Monday, March 3, 2014

सप्तधातु और रोग निवारण

धातुओं की संख्या
            शरीर में धातुएँ सामान्यतः सात होती है-रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मजा और शुक्र। ये सभी दोषों द्वारा दूषित की जाती है अतः दूष्य कहलाती है। यद्यपि इन सातों धातुओं के कार्य पृथक्-पृथक् रूप से भिन्न्ा-भिन्न्ा होते हैं, किन्तु धारण और पोषाण का कार्य सामान्य होने से इन्हें धातु की संज्ञा दी है। ये सातों धातुएँ अपने-अपने भिन्न्ा कर्मों के द्वारा शरीर का उपकार करती हुई शरीर को स्थिरता व दृढ़ता प्रदान करती है। भिन्न्ा-भिन्न्ा रूप से किये जाने वाले इन सातों धातुओं के सभी प्रकार के कार्यों का अंतिम परिणाम एक ही होता है, वह है शरीर को धारण व पोषाण प्रदान करना। अतः इन सातों को धातु कहा गया है।
रस धातु
            सातों ही धातुओं में रस की गणना सबसे पहले की गई है, इस दृष्टि से यह सभी धातुओं में महत्त्वपूर्ण व अग्रणी माना जाता है। इसका एक कारण है कि रस के द्वारा ही समस्त धातुओं का पोषाण होता है। इसके अतिरिक्त रस के माध्यम से ही सम्पूर्ण शरीर में रक्त का परिभ्रमण होता है। रस धातु का निर्माण मुख्य रूप से उस आहार रस के द्वारा होता है, जो जाठराग्रि के द्वारा परिपक्क हुए आहार का परिणाम होता है। रक्त धातु उष्ण और पित्त गुण प्रधान होता है। रक्त धातु का मल पित्त होता है। अर्थात्-रक्त ही शरीर का मूल है और रक्त के द्वारा ही शरीर का धारण किया जाता है, इसलिए इस रक्त की प्रयत्रपूर्वक रक्षा करनी चाहिए, शरीर में सबसे अधिक अंश मांस धातु का होता है और यह शरीर की स्थिरता, दृढ़ता और स्थिति के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। मांस धातु के द्वारा शरीर के आकार निर्माण में सहायता प्राप्त होती है। शरीर का गठन, पुष्टता और सुविभक्त गात्रता मांस धातु के द्वारा ही होती है। मांस धातु अस्थियों को भी आधार प्रदान करता है। मांसपेशी के अभाव में अस्थि अथवा अस्थि संधि क्रियाशील नहीं हो सकती। अतः सभी सचल सन्धियों को क्रियाशीलता प्रदान करना मांसपेशियों के ही अधीन है। शरीर में मांस धातु का परिमाण अन्य धातुओं की अपेक्षा सबसे अधिक होता है। आयुर्वेद में इसका निश्ति प्रमाण नहीं मिला; परन्तु आधुनिक मतानुसार सम्पूर्ण शरीर के भार का 89 प्रतिशत भाग मांस का होता है। शरीर की विभिन्न्ा क्रियाओं का संचालन यथा चलना-फिरना, उठना-बैठना आदि सभी कार्य मांस धातु के संकोच एवं प्रसरण के कारण ही सम्पन्न्ा होते है। बिना मांस धातु के चल कार्य नहीं हो सकता।
मेद धातु के कार्य- मेद शरीर में स्त्रेह एवं स्वेद उत्पन्न्ा करता है, शरीर को दृढ़ता प्रदान करता है तथा शरीर की अस्थियों को पुष्ट करता है। मेदो धातु में स्थित स्त्रेहांश सन्धियों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह स्त्रेहांश ही सन्धियों को संशलिष्ट रखता है और सन्धियों में स्थित श्रैष्मिक कला के निर्माण में सहायक होता है। जो हमारी सन्धियों को यथाशक्य स्त्रेहन कर गति प्रदान करने में सहायक बना रहता है।
