Wednesday, February 12, 2014

कुण्डलिनी द्वारा मोक्ष प्राप्ति

जब तक योग साधक में कुण्डलिनी शक्ति सुप्त रहती है वह देह बोध और देहाभिमान में बंधा रहता है। ऐसा व्यक्ति कितनी ही पुस्तकें पढ़ डालें, भले ही कितने ही  शास्त्रों का अध्ययन कर ले, पर उसे देह बोध से मुक्ति नहीं मिलती। इनके पास तर्क तो होते हैं, पर बोध नहीं होता है। ये बातें कितनी ही ऊँची क्यों न करे, पर वह वासनाओं की कीचड़ और कलुप से मुक्त नहीं हो पाता। उसे यह मुक्ति मिलती है- कुण्डलिनी  शाक्ति के जागरण व उर्ध्वगमन से। कुण्डलिनी के जागृत होते ही कीचड़ धुलने लगती है, कुसंस्कारों की कार्इ घटने लगती है और तब उसे अनुभव होता है कि देह से परे भी उसकी सत्ता है यह मुक्ति का पहला चरण है। सबसे पहले यह बोध करना होता है कि किन वासनाओं के प्रतिफल से यह देह मिली है। किन कर्मबीजों के कारण वर्तमान परिस्थितियाँ हैं। इसे अपनी साधना की गहरार्इ में अनुभव करना होता है। इसके बाद आता है प्राणों की गति का क्रम। प्राणों की गति का उर्ध्व व स्थिर होना जीवात्मा के साक्षात्कार का कारण बनता है। इस अवस्था में पहुँचे हुए योगी को वासनाएँ नहीं सताती, कुसंस्कारों की कीचड़ उसे कलुषित नहीं करती। वह भय से मुक्त होता चला जाता है। यहीं से उसके जीवन मे ऋद्धि सिद्धियों का सिलसिला प्राम्भ होता है। परिष्कृत प्राण एवं पारदर्शी मन उसमें अनेक आलौकिक विभूतियों को जन्म देते हैं। इनके प्रयोग एवं परिणाम से सूक्ष्म अभिमान तो जागता ही है। इनसे छुटकारा इतना आसान नहीं है। यह तो योग साधक के केवल आत्म साक्षात्कार के बाद ही उपलब्ध होता है।
     किन्तु यह तभी होता है, जब इसे बिन्दुरूप आत्मज्योति का दर्शन हो। यह दर्शन  ही आत्म साक्षात्कार है। जो योग साधक इस आत्मरूप का साक्षात्कार करता है, वही मुक्ति के अगले चरण में पहुँचता है। साधन की यह अवस्था पूर्णत: द्वन्द्वातीत होती है। न यहाँ सुख होता है और न दु:ख। किसी तरह के सांसारिक-लौकिक कष्ट उसे कोर्इ पीड़ा नहीं देते। गुण गुणों में बसते हैं, उसे इसी अवस्था में होता है। उपनिषदों में इसी को अंगुष्ठ मात्र आत्मज्योति का साक्षात्कार कहा गया है। इस ज्योति के दर्शन से साधक को स्वयं का ज्ञान एवं आत्मरूप में स्थिति बनने लगती है। जो इसको अनुभव करते हैं वहीं इसका सुख एवं आनन्द भोगते हैं।
     मुक्ति की यह अवस्था पाने के बाद भी जीव सत्ता एवं परमात्म सत्ता में भेद बना रहता है। जीव सत्ता एवं परमात्म सत्ता के बीच पारदर्शी दीवार बनी रहती है। कुछ वैसे ही जैसे कि लैम्प की ज्योति एवं देखने वाले के बीच शीशा आ खड़ा होता है। देखने वाला ज्योति को देखता है, परन्तु इसे छू नहीं सकता, इसमें समा नहीं सकता। इस पारदशी दीवार को भेदना किसी साधनात्मक पुरूषार्थ से सम्भव नहीं है। इसके लिए भक्त की पुकार और भगवान की कृपा का मेल चाहिए। शिष्य की तड़पन एवं सदगुरु की कृपा से ही यह दीवार ढहती है-गिरती है। जीव और ब्रह्म का भेद मिट जाता है और साधक अहं ब्रह्मास्मिका उद्घोष करता है। यही सम्पूर्ण मुक्ति है। इस प्रक्रिया के श्री राम आचार्य जी ने गायत्री महाविज्ञान के तृतीय भाग में ब्रह्म दीक्षा का नाम दिया है।

स्वामी प्रणवानन्द

1-मैं उन ​दिनों ​नित्यरा​त्रि को आठ घण्टे ध्यान ​किया करता था। उस समय मेरा समूचा ​दिन रेलवे कायार्लय में बीत जाता था। वहाँ मुझे अपने कलर्क होने का दा​यित्व ​निभाना पड़ता था। उन ​दिनों मेरे ​लिए वह डयूटी बड़ी थकाउ और उबाउ थी। ​फिर भी मैं बड़े ही मनोयाग पूवर्क हर रात को ध्यान करता था। प्रत्येक रा​त्रि को आठ घण्टे की अविराम साधना मेरी जीवनचर्या का  अ​निवार्य और 
अ​विभाज्य अंग बन गयी।
इसके अद्भुत प​रिणाम भी मेरे जीवन में आए। ​विराट् आध्यत्मिक अनुभू​ति से मेरी समूची अन्तर्चेतना उद्भा​सित हो उठी; परन्तु अभी भी उस अखण्ड स​च्चिदानन्द और मेरे बीच एक झीना परदा हमेशा बना रहता था। यहाँ तक ​कि अ​तिमानवी ​निष्ठा के साथ साधना करने के बावजूद भी मैं ब्रहातत्त्व से एकाकार नहीं हो सका। इस बारे में ​किए गए मेरे सारे प्रयास पुरुषार्थ, ​निष्फल गए। तभी मुझे ध्यान आया ​कि साधन के ​लिए सदगुरु चरणों की कृपा ही परमपूणर्ता का प​रिचय पयार्य बनती है। यही सोचकर एक ​दिन सायंकाल मैंने ला​हिड़ी महाशय के चरणों का आश्रय ग्रहण ​किया। उनके आशीष की आकांक्षा के साथ मेरी प्राथर्ना चलती रही, ‘गुरूदेव, मेरी ईश्वर में समा जाने की आकांक्षा इतनी तीव्र वेदना का रूप धारण कर चुकी है ​कि उस परम प्रभु का प्रत्यक्ष दर्शन ​किए ​बिना मैं 
अ​धिक ​दिनों तक जी​वित नहीं रह सकता।
ला​हिड़ी महाशय हल्के से मुस्काराए और बोले, भला इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। तुम और गहराई से ध्यान करो। मैने उनके चरण पकड़कर बड़े ही करूण भाव से पुकार की, हे मेरे प्रभु, मेरे स्वामी, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। आप इस भौ​तिक कलेवर में मेरे सम्मुख ​विद्यमान हैं। अब मेरी प्रार्थना को स्वीकारें, और मुझे आशीर्वाद दें ​कि मैं आपका आपके अनन्त रूप में दर्शन कर सकूँ। प्रसन्न भाव से शिष्य वत्सल परम सदगुरु ला​हिड़ी महाशय ने अपना हाथ आशीर्वाद मुद्रा में उठाते हुए कहा, जाओ वत्व, अब तुम जाओ और ध्यान करो। मैंने तुम्हारी प्रार्थना परम​पिता परमेश्वर परब्रहा तक पहुँचा दी है।
अपरिमित आनंद और उल्लास से भरकर मैं घर लौटा। ​नित्य की ही भां​ति उस रा​त्रि भी मैं ध्यान के ​लिए बैठा। बस फर्क थोड़ा था, आज सदगुरु के चरण मेरी ध्यानस्थ चेतना का केन्द्र थे। वे चरण कब अनन्त ​विराट् परब्रहा बन गए पता ही नहीं चला। बस उसी रात मैंने जीवन की ​चिरप्रती​शित  परम​सिधि प्राप्त कर ली। उस ​दिन से माया का कोई भी परदा उस परमानन्दमय जगत् स्त्रष्टा की छ​वि को मेरे नेत्रों से ओझल नहीं कर सका है। यह कहते हुए स्वामी प्रणवानन्द का मुखमण्डल प्रसन्नता से दमक उठा। स्वामी योगानन्द ​लिखते हैं ​कि गुरू म​हिमा की यह कथा सुनकर मेरा भय भी नष्ट हो गया।
(यह लेख विस्तार से जनवरी 2014 के  ब्लॉग मे दिया गया है, कृप्या पढ़े, Science & Mechanism of Kundlini Sadhna)

