जी से दीक्षा मिली जो हिमालय पर मान सरोवर में रहते थे। कभी-कभी भक्तों
से मिलने आते थे।
एक बार गोस्वामी जी काशी के
महायोगी स्वामी विशु(ानन्द परमहंस ;काली कमली वाले बाबाद्ध जी से मिलने गए। गोस्वामी जी के देखते ही स्वामी ने
बड़े आदर के साथ उन्हें अपने पास बैठाया व भावातिरेक हो उनकी पदधूलि लेकर माथे से
लगाने लगें। फिर काफी देर तक धर्म चर्चा करते रहें।
सन्
1891 ई. की बात है माघ का महीना। एक रात कई दिव्य पुरुष गोस्वामी जी के पास आए और
कहा- ”हिमालय स्थित मुक्तिनाथ तीर्थ में उत्सव होगा।
हम लोग वहीं जा रहे हैं। आप भी चलिए।“
इनकी पत्नी योगमाया देवी भी जिद
करने लगी-”मैं भी आप लोगों के साथ
चलूगीं।“
इस पर गोस्वामी बोले-”तुम हम लोगों के साथ कैसे चलोगी? हम लोग सूक्ष्म शरीर से जायेंगे।“
तभी हिमालयवासी गुरु का आदेश मिला-”इसकी अवस्था खोल देने का समय आ गया है।“ योगमाया देवी की अवस्था खोल दी गई तुरन्त उनकी
आँखों के सम्मुख
सम्पूर्ण आध्यात्मिक तत्व प्रकट होने लगे। वे इन लोगों के साथ मुक्तिनाथ
सूक्ष्म शरीर में दर्शन करने चली गई।
एक दिन स्नान करने की तैयारी कर
रहे थे कुछ प्रेत-आत्माएँ आपके पास आई और बोली-”प्रभु हम लोग बड़ा कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहें हैं। ड्डप्या हमें इससे छुटकारा
दीलाएँ“ इसके पश्चात् गोस्वामी जी नदी से स्नान करके
भीगा शरीर लिए घाट पर खड़े हो गए। प्रेत-गण उनकी जटा से गिरने वाले जल को चुल्लू
में भर कर पीने लगे। प्रेतों का काला शरीर ज्योतिर्मय हो उठा। इस प्रकार उन्हें
प्रेत-योनि से मुक्ति मिल गई।
सूर्य विज्ञान के प्रेणता स्वामी विशु(ानन्द परमहंस
योग तंत्र एवं धर्म शास्त्रों के
मानस मर्मज्ञ डाॅ॰ गोपीनाथ कविराज जी के दादा गुरु पूज्यपाद महातपा महाराज की उम्र
उन दिनों 1200 वर्ष के उपर थी। वे अत्यन्त शक्तिशाली महात्मा हैं। उनका कोई मठ
नहीं है। तिब्बत में एक गुफा में रहते हैं। ‘गुप्त भारत की खोज’ ;ज्ीम ैमंतबी व िैमबतमज प्दकपंद्ध के लेखक एवं ब्रिटेन के प्रसि( पत्रकार डाॅ॰
पाल ब्रंटन की खोज एक ऐसे योगी से हुई थी जो 400 वर्ष की आयु के थे उन्होंने
पानीपत का प्रथम यु( ;सन् 1526 ई.द्ध व पलासी का यु( ;सन् 1757 ई.द्ध स्वयं देखा था। उनके गुरु भी तिब्बत के साधनारत थे।
उनकी इस पुस्तक में एक अध्याय है- ‘बनारस का मायावी’। इस लेख में स्वामी विशु(ानन्द जी की जीवनी के अलावा कुछ अनोखी घटनाओं का
वर्णन था स्वामी विशु(ानन्द जी के साक्षात्कार के बारे में उन्होंने लिखा है कि
स्वामी जी ने अपने पास बुलाया व पूछा कि कौन सी सुगन्धि चाहिए? पाल ब्रंटन ने बैले की सुगन्धि पैदा करने का
आग्रह किया तो स्वामी जी ने उनसे उनका रूमाल माँगा व एक शीशे के द्वारा सूर्य का
प्रकाश केन्द्रित किया जब रूमाल उन्हें वापिस मिला तो उसमें बेले की सुगन्धि थी
जबकि नमीं का कहीं नाम तक नहीं था। पत्रकार महोदय ने घर आकर वह रूमाल कई सज्जनों
को दिखाया। सभी को सुगन्धि आती मालूम पड़ी दूसरे दिन पुनः पाल ब्रंटन स्वामी जी के
घर पहँुचे व उनसे कुछ और चमत्कार दिखाने का आग्रह किया स्वामी जी ने बताया कि वह