            अस्थित धातु- शरीर की स्थिति एवं स्थिरता अस्थि संस्थान पर अवलम्बित है। अस्थि पंजर ही शरीर का सुदृढ़, ढाँचा तैयार करता है। जिससे मानव आकृति का निर्माण होता है। शरीर में यदि अस्थ्यिाँ न हों तो सम्पूर्ण शरीर एक लचीला मांस पिण्ड बनकर ही रह जायेगा, शरीर को अस्थियों के द्वारा ही दृढ़ता और आधार प्राप्त होता है।
            अस्थियों के कार्य-मूल रूप से दो ही कार्य हैं-देह को धारण करना और मजा की पुष्टि करना। यह धातु विशेष रूप से बड़ी अस्थियों में उनके मध्य में पाया जाता है। छोटी अस्थियों में पाई जाने वाली मजा का वर्ण कुछ सक्ताभ लिये हुए होता है। अस्थि धातु के अणु भाग से मजा धातु की उत्पत्ति होती है। इसमें स्त्रेहांश और द्रवांश की अधिकता के कारण जल महाभूत की अधिकता लक्षित होती है।
            मजा के कर्म-शरीर में त्वचा की स्त्रिग्धता मजा धातु के ही अधीन है। शरीर में बल उत्पन्न्ा करने का महत्त्वपूर्ण कार्य मजा के द्वारा सम्पन्न्ा होता है। मजा का अग्रिम धातु शुक्र होती है, अतः उसकी पुष्टि करना भी मजा का ही कार्य है। यह विशेष रूप से शुक्र धातु का पोषण, शरीर का स्त्रेहन तथा शरीर में बल सम्पादन का कार्य करता है। मजा शरीर के विभिन्न्ा अवयवों को पोषण प्रदान करती है।
            शुक्र धातु-शरीर में ऐसा कोई स्थान विशेष नियत नहीं है जहाँ शुक्र विशेष रूप से विद्यमान रहता हो। शुक्र सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है तथा शरीर को बल प्रदान करता है। इसके लिए कहा गया है, जिस प्रकार दूध में घी और गन्न्ो में गुड़ व्याप्त रहता है, उसी प्रकार शरीर में शुक्र व्याप्त रहता है।  
            शुक्र के कार्य-धैर्य- अर्थात् सुख, दुःखादि से विचलित न होना, शूरता, निर्भयता, शरीर में बल उत्साह, पुष्टि गर्भोत्पत्ति के लिए बीज प्रदान तथा शरीर को धारण करना, इन्द्रिय हर्ष, उत्तेजना, प्रसन्न्ाता आदि कार्य शुक्र के द्वारा होते है। इस प्रकार शुक्र धातु शरीर के साथ-साथ मन के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। इन सबके अतिरिक्त सबसे मुख्य कार्य सन्तानोत्पत्ति है। व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में सामथ्र्यवान नहीं बन सकता।
धातु समवृद्धि के लक्षण
            1. क्षीण रस के लक्षण- शब्द का सहन न होना, हृदय कम्प, शरीर का कांपना, शोष, शूल, अंगशून्यता (प्रसुप्ति), अंगों का फड़कना, अल्प चेष्टा के करने पर भी थकावट और प्यार का अनुभव होना-ये सब मनुष्य शरीर में क्षीण रस के लक्षण हैं।
            2. क्षीण रक्त के लक्षण- शरीर में रक्त के क्षीण होने से चमड़ी पर रुखापन खटाई और ठण्डे पदार्थों की इच्छा-सिराओं का ढीला पड़ना, ये लक्षण होते है।
            3. मांस क्षीण के लक्षण- शरीर में मांस के क्षीण होने से स्फिक्र (गण्ड स्थल के पास का भोग) और गण्ड स्थल (पौंर्दा) आदि में शुष्कता (सूख जाना), शरीर में टोचने की सी पीड़ा अंश ग्लानि अर्थात् इन्द्रियों का अपने काम करने में असामथ्र्य, सन्धियों के स्थान में पीड़ा और धमनियों में श्थििलता ये ही इसके लक्षण है।
