Tuesday, September 25, 2012

वासना की परतों के पार शुन्य का संसार


एक बुढिया जोर-जोर से हँस रही थी। उसके हँसने की आवाज दूर-दूर तक पहुँच रही थी। आस-पड़ोस के सभी लोग उसे पागल बुढिया के नाम   से जानते थे। उसकी अजीब सी हरकतें, अबूझ बातें एवं विचित्र जीवनशैली के कारण लोग उसे पागल समझमे थे, परंतू उसकी निडरता, निर्भीकता  एवं साहस से उससे डरते भी थें। उसके पीछे लोग चाहे जो बोलें, पर उसके सामने आकर सबकी बोलती बंद हो जाती थी। वह थी ही ऐसी। बड़ी-बड़ी आँखें, गौर वर्ण, श्वेत केश, चेहरे पर झुर्रियाँ उसकी उम्र को बयां करती थीं वह अपने जीवन के सत्तर वर्ष  पूरे कर चुकी थी, परंतु बुढ़ापे को अपने हाथ की लाठी से खदेड़ती रहती थी। वह स्वस्थ, सतेज एवं निश्ंिचत जिंदगी जीती थी। बूढ़ी मार्इ भूखे को भोजन अवश्य कराती थी और यदि कोर्इ उसकी झोंपड़ी में आ गया तो वो खाली हाथ नहीं जाता था। उसके पास आजीविका के नाम पर केवल एक-दो खेत थे, जिसमे  वह सब्जी, प्याज आदि बोती और उसी को बेचकर अपना जीवन निर्वाह करती थी। मार्इ अजीब थी, वह प्याज बोती जरूर थी, परंतु उसे खाती नहीं थी प्याज के साथ वह विचित्र खेल खेलती थी। गाँव में कोर्इ यदि बीमार हो जाता तो वह अपनी देशी दवा की पोटली लेकर बिन बुलाए वहाँ पहुँच जाती थी। गाँँव के मुखिया बद्रीप्रसाद कहते थे--’’ अरे मार्इ! इस पोटली में कौन सा जादू है कि सभी प्रकार के रोग इससे ठीक हो जाते है। ‘‘इसके उत्तर में मार्इ कुछ कहती नहीं थी, केवल मुस्करा देती थी और बिना बोले अपनी झोंपड़ी पर पहुँच जाती थी। मार्इ एक फकीर अजान के प्रति अपार श्रद्धा रखती थी। इसी अपार श्रद्धा के वशीभूत फकीर अजान यदा-कदा मार्इ की झोंपड़ी में आ जाया करते थे। वैसे गाँव भर के लोग फकीर बाबा के चरणों में भक्तिपूर्वक नमन करते थे। फकीर बाबा अत्यंत सेवाभावी थे और इसी सेवा भाव के कारण लोग उन पर जान छिड़कते थे। फकीर बाबा, मार्इ को भी बड़ा आदर एवं सम्मान देते थे। एक दिन बाबा बद्रीप्रसाद से कह रहे थे--’’ बद्री तुम मार्इ को समझ नहीं सकते। वह बड़ी ही विचित्र है। इनकी आँखे वह देखती है, जो कोर्इ देख नहीं सकता। वह जो बोलती है, उसे बूझना मुश्किल है। उसे बूझने के लिए मैं भटकता हूँ, पर वह अपनी झोंपड़ी में मस्त रहती है। बाबा, मार्इ की झोंपड़ी में आए हुए थे। मार्इ बड़े प्रेम से उन्हें भोजन परोस चुकीं थीं। और उनसे थोंड़ी दूर बगल में बैठी थीं। दूर से बच्चों की इमली चटखारने की आवाज आ रही थी। मार्इ ने पास रखे प्याज की ढेरी से एक प्याज की गाँठ हाथ में ली और उसे छीलने लगीं। परतों पर परतें निकालती गर्इ। पहले उसने लाल प्याज की सूखी परत को हटाया, फिर मोटी खुरदी परतों को हटाया। इतने में प्याज की तीव्र एवं तीखी गंध से उनकी आँखों में जलन होने लगी और आँसू बहने लगे। वह छीलती गर्इ, खुरदरीपरतों के बाद मुलायम, चिकनी परतें निकलीं। बड़ी प्याज छोटी होने लगी जैसे-जैसे प्याज की परतें उधड़ती गर्इ, प्याज छीलते-छीलते बूढ़ी मार्इ के हाथ कुछ नहीं आया। अपनी इस स्थिति पर वह जोर से हँस दी वह जोरों से हँसती जा रही थी और बाबा उसे अपलक निहार रहे थे। बाबा के हाथ में रोटी का टुकड़ा था वह टुकड़ा हाथ में ही धरा रहा और वे बड़े कुतूहल से मार्इ को देख रहे थे। मार्इ हँसती जा रही थी और प्याज के छिलके को बटोरती जा रही थी। वह उठीं और प्याज के छिलके को अपनी झोंपड़ी के पीछे फेंक आर्इ। वह उनका नित्य का क्रम