ऋतुचर्या-ऋ़तु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य

ऋतुचर्या-ऋ़तु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य
            अभी तक हमने उत्तरायण एवं दक्षिणायन में आने वाली छह ऋतुओं में किसी व्यक्ति की जीवनचर्या क्या होनी चाहिए, क्या-क्या दोष संभावित हैं, ऋतु विशेष में वातावरण कैसा होता है- इन पर विचार किया। आयुर्वेद पूर्णतः विज्ञानसम्मत है एवं यह बताता है कि शास्त्रोक्त जीवनपद्धति का पालन किया जाए तो किसी प्रकार के रोगों की संभावना नहीं रहती। अभी ऋतु विशेष के अनुसार आहार की हमने विशेष चर्चा नहीं की है। हाँ, ऋतुसंधि एवं ऋतु हरीतकी पर संक्षिप्त टिप्पणी पिछली बार की है। अब मौसम विशेष के अनुसार त्रिदोषों की स्थिति क्या होती है, इस पर इस समापन किस्त में प्रकाश डालेंगे। पंचकर्म प्रकरण की विस्तार से सद्वृत्त के साथ चर्चा बाद में होगी। वातावरण में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रभाव भिन्न-भिन्न ऋतुओं में होते हैं। आहार भी बदलता रहता है। यही दोषों को प्रभावित करता है। आहार तो हम अपने आप नियंत्रित कर सकते हैं, उपवास आदि से शोधन भी कर सकते हैं, परंतु जो वातावरण के घटक हैं वे सीधे हमारी त्वचा, श्वसन संस्थान, रक्तवाही संस्थान पर प्रभाव डालकर सारे शरीर को प्रभावित करते हैं।
वातावरण का वात पर प्रभाव- तीन प्रकार के प्रभाव वात नामक दोष पर पड़ते हैं और यही बीमारी के हेतु बन जाते हैं। ये हैं वात क्षय, वात प्रकोप एवं वात प्रशमन। क्षय अर्थात एकत्र हो जाना, प्रकोप अर्थात बढ़ जाना एवं प्रशमन अर्थात घट जाना।
वात क्षय- ग्रीष्म ऋतु में जब शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है एवं पाचन क्षमता भी कम हो जाती है, मनुष्य पसीने से भी पानी को गँवाता है एवं शरीर से एक प्रकार से जलतत्त्व (फ्ल्युड एवं इलेक्ट्रोलाइट्स) कम होता चला जाता है। इससे वात एकत्र होता चला जाता है। भोजन में शुष्कता एवं हलकापन भी वात क्षय बढ़ाते हैं, पंरतु ग्रीष्म के प्रभाव से यह इतना अधिक नहीं होता कि वात प्रकुपित हो जाए।
वात प्रकोप- वर्षा ऋतु में पाचनशक्ति एवं सामान्य शक्ति और अधिक कम हो जाती है। गरमी से ठंढक में अचानक परिवर्तन एक ही दिन में कई बार होता है इससे वात एकत्र होकर प्रकोप की दिशा में चला जाता है। आयुर्वेद के निष्णात विद्वान इस तथ्य से परिचित हो उपचार करते हैं।
वात प्रशमन- शरद ऋतु में आद्र्रता एवं गरमी का प्रभाव वातावरण में अधिक होता है। इसलिए शरदकाल में बढ़ा हुआ वात स्वतः घट जाता है एवं सात्मीकरण (होमियोस्टेसिस) की स्थिति आ जाती है।
वातावरण का पित्त पर प्रभाव- पित्त पर भी पित्त क्षय, पित्त प्रकोप एवं पित्त प्रशमन नामक तीन प्रभाव पड़ते है। ये अलग-अलग ऋतु में अलग-अलग प्रभाव डालते हैं इसीलिए आहार, औपधि, जीवनचर्या अलग-अलग रखनी होती है।  
 पित्त क्षय-ग्रीष्म का आतप शरीर मे गरमी का अनुपात बढ़ाकर इसे थका देता है। शरीर की शक्ति एवं पाचनशक्ति वर्षा के आगमन के साथ और भी कम हो जाती है। पानी की शुद्धता भी बरसाती जल के कारण संदिग्ध हो जाती है। स्वाद में परिवर्तन एवं अपच के कारण पित्त एकत्र होने लगता है एवं यह स्थिति पूरे वर्षाकाल व ग्रीष्म की पराकाष्ठा के काल में बनी रहती है। यदि वातावरण में ठंढक रहे तो पित्त क्षय नहीं होता।
पित्त प्रकोप- यह स्थिति शरदकाल में आती है, जब वर्षा के तुरंत बाद गरमी का प्रभाव तीव्रतम स्थिति में कुछ समय के लिए आता है। इससे एकत्र पित्त प्रकुपित हो उठता है एवं कभी-कभी उसका प्रभाव अधिक भी दिखाई देने लगता है।
पित्त प्रशमन- हेमंत के आगमन के साथ ही वातावरण में भी मधुरता एवं भोज्य पदार्थों में मधुर रस का बाहुल्य, ऋतु की ठंढक के साथ पित्त को शांत कर देता है।
वातावरण का कफ पर प्रभाव-त्रिदोषों में कफ की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इससे क्राॅनिक रोग जन्म लेते हैं, यदि ऋतु अनुसार कफ क्षय, प्रकोप एवं प्रशमन का ध्यान न रखा जाए।
