Monday, March 3, 2014

दिव्य आत्मा बूटी सिद्ध जी महाराज

                        घटना मथुरा की है। तिथि-समय का सही-सही विवरण कहीं उपलब्ध नहीं है, परंतु पुराने लोगों के मुँह से जिन्होंने इस घटना को अपनी आँखों से देखा है, इस घटना का ब्योरेवार विवरण मिलता है। किशोरी रमण काॅलेज के पास से जो सड़क शहर के भीतर की ओर जाती है, उसकी बाजू में एक टीला है, उस टीले पर आज से प्रायः एक शताब्दी पूर्व एक महात्मा रहा करते थे। नाम था उनका बूटी सिद्ध महाराज। महात्मा जी इतने विख्यात थे कि उनके पास दर्शनार्थियों और मुलाकातियों का आना-जाना हमेशा बना ही रहता था। उनका स्वभाव था कि वे किसी से कुछ माँगते नहीं थे, यहाँ तक कि उन्हें अपने भोजन की भी चिंतना नहीं रहती थी। भूखे रह लेते थे, पर किसी से कुछ माँगते नहीं थे। इस व्रत के कारण उन्हें कई बार भूखे ही रह जाना पड़ता था। लोग उनके पास आते-जाते थे, परंतु उनका उद्देश्य बाबा से आशीर्वाद पाना और अपना मतलब सिद्ध करने तक ही सीमित रहता था। बाबा से अपने मतलब की बात की और चलते बने। बाबा बूटी सिद्ध लोगों के इस स्वभाव को समझते थे और कई बार तो इन स्वार्थी भक्तों के आचरण पर हँसने भी लगते थे, पर सहज, करुणावत्सल, उदार, संत स्वभाव ने लोगों के इस व्यवहार को कभी गंभीरता से नहीं लिया। वे अपनी उदारता से यथाशक्य उनकी मदद ही करते थे। बाबा को कोई पाँच-छह दिन से भोजन नहीं मिला था। भिक्षा माँगने वे जाते नहीं थे और किसी से कुछ माँगने की, उनकी आदत नहीं थी। रामकली नाम की एक महिला उनके लिए भोजन लेकर आई और थाल उनके सामने रख दिया। बाबा ने कहा-‘‘बेटी! सब ठीक तो है न?’’ ‘‘आपकी दया चाहिए महाराज!’’ रामकली ने आद्र्रस्वर में कहा। बाबा ने आँखें मँदीं और कुछ देर तक चुपचाप मौन ध्यान लगाए बैठे रहे। कुछ देर बाद आँखें खोलीं तो बोले-‘‘जान लिया, तुम्हारे पति की तबीअत बहुत ज्यादा खराब है। वैद्यों ने मरज को लाइलाज कर दिया है। है न?’’
‘‘आप तो अंतर्यामी हैं महाराज। आपसे क्या छिपा हुआ है, अब आप ही का सहारा है।’’ ‘‘चिंता मत कर’’ कहकर बाबा उठे। रामकली ने कहा-‘‘महाराज! पहले भोजन तो कर लीजिए।’’ ‘‘भोजन तो हो जाएगा बेटी, पर तेरा पति बहुत दुःख पा रहा है। उसकी पीड़ा दूर होनी चाहिए।’’ महाराज ने कहा और उठकर झोंपड़ी में एक कील से टँगी झोली के पास गए। झोली को कील से उतारा और उसमें से एक जड़ी निकालकर वापस यथास्थान बैठ गए। कुछ देर तक उस जड़ी को मुट्ठी में बंदकर कोई मंत्र बुदबुदाते रहे और रामकली को देते हुए कहा-‘‘जा, इसे अभी पीसकर उसे पिला देना। माँ की कृपा से सुबह तक ठीक हो जाएगा और कल शाम को तुम दोनों बाबा के पास आना।’’ रामकली वहाँ से चल दी। घर आकर देखा तो उसके पति की दशा पहले से भी ज्यादा बिगड़ी हुई थी। आखिरी साँसें गिन रहा था। मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी। आँखों की पुतलियाँ उलटने लगी थीं। रामकली ने जल्दी-जल्दी में जड़ी को पीसा और बड़ी मुश्किल से अपने पति के मुँह में उँडे़ला, औषधि कंठ के नीचे पहुँची तो उसने आँखें बंद कर लीं। यह क्या? दशा तो और ज्यादा बिगड़ती-सी प्रतीत हो रही थी। हाथ-पाँव ठंढे पड़ने लगे थे। रोगी अचेत हो चुका था। नाड़ी भी डूबती जा रही थी। यह स्थिति कोई एक घंटे तक रही। फिर रोगी की दशा में चमत्कार की तरह सुधार होने लगा। उसने आँखें झपकाई और आँखें खोलकर पास खड़े एक व्यक्ति की ओर देखने लगा, जैसे बता रहा हो कि मैं मौत के मुँह से वापस आ गया हूँ। और दूसरे दिन शाम को तो उसने स्वयं पैदल बाबा के टीले पर चलने की इच्छा व्यक्त की। संबंधियों ने उसके स्वास्थ्य की दुर्बलता को ध्यान में रखते हुए, सहारा देकर उसे वहाँ तक पहँुचाया और बूटी सिद्ध महाराज के दर्शन कराए। 
