यह बात तब की है, जब भारत पर अंग्रेजों का शासन था। उस समय एक उच्च कोटि के साहित्यकार व विद्वान थे- राजा शिवप्रसाद! कहते हैं, वे इतने गुणी थे कि अंग्रेज सरकार भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। उन्हें ‘सितारे हिंद’ की पदवी से सम्मानित किया। इस खुशी में एक जलसा निकाला गया कि अंग्रेजों ने किसी भारतीय को ‘सितारे’ का सम्मान दिया है। जब यह जलसा एक स्थान से गुजर रहा थ, तो वहाँ बैठे एक फकीर ने मस्त अंदाज मे राजा शिवप्रसाद से कहा- ‘हैरानी की बात है! जो कभी सूरज हुआ करता था, आज वह बौना-सा सितारा बनने पर उत्सव मना रहा है... तू अपने प्रखर तेज औ शौर्य का आंकलन नहीं कर पाया शिवप्रसाद। तभी तो अंग्रेजों के अधीन काम किया और उन्होंने तूझे सूरज से नगण्य सितारा बना दिया। यह खुशी की नहीं, दुख की बेला है।’
गहन चिंतन करें, तो हम पायेंगे कि इन वाक्यों में गूढ़ तथ्य निहित है। राजा शिवप्रसाद जैसी भूल आज हर भारतीय कर रहा है। भारत की संस्कृति का तेज सूर्य के समान प्रखर है। पर हम इस सत्य से अनभिज्ञ हैं या फिर जानते हुए भी अंजान बने हुए हैं। हम अपनी संस्कृति, मूल्यों, आदर्शों की महिमा नहीं गाते। उन पर गर्व अनुभव नहीं करते। पूरे विश्व में उनका प्रचार-प्रसार नहीं करते। लेकिन जब कोई विदेशी हमारी किसी धरोहर के बारे में दो शब्द सम्मान के बोल देता है, तब हमें विश्वास होता है और हम उत्सव मनाते हैं।
पर यकीन मानिए, विदेशी हमारी सांस्कृतिक धरोहरों का सही मोल कभी लगा ही नहीं सकते। वे अपनी बौनी बुद्धि से हमारी ज्ञान-विज्ञान युक्त विरासत की विराटता को कभी समझ ही नहीं सकते। उनकी सीमित दृष्टि तो भारत की सूरज सम संस्कृति को सितारा भर देखती है। पर विडम्बना यह है कि हम भारतीय भी उन्हीं के चश्में से देखते आए हैं। पर अब भारतवासियो, जागो! भारत के आध्यात्मिक प्रणेताओं की शरणागत होकर सही नजरिए को पाओ। ताकि जब कोई विदेशी हमारी संस्कृति को सूरज से सितारा बनाये, तब हम तालियाँ पीटते नजर न आयें! सूरज को सूरज की तरह ही देख सकें।
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