कफ क्षय- हेमंत में स्वाभावतः भूख अधिक लगती है, शरीर में ताकत भी होती है। खाने-पीने की आदतें बदल जाती हैं और शिशिर ऋतु (जाती हुई ठंढक) तक जारी रहती हैं। उस समय पाचनशक्ति, कम होने लगती है। वातावरण की ठंढक एवं न्यून पाचनशक्ति, परंतु आहार अधिक होने से कफ क्षय होने लगता है, अर्थात कफ एकत्र हो जाता है।
कफ प्रकोप- वसंत का आगमन संचित कफ को पिघला देता है और नतीजा निकलता है, प्रकुपित कफ व उससे पैदा हुए रोगों के रूप में।
कफ प्रशमन- गरमी के आगमन के साथ ही संचित, प्रकुपित कफ स्वतः शांत हो जाता है। यहाँ यह कहना जरूरी है कि ऋषियों की यह सब प्रतिपादित हाइपोथीसिस-परिकल्पनाएँ भोगे हुए यथार्थ है एवं तब के हैं, जब न हीटर, एयरड्रापर, एयर कंडीशनर्स आदि होते थे। आज ये हैं तो दोष और ज्यादा हैं, क्योंकि कुसमय का ऋतु परिवर्तन दिन में कई-कई बार होता है एवं जीवनशैली में खान-पान की विकृतियाँ जुड़ गई हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि ये त्रिदोष शरीर को अधिक प्रभावित करेंगे और रोगी बनाएँगे। जीवनशैली के रोग (लाइफ स्टाइल disorder) इसीलिए आज ज्यादा हैं।
दोष शोधनम्- पंचकर्मों द्वारा शरीर का त्रिदोषों से शोधन किया जा सकता है। कफ दोष को वसंत ऋतु में वमन द्वारा, पित्त दोष को छोटी आँतों से शरद ऋतु में विरेचन द्वारा तथा वात दोष को बड़ी आँतों से स्थापन वस्ति द्वारा वर्षा ऋतु में संपन्न कर मिटाया जा सकता है। ये पंचकर्म प्रकोप की स्थिति में ही करना ठीक रहते हैं, परंतु ये एकत्र न होने पाएँ ऐसी सावधानी रखी जाए। इसके लिए जिस ऋतु में इनका प्रकोप होता है या होने की संभावना रहती है, उसके प्रारंभ में ही पंचकर्म कर लिए जाएँ तो प्रकोप की संभावना नहीं होती। शोधन तब नहीं करना चाहिए, जब ऋतु अपनी पूर्ण परिपक्वावस्था में होती है एवं शरीर भी कमजोर होता है।
            हेमंत व शिशिर ऋतु में उचित है कि तैल मालिश (स्नेहन) नियमित रूप से की जाए एवं इसके लिए वातहर औषधियों का तैल (बलादि तैंल, नारायण तैल) का प्रयोग किया जाए। वसंत ऋतु में नीम तैल, सरसों तैल या शीशम तैल से गरम मालिश की जाए। साथ ही गरम रेत के थैलों द्वारा स्वेदन भी किया जाए। वमन एवं नस्य भी किया जा सकता है। ग्रीष्म ऋतु में वातहर-पित्तहर स्नेहन घी की मालिश से करना चाहिए। वर्षा ऋतु में स्नेहन एवं विरेचन की ही अनुमति है। शारद ऋतु में औषधियुक्त घी (तिक्त घी) से स्नेहन किया जाए, हलका स्वेदन तथा कुटकी, हरीतकी, शुंठी, आमलकी द्वारा विरेचन किया जाए। ये उपाय परीक्षित हैं, सिद्ध हैं एवं किसी भी रोग से व्यक्ति को बचाने में सक्षम हैं। हम यह फिर बता दें कि यहाँ पंचकर्म की संक्षिप्त चर्चा ही ऋतुचर्या के संदर्भ में कही गई है।
ऋतु विपर्यय- आज ग्लोबल वार्मिग के कारण, हमारी जीवनचर्या बदल जाने के कारण ऋतुओं में वे प्रभाव नहीं हैं, जो उनके स्वाभाविक गुण हुआ करते थे। मई में ओले गिरना, बहुत ज्यादा ठंढक एवं शिशिर, शरद में गरम मौसम बहुतायत से देखने को मिल रहा है। यह बदला ऋतु का मिजाज ही रोगों को जन्म देता है, शरीर की जीवनीशक्ति की जमकर परीक्षा लेता है। इसका प्रभाव कृषि, पर्यावरण, उत्पन्न होने वाली शाक-सब्जियों, फलादि पर भी होता है तथा ग्रहण किए जाने पर ये भी गलत प्रभाव डालते हैं। इस पर ऋषियों ने संकेत मात्र किया था, पर आज यही सर्वाधिक चर्चित विषय बन गया है।  

Sunday, February 9, 2014

जय भारत

स्वच्छ भारत                    सुशिक्षित भारत 
सम्पन्न भारत                  सुव्यवस्थित भारत 
सशक्त भारत                   सर्वोच्च भारत 
स्वर्णमय भारत                 प्राणवान भारत 
भक्तिमय भारत               जगद्गुरु भारत 
कर्मशील भारत                 साधनामय भारत
विज्ञानमय भारत             गारिमावान भारत 
पुण्यात्मा भारत               स्वस्थ भारत 
सुसंस्ड्डत भारत              समृद्ध भारत 
सुविकसित भारत            सुदृढ़ भारत 
सर्वोत्तम भारत                 धर्मशील भारत 
तपोनिष्ठ भारत              शान्तिमय भारत 
क्रान्तिमय भारत             जानवान भारत 
आनन्दमय भारत           विश्वमित्र भारत 
महिमावान भारत           शक्तिमान भारत  
                     ”मेरा भारत महान"