छोटे जानवरों को जिन्दा कर सकते हैं और ऐसा प्रयोग वे केवल चिडि़यों पर करते हैं।
एक गौरिया को पकड़ कर उसकी गर्दन
मोड़ डाली गई एक घण्टे तक उसकी लाश सामने पड़ी रही ताकि ये विश्वास हो जाए कि वो
मर गई है कुछ देर के बाद जादुगर ने काँच निकाला व सूर्य की किरणों को चिडि़या की
आँख पर केन्द्रित किया उन्होंने कुछ अजीब से मंत्र पढ़े व चिडि़या की लाश कुछ-कुछ
हिलनें लगी। धीरे-धीरे वह पंख फड़फड़ाने लगी व बगल के पेड़ की डाल पर जा बैठी।
बाद में पता चला कि वे हवा से
अंगुर पैदा कर सकते हैं शून्य से मिठाईयाँ मंगा सकते हैं यहाँ की समाग्री तिब्बत
भेज सकते हैं व मुरझाएँ फूलों को हरा-भरा कर सकते हैं। पाल ब्रटन ने जब उनसे
दीक्षा के लिए सोचा तो वो उनके मन की बात ताड़ गए और जवाब दिया-” जब तक तिब्बत स्थित गुरु से अनुमति प्राप्त नहीं
होगी तब तक मैं यदि चाहूँ भी तो तुमको दीक्षा नहीं दे सकता। इसी शर्त पर मुझे काम
करना पड़ता है।“
जब उनसे पूछा गया-” यदि आपके गुरु सुदूर तिब्बत में हैं तो आप उनसे अनुमति कैसे ले सकते है?“
उन्होंने जवाब दिया-”हम दोनों के बीच आत्मिक जगत् में व्यवहार अच्छी तरह चलता है।“
पाल ब्रंटन ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न किए जिनका जवाब स्वामी जी ने दिए।
स्वामी जी का जन्म बंगाल के
वर्धमान जिले में बंधूल गाँव में 21 मार्च 1856 को हुआ था व इनके बचपन का नाम
भोलानाथ था होश सम्भालने पर ये अपने एक मित्र के साथ एक सन्यासी के द्वारा तिब्बत
के ज्ञानगंज नामक स्थान पर पहुँचे वहाँ दोनों युवकों ने 12 वर्ष तक कठोर तप किया।
परमहंस प्रभुराम से योग, परमहंस श्यामानन्द से चन्द्र विज्ञान, सूर्य विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, वायु विज्ञान आदि की शिक्षा ग्रहण की। इन दोनों को पूज्यपाद महातपा जी ने
शिष्य के रूप में स्वीकार किया एवं मस्तक पर हाथ रख कर शक्ति संचार किया। इस
सम्बंध में विस्तृत जानकारी के लिए गोपीनाथ कविराज की पुस्तक श्री-श्री विशु(ानन्द
का अध्ययन आवश्यक है। सन्यास ग्रहण करने के बाद इनका नाम विशु(ानन्द परमहंस हुआ
जिनको गन्धबाबा ;काली कमली वाले बाबाद्ध के नाम से भी बहुत ख्याति मिली। अपने एक भक्त को अपने
चमत्कार प्रदर्शन के विषय में कहा था ”विभूति दर्शन अपने ऐश्वर्य की तुम सब पर धाक जमाऊँ ये मेरा उद्देश्य नहीं है
ऐसा करना वरण एक प्रकार का अपराध है मैं केवल यही चाहता हूँ इसे देखकर शिष्य एवं
भक्तगण साधनाओं में, ईश्वर में, धर्म में विश्वास कर
सन्मार्ग पर चलें। इनकी साधना से सन्तुष्ट हो की ज्ञानगंज में इन्हें परमहंस की
उपाधि दी गई जब साधक परमात्मा की उपलब्धि प्राप्त कर लेता है तब उसमें हंस से उपर
परमहंस भाव का उन्मेष होता है। इस अवस्था तक पहुँचने पर संसारिक द्वन्द नहीं रहता।
निद्र्वन्द पद की प्राप्ति होती है। परमहंस पद प्राप्त करते ही सारा अभिमान दूर हो
जाता है। केवल एक बोध मात्र रहता है।
”तन मन प्राण अर्पण तुम्हें,
सर्वस्व हमारे तुम ही गुरुवर।
योग बिना यह जीवन सूना,
जिएँ कैसे तुम बिन )षिवरû“
No comments:
Post a Comment