            4. क्षीण मेद के लक्षण- मेद के क्षीण होने से प्लीहा अर्थात् तिली का बढ़ना, कमर में स्वाप अर्थात् सुप्तता अथवा शून्यता, सन्धियों में शून्यता, शरीर में रुक्षता, कृशता, थकावट, शोष, गाढे़ मांस के खाने की इच्छा और उपर्युक्त क्षीण मांस के कहे हुए लक्षण होते हैं।
            5. क्षीण अस्थि लक्षण- अस्थि के क्षीण होने से दाँतों, नखों, रोमों और कशों का गिरना, रूक्षता, पारूष्य अर्थात् कड़ा अथवा रूखा बोलना, सन्धियों में ढीलापन, हडिुयों में चुभने की सी पीड़ा, अस्थिबद्ध, मांस खाने की इच्छा का होना ये लक्षण हैं।
            6. क्षीण मजा के लक्षण-मजा के क्षीण होने से अस्थिसौर्षिय अर्थात् हडुी में पोल का प्रतीत होना, बड़ी पीड़ा, दुर्बलता, चक्कर आना, प्रकाश में भी अंधेरे का अनुभव होना, इसके ये ही लक्षण होते हैं।
            7. शुक्रक्षय के लक्षण-वीर्य के क्षीण होने पर थकावट, दुर्बलता, मुँह का सूखना, सामने अंधियारी का आना, शरीर का टूटना, शरीर का पीला पड़ जाना, अग्रिमान्द्य नपंुसकता, अण्डकोष में टोचन की सी पीड़ा, लिड्र. में धुवें जैसी प्रतिति अर्थात् दाह होना, स्त्री संग में बड़ी देर से वीर्य का स्खलन होना या वीर्य स्खलन न होकर बड़ी देर के बाद लिड्र. इन्द्रियों से रक्त सह वीर्य का स्खलन होना-ये लक्षण होते हैं। इस प्रकार रक्त रक्तादि के क्षीण होने पर उक्त लक्षण होते है।
            बढ़े हुए रस के कार्य-मुख से लार टपकना, अरुचि मुख की विरसता, लार सहित उबकाई, जी मचलाना, स्त्रोतों का अवरोध, मधुर रस के द्वेष, अंग-अंग का टूटना तथा कफ के विकारों को करके पीड़ा देता है।
            बढ़े हुए रक्त के कार्य- कोढ, विर्सप, फोड़े-फुन्सी, रक्त प्रदर, नेत्र, मुख, लिड्र. और गुदा का पकना, तिली, बायगोला, बिद्रधि, मुख त्यड्र. अर्थात् मुख पर काली झांई पड़ना, कामला, अग्रिमान्ध, आँखों के सामने अंधियारी आना, शरीर और नेत्रों में ललाई, वातरक्त आदि प्रायः पित्त के विकारों को करके शरीर में पीड़ा बढ़ाता है।
            बढ़े हुए मांस के कार्य- गण्डमाला अर्थात् कण्ठमाला, अर्बुद ग्रन्थि तालुरोग, जिहृा रोग, काण्ठ के रोग, फींचे गाल, ओंठ, बाहु, उदर तथा उरु जंघों में गौरव अर्थात् भारीपन आदि रोगों को करके तथा प्रायः कफरक्त विकारों को करके शरीर को दुखी करता है।
            बढ़े हुए मेद के कार्य- बढ़ा हुआ मेद प्रमेह के पूर्वरूप अर्थात् स्वेद अण्डगन्ध आदि स्थूलता के उपद्रपादि और प्रायः कफ रक्त मांस विकारों को करके देह को पीड़ा देता है।
बढ़ी हुई अस्थि के कार्य-बढ़ी हुई अस्थि हडिुयों और दांतों में वृद्धि करके या अस्थि पर अस्थि, दांत पर दांत उत्पन्न्ा करके देह को दुखी करती है।
            बढ़ी हुई मजा के कार्य- नेत्र शरीर तथा रक्त में गुरुता अर्थात् भारीपन अंगुलियों के सन्धियों में स्थूल मूलवाले व्रणों को उत्पन्न्ा करके पीड़ा देती है।

            बढ़े हुए वीर्य के कार्य- बढ़ा हुआ शुक्र या वीर्य स्त्री संसर्ग की अतिइच्छा तथा शुक्राश्मरी को उत्पन्न्ा कर देह में पीड़ा कारक होता है।

continued........ Jan 2015


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