mahapurush uvah-1

1. "बेटा भगवान् वह नहीं है, जो मन की कामनाओं को पूरा करता है, बल्कि भगवान् वह है, जो मन से कामनाओं का नाश करता है।"-युग-ऋषि  श्रीराम ‘आचार्य’
2. "यदि मुझे एक दिन के लिए भी सत्ता मिल जाए तो मैं सर्वप्रथम भारत से दो चीजों को समाप्त करने का प्रयास करुँगा-एक शराब दूसरी गौ हत्या। " -महात्मा गाँधी
3.  " अर्थ कामेष्वसक्तानां धर्म ज्ञानं विधीयते "
तात! जो धन और इन्द्रियों के वशवर्ती नहीं है वही धर्म और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। अर्थात आत्म कल्याण के मार्ग में यह दोनों बाधक है।  
4.  "हेयं दुःख मनागतम्। 2/16 पात´जल योग"
योग साधना ही वह सुलभ पथ है, जिस पर चलकर भविष्य में आने वाले सभी दुःखों को नष्ट किया जा सकता है। 
5.  'मित्रं शरणं गच्छामि।"
 ऋषि सत्ताओं को दिए जाने वाले तीन वचनद्ध
विश्वमित्र बन नवसृजन की गतिविधियों में पूरा सहयोग करुँगा।
वादं न चरिष्यामि। 
जीवन में व्यक्तिवाद, परिवारवाद, जातिवाद, संस्थावाद, देववाद को महत्व नहीं दूँगा।
सि(ान्तं वा अनुकरणयामि। 
श्रेष्ठ आदर्शों व सि(ान्तों पर चलने का प्रयास करुँगा।
6- A disease free body, quiver free breath, stress free mind, inhibition free intellect, obsession free money an ego that encompasses all and a sorrow free soul are all the signes of total willness and are deserved by every human being. 

7. मानव जीवन रूपी रथ दो पहियों पर चलता है-
एक है संसार दूसरा भगवान् 
एक है प्रड्डति दूसरा परमात्मा 
एक है नर दूसरा नारी 
एक है स्वार्थ दूसरा परमार्थ 
एक है लौकिक  दूसरा परलौकिक 
एक है भोग, दूसरा योग, 
एक है शरीर, दूसरा आत्मा 
एक है भौतिक, दूसरा आध्यात्मिक 
एक है तनाव, दूसरा विश्राम 
गड़बड़ तब होती है जब इसमें सन्तुलन गड़बड़ा जाता  है। जब हमारा एक पहिया कमजोर हो जाता है अर्थात हमारा झुकाव एक ओर बढ़ जाता है, हम एक पक्ष को ज्यादा महत्व देने लगते हैं दूसरे को कम।
8-  Good friends are hard to find, harder to leave, impossible to forget. 
9- The empty vessel make the loudest sound
10- The coward die many times before their deaths; the violent never taste of death but once. 
11 God has given you one face, you make yourself another.-shakespear 
12. अपने विचारों पर पैनी द्र्ष्टि रखों क्योंकि ये एक दिन कर्म रूप में प्रस्फुल्ति होंगे अपने कर्मों पर और भी पैनी द्र्ष्टि  रखों क्योंकि यही आदत में प्रस्फुल्ति होंगे। अपनी आदतों पर और भी पैनी दृष्टि रखों क्योंकि ये आदतें ही संस्कारों के रूप में जड़ जमा कर बैठ जाएँगी और इन्हीं संस्कारों से चरित्र का निर्माण होकर रहेगा। युग-ऋषि श्रीराम ‘आचार्य’ जी 
13. मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं उनका निर्माता, नियंत्रणकर्ता और स्वामी है। 
14. शब्द रहित सहृदय प्रार्थना हृदय विहिन मुखर प्रार्थना से उत्तम है। -'रवीद इमदजवद'
15. दिक्कतों और कठिनाइयों का सामना किए बिना कोई जीव उच्चतात्मा नहीं बन सकता। -'भगवान देवात्मा' 
16. "वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुुसुमादपि"
"जहाँ दया का प्रश्न है वहाँ फूलों से कोमल, जहाँ सि(ान्तों का प्रश्न है वहाँ वज्र से भी कठोर।"
17.  अंधा वह नहीं जिसकी आँखें नहीं अपितु वह है जो अपने दोषों का अवलोकन नहीं करता बल्कि ढकता व छिपाता है। 
18. वासनाओं के गन्दे दल-दल से निकलकर भाव संवदेनाओं की गंगोत्री में स्नान कर निर्मल हृदय से प्रभु का सिम्रण करो। 
19- Always respect your conciseness. 
20- Ignorance of law is no excuse.अनभिज्ञता अक्षम्य है।द्ध
21. नियम से अभिग्यता अक्षमय् हैं 
सृष्टि का नवनिर्माण-गायत्री महामंत्र 
जीवन का कायाकल्प-गायत्री महामंत्र
परमात्मा का वर्ण-गायत्री महामंत्र 
जटिल प्रारब्धों का नाश-गायत्री महामंत्र 
22. प्रज्ञाम् शरणं गच्छामि अर्थात सद्बुधि  विवेक प्रज्ञा की शरण में जाओं 
23. धम्म शरणं गच्छामि अर्थात धर्म, शास्त्र, श्रेष्ठ आचरण, कर्तव्य पालन, नियम, अनुशासन को अपनाओं। 
24. संघम् शरणं गच्छामि अर्थात संघ शक्ति, संगठन शक्ति , दुर्गा शक्ति द्वारा लाल मशाल का वाहक बनकर भारत का नवनिर्माण करों। 
25. बिना विचारें जो करे सो पाछे पछताएँ। 
काम बिगाडे़ आपनो जग में हो हँसाएँ। 










Golden opportunity
The English translation of this hard one or two volunteers are required. There is a golden opportunity for them who have spiritual background and want to do sth useful for the humanity. Financial support is also available. If person wants soon financial help it may be provided in the form of monthly salary. The only condition is that the person should have a passion for the spirituality and a good knowledge of English and Hind language. Those who are interested kindly contact to the author by mail.