था। वह रोज प्याज छिलती और अंत में हाथ कुछ नहीं आनेपर जोर से हँस देतीं और बिखरे प्याज के छिलके को उसी नियत स्थान पर फेंक आती थीं। उनकी इस हँसी की आवाज से आस-पड़ोस के लोग परिचित तो थे, परंतु उस हँसी के मर्म को केवल  वह और बाबा ही समझते थे। मर्म को समझे बिना किया गया व्यवहार बड़ा अबूझ एवं अटपटा लगता है। वही वजह थी कि मार्इ की हँसी लोगों को अटापटी लगती थी, पर बाब के लिए रहस्य का नया परदा खोल देती थी। बाबा एकटक मार्इ को निहार रहे थे। मार्इ बोलीं--’’बाबा! अपना मन भी तो ऐसा ही है। एक प्याज की बड़ी गाँठ की तरह। उसे उघाड़ते चलें--पहले स्थूल परतें  फिर सूक्ष्म परतें , फिर शुन्य। पहले विचारों की मजबूत एवं खुरदरी परतें, फिर वासनाओं की सूक्ष्म एवं कोमल परतें, फिर अहंकार की अतिसूक्ष्म परतें, फिर कुछ भी नहीं। अंत में बस शुन्यता शेष  रह जाती है और जहाँ शुन्यता होती है, वहाँ कुछ भी नहीं होता है। ‘‘ मार्इ ने कहा--’’भोजन समाप्त कर लें। बाहर अच्छी हवा चल रही है। चलें पीपल के नीचे बैठते है। ‘‘बाबा शून्यता में खो गए थे। उन्हें भोजन करने का भान नहीं था शुन्यता में खो जाना ही तो ध्यान है। बाब ध्यान की गहराइयों में उतर गए थे। मार्इ की आवाज से वह प्रकृतसथ हुए। पत्तल को लेकर उसी प्याज वाले स्थान पर उन्होंने फेंक दिया। मार्इ ने उनके हाथ धुलाए। और कहनें लगीं--’’बाबा टकराहट कहाँ है?--जहाँ रंग है, रूप है, वासना है, अहंकार है, वहीं तो टकराहट होती है, वहीं तो हम आपस में एक दूसरे से उलझते है और उलझते ही चले जाते है इसी उलझन का नाम ही तो संसार है यह संसार सतह पर है, इसलिए हमारी आँखों से दृश्यमान है, और इसे ही यथार्थ एवं सच मान बैठते है, परंतु यह आँखों से देखी गर्इ बात कितनी सच है, आपने तो इस प्याज को छिलते हुए देख लिया। प्याज को छीला तो बचा क्या? शुन्य! इसी प्रकार संसार के पार गया, रहा क्या? नीरवता।’’  मार्इ झाडू ले आर्इ और पेड़ के नीचे बुहारने लगी। फिर वह बोली--’’बाबा! सतह पर संसार के सब रंग है, आप है, मैं हूँ, परंतु केंद्र में शुन्य-नीरवता है। यह शुन्य गहनता ही हमार अपना वास्तविक स्वरूप है। फिर उसे आत्मा कहें या कुछ औेर, पर यह सच है कि विचार, वासना, अहंकार जहाँ नहीं है, वहीं है जो है। इसी का बोध जिस प्रकिया के द्वार संपन्न होता है, वही तो ध्यान है। ध्यान क्या है? इसी शुन्यता में उतर जान ही तो है। इसी नीरवता में विलीन हो जाना ही तो है। प्याज के छिलके के समान जब मन के सभी विचार, वासना एवं अहंकार की परतें उधड़ जाती है तो मन निर्भार एवं शुन्य हो जाता है। यह शुन्यता ही हमारा स्वरूप है। जैसे-जैसे मन की परतें उधड़ती जाती है, मन के सुरम्य एवं सुनहले प्रदेश में प्रवेश करने लगता है और अंत में जब सभी परतें गिर जाती है, तब हम अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाते है। इतना बोलने के बाद मार्इ की उन्मुक्त एवं अम्लान हँसी से वातावरण चैतन्य हो उठा। उसे सुन साँँझ के अधरों में सुनहली मुस्कान भर गर्इ और वह आरक्त हो उठी। इस हँसी से बाबा झूमने लगे, नाचने लगे, गाने लगे। मार्इ थी कि बस, वह नित्यप्रति की तरह झाडू लगा रही थी। मार्इ ने अपने अन्दर झाडू लगा ली थी, वह साफ, स्वच्छ, पवित्र हो चुकीं थी। उन्हें अपना परिचय हो चुका था। बाबा भी इस शुन्यता के अपूर्व सौंदर्य का बोध प्राप्त कर चुके थे। 

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