जब तक योग साधक में कुण्डलिनी शक्ति
सुप्त रहती है वह देह बोध और देहाभिमान में बंधा रहता है। ऐसा व्यक्ति कितनी ही
पुस्तकें पढ़ डालें, भले ही कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर ले, पर उसे देह बोध से मुक्ति नहीं मिलती।
इनके पास तर्क तो होते हैं,
पर बोध नहीं होता है। ये बातें कितनी
ही ऊँची क्यों न करे, पर वह वासनाओं की कीचड़ और कलुप से
मुक्त नहीं हो पाता। उसे यह मुक्ति मिलती है- कुण्डलिनी शाक्ति के जागरण व उर्ध्वगमन से। कुण्डलिनी के
जागृत होते ही कीचड़ धुलने लगती है, कुसंस्कारों
की कार्इ घटने लगती है और तब उसे अनुभव होता है कि देह से परे भी उसकी सत्ता है यह
मुक्ति का पहला चरण है। सबसे पहले यह बोध करना होता है कि किन वासनाओं के प्रतिफल
से यह देह मिली है। किन कर्मबीजों के कारण वर्तमान परिस्थितियाँ हैं। इसे अपनी
साधना की गहरार्इ में अनुभव करना होता है। इसके बाद आता है प्राणों की गति का
क्रम। प्राणों की गति का उर्ध्व व स्थिर होना जीवात्मा के साक्षात्कार का कारण
बनता है। इस अवस्था में पहुँचे हुए योगी को वासनाएँ नहीं सताती, कुसंस्कारों की कीचड़ उसे कलुषित नहीं
करती। वह भय से मुक्त होता चला जाता है। यहीं से उसके जीवन मे ऋद्धि सिद्धियों का
सिलसिला प्राम्भ होता है। परिष्कृत प्राण एवं पारदर्शी मन उसमें अनेक आलौकिक
विभूतियों को जन्म देते हैं। इनके प्रयोग एवं परिणाम से सूक्ष्म अभिमान तो जागता
ही है। इनसे छुटकारा इतना आसान नहीं है। यह तो योग साधक के केवल आत्म साक्षात्कार
के बाद ही उपलब्ध होता है।
किन्तु यह तभी होता है, जब
इसे बिन्दुरूप आत्मज्योति का दर्शन हो। यह दर्शन
ही आत्म साक्षात्कार है। जो योग साधक इस आत्मरूप का साक्षात्कार करता है, वही मुक्ति के अगले चरण में पहुँचता
है। साधन की यह अवस्था पूर्णत: द्वन्द्वातीत होती है। न यहाँ सुख होता है और न
दु:ख। किसी तरह के सांसारिक-लौकिक कष्ट उसे कोर्इ पीड़ा नहीं देते। गुण गुणों में
बसते हैं, उसे इसी अवस्था में होता है। उपनिषदों
में इसी को अंगुष्ठ मात्र आत्मज्योति का साक्षात्कार कहा गया है। इस ज्योति के
दर्शन से साधक को स्वयं का ज्ञान एवं आत्मरूप में स्थिति बनने लगती है। जो इसको
अनुभव करते हैं वहीं इसका सुख एवं आनन्द भोगते हैं।
मुक्ति की यह अवस्था पाने के बाद भी जीव सत्ता एवं परमात्म सत्ता में भेद
बना रहता है। जीव सत्ता एवं परमात्म सत्ता के बीच पारदर्शी दीवार बनी रहती है। कुछ
वैसे ही जैसे कि लैम्प की ज्योति एवं देखने वाले के बीच शीशा आ खड़ा होता है।
देखने वाला ज्योति को देखता है, परन्तु
इसे छू नहीं सकता, इसमें समा नहीं सकता। इस पारदशी दीवार
को भेदना किसी साधनात्मक पुरूषार्थ से सम्भव नहीं है। इसके लिए भक्त की पुकार और
भगवान की कृपा का मेल चाहिए। शिष्य की तड़पन एवं सदगुरु की कृपा से ही यह दीवार
ढहती है-गिरती है। जीव और ब्रह्म का भेद मिट जाता है और साधक ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का उद्घोष करता है। यही सम्पूर्ण
मुक्ति है। इस प्रक्रिया के श्री राम आचार्य जी ने गायत्री महाविज्ञान के तृतीय