References

नाता विज्ञान और धर्म का - श्री राम शर्मा
1. युग-गीता 182 - डा. प्रणव पण्डया
2. जीवात्मा जगत् के नियम - रवोरशेद भावनगरी
(The laws of the spirit world)
3. अन्तःजगत् का ज्ञान-विज्ञान - डा. प्रणव पण्डया
4. गुरु गीता - डा. प्रणव पण्डया
5. समाधि के ओपान - एलकेजैण्डर
6. युग-)षि की अन्तवर्देना - श्रीराम शर्मा आचार्य
7. सावित्री कुण्डलिनी तन्त्र (वाड़मय-15) -  श्रीराम शर्मा आचार्य
8. सावित्री कुण्डलिनी तन्त्र (वाड़मय-31) - श्रीराम शर्मा आचार्य
9. पातंजल योगसूत्र योगदर्शन - नन्दलाल दशोरा
10. योगदर्शनम - आचार्य उदयवीर शास्त्री
11. हीलिंग कंरट - नंदन कुमार
12. सतातन धर्म का प्रसाद - आर.के. अग्रवाल
13.   युग-ऋषि का जीवन संघर्ष व हमारी भूमिका - आर.के. अग्रवाल
14. सुन्दर जीवन - माधव पण्डित
15. दिव्य जीवन की ओर - सुखबीर आर्य
16. गायत्री महाविज्ञान (वाड़.मय) - श्री राम शर्मा आचार्य
17. योगी कथामृत - योगानन्द परमहंस
18. श्री अरविन्द अथवा चेतना की साहएिक अभियानसत्प्रेम
19. हमारी वसीयत और विरासत - श्री राम आचार्य ‘आचार्य’
20. साधक संजीवनी - रामसुख दास
21. अखण्ड ज्योति (English & Hindi) - परम पूज्य गुरुदेव
22. अखण्ड ज्ञान गायत्री उपवन - परम पूज्य गुरुदेव
23. योग मंजरी युग निर्माण योजना - परम पूज्य गुरुदेव
24. सत्यदेव संवाद - परम पूज्य गुरुदेव
25. अतरंग जीवन का देवासुर संग्राम - श्रीराम शर्मा
26. आत्मोकर्ष का आधार-ज्ञान (58) - श्रीराम शर्मा
27. आध्यात्मिक दृष्टिकोण और अनंत आत्मबल - श्रीराम शर्मा
28. दो ही संपत्ति दो ही विभूति योग एवं तप - श्रीराम शर्मा

लेखक परिचय & निवेदन-2

आप अपना कार्य प्रसन्न मन से करते रहें। मेरा अपने पाठकों से यही विनम्र अनुरोध है कि मैं अपने जीवन के 24 वर्षों की शोध व अनुभवों को इस पुस्तक के माध्यम से प्रकाशित करने का प्रयास कर रहा हुँ । इस पुस्तक को पढ़ने से पूर्व एक बार अपने इष्ट से प्रार्थना अवश्य करना कि वो इसके माध्यम से अपनी प्रेरणा प्रकाश आप तक पहुचाएँ। मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक के माध्यम से आपको अपनी आध्यात्मिक उन्नति में सहायता अवश्य मिलेगी। पुस्तक को एक पवित्र ग्रन्थ की तरह पढ़ें, मनन करें, प्रार्थना करें व अपने मित्र बन्धुओं तक
 पहुँचाने का प्रयास करें। ज्ञान का वितरण साधना की अनिवार्य आवश्यकता है। कहते हैं तीन  व्यक्ति के ऊपर होते हैं एक ऋषिगण भी होता है ऋषियों ने अपने जीवन की आहुति देकर जो ज्ञान सम्पदा हमें दी है उसको सदा बाँटने का प्रयास करना चाहिए। मेरे गुरुदेव ने कभी अपने साहित्य का कॅापी राइट नहीं रखा क्योंकि यहाँ अपना कुछ भी नहीं है। ऋषियों का दिया हुआ है समाज के लिए है इसको जितना फैलाया जाए वितरित किया जाय उतना अच्छा। इस पुस्तक से आप जो लेना चाहें, जैसे लेना चाहें, लीजिए समाज में अच्छा ज्ञान फैलाइए, परन्तु ईमानदारी के साथ। पुस्तक का संदर्भ (Reference) देंगे तो आपकी आत्मा पर बोझ नहीं रहेगा कि कहीं से कुछ चुराया है।
यदि आपके हृदय में पुस्तक को बाँटने की प्रेरणा हो तो निर्भय होकर बाटें, यदि आप इसके लिए आस्तिक   मदद देना चाहें तो भी आपका स्वागत है। यदि हमसे आधे मूल्य पर लेना चाहें तो भी आपका स्वागत है। यह तो दैव कार्य है, प्रभु कार्य है, इसमें सकोंच कैसा। कई बार विभिन्न मिशनों के लोग कुछ संर्कीणता पाले रहते हैं कि हमें केवल अपने मिशन-गुरुदेव का लिखा ही पढ़ना है, पढ़ाना है, अन्य कुछ नहीं देखना है। परन्तु मुझे लगता है कि यह संर्कीणता व्यक्ति को विकसित नहीं होने देती, महापुरुषों के प्यार से वंचित करती है।
मैंने स्वयं अनेकों संस्थाओं व महापुरुषों को पढ़ा है हरेक से कुछ न कुछ सीखा है, पाया है। अपने हृदय का द्वार खोलिए इसमें सबका प्यार आने दीजिए, सबका प्रकाश आने दीजिए। क्या बच्चा केवल माँ-बाप के प्यार का ही अधिकारी है नहीं दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-चाचा सबका प्यार ही उसका व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनाता है। फिर अध्यात्म क्षेत्र में संर्कीणता क्यों? जब मैं श्री अरविन्द आश्रम पांडिचेरी गया तो ‘माँ की गोद में’ असीम प्यार की अनुभूति हुयी। मैं तो श्री अरविन्द जी का भक्त थाऋ श्री माँ को नहीं जानता था, परन्तु माँ ने इतना प्यार दिया कि जीवन के वो तीन दिन अविस्मरणीय हो गए।
मित्रों विलक्षण समय है, महावतार हो रहा है, देवसत्ताएँ हमें प्रेरणा प्रकाश देने के लिए व्याकुल हैं। कहीं जाने की, भागने की अवश्यकता नहीं है! जहाँ है, जिस स्थिति में हैं, अपने हृदय के कपाट खोल दीजिए। हिमालय की देवसत्ताएँ आपके भीतर शान्ति, आनन्द, प्रकाश, शक्ति भर रही हैं यह अनुभव करिए। पात्रता विकसित कर उसको टिकने दीजिए, उसका सदुपयोग कर जीवन को महान बनाएँ व दूसरों को भी श्रेष्ठ बनाएँ।
भारत की भूमि के मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारें, आश्रम सम्पूर्ण विश्व की साधना स्थली बनने जा रहे हैं। मेरा भारत जाग रहा है, उठ रहा है सम्पूर्ण विश्व को एक नया आलोक प्रदान करने के लिए। प्रभु के इस परम पुनीत कार्य में हम भी भागीदार बनें, अपने जीवन की आहुति दें यही भावना करते हुए इस पुस्तक को लिखा है व यही भाव रखते हुए आप पढ़ें। परमात्मा आपके प्रारब्धों को काटकर आपको साधना के पथ पर चलाएगा यह देवसत्ताओं का आश्वासन है। मैने अपने भाव कलमबद करने का प्रयास किया है सम्भव है इसमें कोई त्रुटि हुई हो। भावावेश में कुछ इधर-उधर हो गया हो तो साधना-मार्ग का पथिक समझकर क्षमा कर देना।
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स्वामी विवेकानन्द की वाणी को जनमानस तक पहुँचाने का मुख्य श्रेय जोशिया जे गुडविन को जाता हैं गुडविन के प्रयत्नों से ही आशुलिपि द्वारा लिखे गए व्याख्यानों के कारण ही स्वामी जी के व्याख्यानों का अमूल्य भंडार हमें प्राप्त हुआ है। वे जन्म से अँगरेज थे। पहले उनकी नियुक्ति की गई थी, पर बाद में वे शिश्यभाव से सब करने लगे। दिसंबर 1895 से 1898 में देह छोड़ने तक उनने यह कार्य किया। वे पूरी तरह वेदांत में डूब गए थे। द्रुतगति से निकली वाणी को लिपिबद्ध करना, गूढ़ संकेतों को समझना यह सब कितनी कुशलतापूर्वक उनके द्वारा किया गय, यह एक विलक्षण इतिहास बन गया है। नवयोर्क  शहर में स्वामी जी को जो शिश्य मिला, उसने उनके ओजस्वी विचारों को शब्दरूप दे जिंदा रखा। हम उनके ऋणी हैं।