                        इस तरह की एक नहीं, सैंकड़ों घटनाएँ बूटी सिद्ध महाराज के संबंध में प्रसिद्ध हैं। उनके पास जो कोई भी अपनी आधि-व्याधि लेकर जाता था, उसे वे अपनी एक छोटी-सी झोली में से बूटी निकालकर देते थे और वह भला-चंगा हो जाता था। इसी कारण उनका नाम बूटी सिद्ध पड़ गया। असली नाम क्या था? किसी को नहीं मालूम। वे अपने पूर्व जीवन के संबंध में किसी को कुछ नहीं बताते थे। बताने की आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि उन्हें ख्याति प्राप्त करने का कोई चाव नहीं था। फिर भी उनके बारे में जितना कुछ विवरण प्राप्त है, उसके अनुसार वे अलवर राज्य के एक सामान्य परिवार में जन्मे थे। बचपन से ही उनकी गायत्री उपासना में रुचि थी। अदृश्य की प्रेरणा से युवावस्था में उन्होंने घर-बार छोड़कर संन्यास लिया और मथुरा आकर रहने लगे। किशोरी रमण काॅलेज के पास स्थित जिस टीले पर वह रहे, वह आज भी गायत्री टीले के नाम से जाना जाता है। इस टीले पर बूटी सिद्ध महाराज ने कई गायत्री पुरश्चरण किए और गायत्री की सिद्धि प्राप्त की। इस गायत्री टीले पर बूटी सिद्ध महाराज ने पंचमुखी कमलासन गायत्री की प्रतिमा भी प्रतिष्ठापित कराई थी, जो आज भी विद्यमान है। सिद्धि प्राप्त होने के बाद महाराज ने मौन व्रत ले लिया और मृत्युपर्यंत मौन ही रहे। उन्होंने अपने आशीर्वाद से कई मरणासन्न व्यक्तियों को पुनर्जीवन प्रदान किया, निस्संतानों को संता नदी और धनहीनों को धनलाभ कराया। कहा जा चुका है कि बाबा पूरी तरह अपरिग्रही और अकिंचन थे। भौतिक संपदा उनके पास कुछ भी नहीं थी, फिर भी उन्होंने कई बार ऐसे भंडारे किए, जिनमें दस-दस हजार लोगों ने भोजन किया। भंडारे के लिए धन की व्यवस्था कहाँ से होती थी? यह किसी को नहीं मालूम। किसी से कुछ याचना करते हुए तो उन्हें किसी ने देखा ही नहीं था। फिर धन का प्रबंध कहाँ से होता था यह लोगों के लिए रहस्य ही बना रहा। 
                        बूटी सिद्ध महाराज की दिव्य चमत्कारी क्षमताओं के बारे में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उनकी सिद्धियों और शक्तियों की ख्याति आस-पास के सभी क्षेत्रों में फैल गई थी। महाराज धौलपुर और महाराज अलवर उनकी सिद्धियों की चर्चा सुनकर कई बार उनके पास आए थे और उनके दर्शन से लाभान्वित हुए थे। दूर-दूर से लोग उनके दर्शनों के लिए आते थे और जिन्होंने भी उनके दर्शन किए थे, उनका कहना था कि महाराज के मुखमंडल पर अद्वितीय और अलौकिक तेज रहता है। जब वे मौन रहने लगे तब भी उनके पास कोई शंका, कोई जिज्ञासा लेकर पहँुचने वालों का समाधान आप ही आप हो जाता था। जब से बूटी सिद्ध महाराज गायत्री टीले पर आकर रहने लगे, तब से वे कहीं नहीं गए। एकमात्र टीले तक ही उन्होंने अपना भौतिक संसार सीमित कर लिया था। उसी टीले पर उनकी एक गुफा थी, जिसमें घुस जाने के बाद वे हफ्तों तक बाहर नहीं निकलते थे, गुफा में ही समाधि लगाए रहते। बाबा ने अपने मौन के पूर्व उपदेशों से कई लोगों को गायत्री उपासना में प्रवृत किया। मौन रहने पर भी वे आत्मिक उन्नति के आकांक्षी व्यक्तियों को लिखकर या संकेतों से गायत्री माता की शरण में जाने का उपदेश देते थे, लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि हजारों लोगों को गायत्री उपासना में प्रवृत्त करने के बाद भी उन्होंने किसी को शिष्य नहीं बनाया। इस संबंध में उनका यही कहना था कि सबका गुरु परमपिता परमात्मा है, उसका प्रतिनिधि अपने भीतर ही छिपा बैठा है। उसी की शरण में जाने से कल्याण है। व्यक्ति तो माध्यम भर हो सकता है।

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