भाग में ब्रह्म दीक्षा का नाम दिया है।
स्वामी प्रणवानन्द
1-मैं उन दिनों नित्यरात्रि को आठ
घण्टे ध्यान किया करता था। उस समय मेरा समूचा दिन रेलवे कायार्लय में बीत जाता
था। वहाँ मुझे अपने कलर्क होने का दायित्व निभाना पड़ता था। उन दिनों मेरे लिए
वह डयूटी बड़ी थकाउ और उबाउ थी। फिर भी मैं बड़े ही मनोयाग पूवर्क हर रात को
ध्यान करता था। प्रत्येक रात्रि को आठ घण्टे की अविराम साधना मेरी जीवनचर्या का अनिवार्य और
अविभाज्य अंग बन गयी।
अविभाज्य अंग बन गयी।
इसके अद्भुत परिणाम भी मेरे जीवन में
आए। विराट् आध्यत्मिक अनुभूति से मेरी समूची अन्तर्चेतना उद्भासित हो उठी; परन्तु अभी भी उस अखण्ड सच्चिदानन्द
और मेरे बीच एक झीना परदा हमेशा बना रहता था। यहाँ तक कि अतिमानवी निष्ठा के
साथ साधना करने के बावजूद भी मैं ब्रहातत्त्व से एकाकार नहीं हो सका। इस बारे में
किए गए मेरे सारे प्रयास पुरुषार्थ, निष्फल
गए। तभी मुझे ध्यान आया कि साधन के लिए सदगुरु चरणों की कृपा ही परमपूणर्ता का परिचय पयार्य बनती है। यही सोचकर एक दिन
सायंकाल मैंने लाहिड़ी महाशय के चरणों का आश्रय ग्रहण किया। उनके आशीष की
आकांक्षा के साथ मेरी प्राथर्ना चलती रही, ‘गुरूदेव, मेरी ईश्वर में समा जाने की आकांक्षा
इतनी तीव्र वेदना का रूप धारण कर चुकी है कि उस परम प्रभु का प्रत्यक्ष दर्शन
किए बिना मैं
अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता।’
अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता।’
लाहिड़ी महाशय हल्के से मुस्काराए और
बोले, भला इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। तुम
और गहराई से ध्यान करो। मैने उनके चरण पकड़कर बड़े ही करूण भाव से पुकार की, हे मेरे प्रभु, मेरे स्वामी, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। आप इस
भौतिक कलेवर में मेरे सम्मुख विद्यमान हैं। अब मेरी प्रार्थना को स्वीकारें, और मुझे आशीर्वाद दें कि मैं आपका
आपके अनन्त रूप में दर्शन कर सकूँ। प्रसन्न भाव से शिष्य वत्सल परम सदगुरु
लाहिड़ी महाशय ने अपना हाथ आशीर्वाद मुद्रा में उठाते हुए कहा, जाओ वत्व, अब तुम जाओ और ध्यान करो। मैंने
तुम्हारी प्रार्थना परमपिता परमेश्वर परब्रहा तक पहुँचा दी है।
अपरिमित आनंद और उल्लास से भरकर मैं घर
लौटा। नित्य की ही भांति उस रात्रि भी मैं ध्यान के लिए बैठा। बस फर्क थोड़ा
था, आज सदगुरु के चरण मेरी ध्यानस्थ चेतना
का केन्द्र थे। वे चरण कब अनन्त विराट् परब्रहा बन गए पता ही नहीं चला। बस उसी
रात मैंने जीवन की चिरप्रतीशित परमसिधि
प्राप्त कर ली। उस दिन से माया का कोई भी परदा उस परमानन्दमय जगत् स्त्रष्टा की
छवि को मेरे नेत्रों से ओझल नहीं कर सका है। यह कहते हुए स्वामी प्रणवानन्द का
मुखमण्डल प्रसन्नता से दमक उठा। स्वामी योगानन्द लिखते हैं कि गुरू महिमा की यह
कथा सुनकर मेरा भय भी नष्ट हो गया।
(यह लेख विस्तार से जनवरी 2014 के ब्लॉग मे दिया गया है, कृप्या पढ़े, Science & Mechanism of Kundlini Sadhna)
(यह लेख विस्तार से जनवरी 2014 के ब्लॉग मे दिया गया है, कृप्या पढ़े, Science & Mechanism of Kundlini Sadhna)