लेखक परिचय & निवेदन-1

बचपन से ही मुझे धर्म के मार्ग पर चलने व गरीब लोगों की सहायता करने में रूचि थी। सामान्य परिवार में जन्म लेने के कारण सदा धन का अभाव रहता था। बचपन में भगवान् से कहता, भगवान् मुझे ऐसी नौकरी देना कि मेरा धर्म-कर्म का मार्ग न छूटे व इतना धन हो कि मजबूर लोगों की मुझसे सहायता भी होती रहे। ईश्वर की ड्डपा क्र्पा से मुझे जुलाई 1990 में REC कुरुक्षेत्र में प्राध्यापक ; Lecturer की नौकरी मिल गयी। आस्तिक  निश्चिन्तता के उपरान्त मेरी आध्यात्मिक उन्नति की इच्छा बढ़ती गयी। अब तो अपने इष्ट प्रभु श्री राम से यही प्रार्थना करता कि कोई ऐसा गुरु प्राप्त हो जिससे मेरा बेड़ा पार हो जाए, जीवन सफल हो जाए। उन दिनों मैं थोड़ा असमंजस में था बहुत सन्तों के सत्संग प्रवचन सुना करता था। यह नहीं जान पा रहा था कि किनको गुरु बनाऊँ। मैं उस समय धार्मिक पुस्तकें पढ़ने में बहुत समय लगाता था। सौभाग्यवश ‘हमारी वसीयत और विरासत’ पुस्तक मुझे मिली और मैं रात को पढ़ते-पढ़ते सो गया। रात्रि में लगभग दो बजे सोते हुए स्वप्न में श्रीराम शर्मा आचार्य जी के प्रकाश स्वरूप का दर्शन हुआ। उन्होंने कहा ‘मैं तुम्हारे प्रारब्ध काटने के लिए अपनी तप शक्ति का अंश लगाता रहूँगा, तुम मेरा काम करते रहना’।  मैंने स्वप्न में उनसे पूछा कि मुझे कैसे पता चलेगा कि आप मुझसे क्या कराना चाहते हो? उत्तर मिला अपने अन्दर की आवाज को सुनना वैसी-वैसी भावना तुम्हारे भीतर बनती रहेंगी जो मैं तुमसे कराना चाहूँगा। मेरे नेत्र खुल गए व मैंने अपने भीतर एक नयी शक्ति, ज्योति, आचार्य जी के प्रति समर्पण व उनका काम करने की इच्छा महसूस की। प्रातःकाल होते ही गायत्री कार्यालय जाकर समयदान नोट करवाया।
अब मुझे यह स्पष्ट होने लगा था कि आचार्य जी मेरे गुरु हैं इससे पूर्व मैं  रामड्डष्ण परमहंस जी को अपना गुरु मानता था, परन्तु एक मत के अनुसार जीवित गुरु होना चाहिए ऐसा मेरे मन में सन्देह था। कुछ समय पश्चात् मुझे पता चला कि आचार्य जी के पहले तीन जन्म स्वामी रामड्डष्ण परमहंस, समर्थ गुरु रामदास व सन्त कबीर के रूप में हुए हैं, तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने सम्पूर्ण भाव चेतना से आचार्य जी को समर्पण कर दिया। यद्यपि मेरी प्राणदीक्षा उस स्वप्न के माध्यम से हो चुकी थी फिर भी जून 1992 में शपथ समारोह में विधिवत दीक्षा ली। अब जगह-जगह झोला पुस्तकालय व ज्ञानरथ चलाना एवं यज्ञ कराना मुझे बड़ा सन्तोष देता था। अब तो मेरे मन में एक ही बात थी हनुमान जी ने श्री राम की सेवा की थी मुझे भी जो यह अवसर मिला है गवाऊँ नहीं पूरे तन मन धन से सेवा करता रहँ। नौकरी इस कार्य में बाधा प्रतीत होती थी अतः कई बार छोड़ने का असफल प्रयास किया। परिवार व समाज के लोग विवाह के लिए जोर देते थे परन्तु प्रभु कार्य में इतना आनन्द आता था कि इस बन्धन में बंधना नहीं चाहता था। शान्तिकुँज आने से भी डरता था कि कहीं कोई माता जी से कहकर जबरदस्ती मेरा विवाह न करा दे। एक स्वच्छन्द पक्षी की तरह जीवन का सवर्णीय  काल गुजर रहा था।
इधर मेरे माता-पिता जी बहुत बीमार व मेरी ओर से उदास रहते थे। पिता जी लकवा व माता जी नर्वस डिसआर्डस व भंयकर डिप्रेशन से पीडि़त थी। उनका दुःख मुझसे देखा नहीं गया व मैंने अप्रैल 1998 में विवाह करा लिया। विवाह के पश्चात् मेरे परिवार वाले बहुत प्रसन्न हुए। मेरी पत्नी माता-पिता की सेवा व साधना आदि में रुचि लेती थी, परन्तु घर की ओर मेरी उदासीनता से रूष्ट रहती थी। धीरे-धीरे मैंने गायत्री परिवार के कार्यक्रमों में दौड़ना कम कर दिया, परन्तु मेरा तीन चार घण्टे का स्वाध्याय का प्रतिदिन का क्रम जारी रहा। इंजीनियरिंग कालेज से ही मुझे सात आठ घण्टे प्रतिदिन पढ़ने का अभ्यास था। कोई भी मोटी रुचिकर पुस्तक मैं दो या तीन दिन में पढ़ लेता था। ‘हमारी वसीयत और विरासत’ व ‘योगी कथामृत’ जैसी पुस्तकें मैंने अनेक बार पढ़ी।
सन् 2000 के पश्चात् मुझे लेखन में रुचि जागी। मुझे जो भी जहाँ से अच्छा लगता अथवा ध्यान में जो भाव आते डायरियों में लिखता रहता। धीरे-धीरे करके आठ दस प्रकार की डायरियाँ भर गयी। जो मुझसे मिलने आते कहते यह डायरियाँ बहुत प्रेरणाप्रद हैं। मेरे इंजीनियरिंग के विधार्थीयों ने मुझसे उन डायरियों को क्रमवद कर पुस्तक के रूप में छपवाने का आग्रह किया। अपने एक प्रियविधार्थी का आग्रह मैं टाल नही पाया और इस प्रकार पहली पुस्तक ‘सनातन धर्म का प्रसाद’ सन् 2004 में छप गई। तत्पश्चात् मैं अपने Academics
 में व्यस्त हो गया तथा  Ph.d में प्रवेश ले लिया। मेरा  Ph.d का कार्य सन् 2012 में पूरे जोरों पर था कि मेरी पुस्तक किसी परिव्राजक के द्वारा बंगाल-भूटान के सीमावर्ती (border) जयगाँव में श्री अरविन्द प्रसाद को मिली। उन्होंने मुझसे 200 पुस्तकें भेजने के लिए आग्रह किया, इस कारण मुझे उसके पुनः प्रकाशन के बारे में सोचना पड़ा। 15 दिसम्बर 2012 को  Ph.d  का कार्य जमा कर राहत की साँस नहीं ले पाया कि पुस्तक के पुनः प्रकाशन में जुटना पड़ा व बसन्त पंचमी 2013 में ‘सनातन धर्म का प्रसाद’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुई।
परन्तु इन दबावों ने मेरे स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित किया व मुझे आराम करने के लिए विवश किया। मैं कालेज के शोध कार्य व अन्य सामाजिक कार्यों से बचकर घर में अधिक समय व्यतीत करने लगा। अचानक मेरा लेखन एक नई दिशा में चला और मेरी दूसरी पुस्तक ‘युगऋषि का जीवन संघर्ष और हमारी भूमिका’ मात्र सात-आठ माह में तैयार हो गयी। पुस्तक की प्रतिक्रिया बड़े पैमाने पर हुयी। बहुत लोगों ने सराहा परन्तु कुछ ने मुँह भी बनाया। अपनी आदत अनुसार मैंने गुरुदेव से पूछा ऐसा क्यों होता है- उत्तर मिला
"जाकी रहे भावना जैसी, तिसको मिले प्रेरणा वैसी"

त्रैलंग स्वामी

     300 वर्ष तक जीवित रहे। एक निर्वस्त्र बाबा के चमत्कारों को देख काशी में आए तीर्थ यात्री एवं वहाँ की जनता आश्रय चकित हो जाती थी। इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने कई बार विष पिया परन्तु इनके शरीर के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 300 पौंड के ;लगभग 140 किलोद्ध वजन के ये विशाल शरीरधारी योगी कभी-कभार ही कुछ खाया करते थे। इनका शरीर बहुत विशाल था कई बार गंगा के ऊपर बैठे रहते और कई-कई दिन के लिए गंगा नदी के अन्दर रहते। गर्मी के दिनों में भी दिन के समय कड़ी धूप पर मणिक£णका घाट की कड़ी शिलाओं पर बैठे रहते थे। एक योगी का शरीर भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी एवं प्रड्डति के बन्धनों से पूर्णतः मुक्त हो सकता है इनका जीवन इसका साक्षात प्रमाण था। इनके वास्तविक जन्म के विषय में अधिक जानकारी नहीं है। वाराणसी में ये 1737-1887 तक रहे, इससे पूर्व इन्होंने नेपाल के जंगलों में 100-125 वर्ष कठिन साधना की। स्वामी रामड्डष्ण परमहंस जी भी काशी में उनसे मिले और उनको चलते-फिरते काशी के शिव ;ॅंसापदह ैीपअं व िज्ञंेीपद्ध की संज्ञा दी।
     त्रैलंग स्वामी सदा मौन धारण किये रहते थे। निराहार रहने के बाद भक्त यदि कोई पेय पदार्थ लाते तो उसे ही गृहण कर अपना उपवास तोड़ते थे। एक बार एक नास्तिक ने एक बाल्टी चूना घोलकर स्वामी जी के सामने रख दिया और उसे गाढ़ा दही बताया। स्वामी जी ने तो उसे पी लिया किन्तु कुछ ही देर बाद नास्तिक व्यक्ति पीड़ा से छटपटाने लगा और स्वामी जी से अपने प्राणों की रक्षा की भीख मांगने लगा। त्रैलंग स्वामी ने अपना मौन भंग करते हुए कहा कि तुमने मुझे विष पीने के लिये दिया, तब तुमने नहीं जाना कि तुम्हारा जीवन मेरे जीवन के साथ एकाकार है। यदि मैं यह नहीं जानता होता कि मेरे पेट में उसी तरह ईश्वर विराजमान है जिस तरह वह विश्व के अणु-परमाणु में है तब तो चूने के घोल ने मुझे मार ही डाला होता। अतः फिर कभी किसी के साथ चालाकी करने की कोशिश मत करना। त्रैलंग स्वामी के इन शब्दांे के साथ ही वह नास्तिक कष्ट मुक्त हो गया।
     एक बार परमहंस योगानन्द के मामा ने उन्हें बनारस के घाट पर भक्तों की भीड़ के बीच बैठे देखा। वे किसी प्रकार मार्ग बनाकर स्वामी जी के निकट पहुँच गये और भक्तिपूर्ण उनका चरण स्पर्श किया। उन्हें यह जानकर महान् आश्चर्य हुआ कि स्वामी जी का चरण स्पर्श करने मात्र से वे अत्यन्त कष्टदायक जीर्ण रोग से मुक्ति पा गये। काशी में गंगा के एक ओर अंग्रजों का राज्य था और दूसरी ओर भारतीय राजाओं का राज्य था। स्वामी जी निर्वस्त्र गंगा नदी के दोनों और बेरोक-टोक घूमा करते थे जिससे गंगादर्शन करने आए टप्च् लोगों को परेशानी होती थी एक बार कुछ अंग्रेज पंचगंगा घाट पर कुछ महिलाओं के साथ टहलने आए। त्रैलंग स्वामी को देख बड़े क्रोधित हुए एवं जिलाधीश को कहकर कारागार में बंद करवा दिया। कुछ देर पश्चात् उन अंग्रेजों को स्वामी जी पुनः बाहर घूमते दिखाई दिए। जिलाधीश सिपाही की लापरवाही से नाराज होकर स्वयं जेल का निरीक्षण करने गए। जिलाधीश ने सोचा कि हिन्दू सिपाहियों ने साधुओं को जेल से बाहर निकाल दिया व उनसे झूठ बोल रहे हैं। स्वामी जी पुनः हवालात में बन्द कर दिए गए व कड़ा पहरा लगा दिया गया। जिलाधीश महोदय उस दिन अपने कमरे में एक मुकदमे की बहस को सुन रहे थे कि अचानक उन्होंने देखा कि कमरे के एक कोने से स्वामी जी निकल कर उनके सामने खड़े है। उसे हक्का-बक्का देखकर स्वामी जी ने कहा- पश्चिम के नास्तिक भारतीय योगियों के बारे में जानते ही कितना है? तुम लोगों में इतनी शक्ति नहीं है कि मुझे बन्द करके रख सको। भविष्य में किसी सन्त के साथ ऐसा व्यवहार मत करना वर्ना उसके कोप से बच नहीं सकोगे।स्वामी जी को देखकर एवं चेतावनी सुनकर जिलाधीश महोदय बेहोश हो गए चारों तरफ तहलका मच गया व स्वामी जी अन्तर्धान हो गए। होश में आने के बाद उन्होंने फैसला दिया कि काशी में साधु, सन्त, तपस्वी, योगी कहीं भी किसी भी रूप में रहने को स्वतन्त्र हैं उनके साथ शासन की ओर से किसी प्रकार की छेड़छाड़ न की जाए। 
     स्वामी जी के ड्डपा से बहुत लोग रोगों एवं कष्टों से मुक्ति पाते थे। अम्बालिका नामक एक महिला स्वामी जी को साक्षात् विश्वनाथ बाबा समझ कर फल-फूल अ£पत करती थी। उसकी एक ही बेटी थी-शंकरी। माँ की भक्ति देखकर वह भी बाबा के प्रति असीम श्र(ा रखती थी। इन्हीं दिनों काशी में चेचक फैला व शंकरी इस रोग की चपेट में आकर मौत की ओर बढ़ने लगी। शंकरी की आवाज बंद हो चुकी थी माँ ने सोचा अब यह नहीं बचेगी एवं अपनी बेटी के सिरहाने बैठ कर रोने लगी। कुछ समय पश्चात् शंकरी बोली-माँ तुम क्यों रो रही हो?“ बेटी की आवाज सुन माँ चैंकी व आँसू पोंछते हुए बोली-तेरी दयनीय स्थिति से मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है पता नहीं क्यों स्वामी जी भी ड्डपा नहीं कर रहे है कितने ही लोगों पर उन्होंने ड्डपा की है पर मैं बड़ी ही अभागिन हँूलड़की ने चकित भाव से कहा-नहीं माँ स्वामी जी तुम्हारे पास ही खड़े हैं देखो।माँ ने चारों ओर देखा पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया। उसने सोचा लड़की का मस्तिक फिर गया है वह बोली-कहाँ है स्वामी जी?“ माँ कह बातें सुनकर शंकरी ने माँ का हाथ पकड़कर स्वामी जी के चरणों में लगा दिया। तब उन्हें त्रैलंग स्वामी के साक्षात् दर्शन हुए व स्वामी जी ने आश्वासन दिया, ”घबराओं नहीं बेटी शंकरी शीघ्र स्वस्थ हो जाएगी।कुछ दिनों पश्चात् शंकरी पूर्ण रूप से ठीक हो गई। इस घटना ने माँ बेटी के जीवन में बहुत परिवर्तन ला दिया एवं शंकरी बड़े हो कर साधना के सोपानों को चढ़ कर सि( अवस्था तक पहुँच गई। योगानन्द परमहंस शंकरी माई के विषय में अपनी प्रिय पुस्तक में लिखते हैं- इस ब्रह्मचारिणी का जन्म 1826 में हुआ था वे 40 वर्षों तक बद्रीनाथ, केदारनाथ, पशुपति नाथ, अमरनाथ के पास हिमालय की अनेक गुफाओं में रही। अब उनकी उम्र 100 वर्ष से अधिक है परन्तु दिखने में वृ(ा नहीं लगती। उनके केश पूर्णतः काले हैं दाँत चमक दार हैं और उनमें गजब की फू£त है। वे कुम्भ जैसे धा£मक मेलों में शामिल होने के लिए कभी-कभी एकान्तवास से बाहर आती हैं। यह महिला तपस्विनी प्रायः लाहिड़ी महाश्य के पास आया करती थी। उन्होनें बताया कि एक बार वे कोलकाता के निकट बैरकपुर स्थान पर लाहिड़ी महाश्य के पास बैठी थी, तब लाहिड़ी महाश्य के गुरु बाबा जी उस कमरे में आए और दोनों के साथ वार्तालाप किया। वे स्मरण कर बताती हैं -अमर गुरुदेव ;बाबा जीद्ध एक गीला वस्त्र पहने हुए थे जैसे वे नदी में स्नान करके बाहर आए हों।उन्होनें मुझपर कुछ आध्यात्मिक उपदेशों की ड्डपा भी की। कुम्भ मेला हरिद्वार सन् 1938 में इनका आगमन हुआ इस समय इनकी आयु 112 वर्ष की थी।
     स्वामी जी का जन्म सन् 1607 ई. में आन्ध्र प्रदेश के विशाखापटटनम् के खोलिया नामक गाँव में हुआ था बचपन में इनके दो नाम रखे गए। शिवराम एवं त्रैलंगधर उम्र बढ़ने के साथ-साथ इनमें पूजा-पाठ एवं ध्यान साधनाओं में रूचि बढ़ती गई। अक्सर ये समीप के बाग में पीपल के नीचे आँख बंद किए ध्यान लगाते थे एवं इनके आस-पास एक साँप घूमता था। जिससे इनके समीप जाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता था लोगों को ये विश्वास होने लगा था शिवराम के रूप में घर में किसी सि( पुरुष ने जन्म लिया है। विवाह के लिए इन्होंने अपने परिवार वालों को स्पष्ट रूप से मना कर दिया कि उन्हें यह सब झंझट पसन्द नहीं। माँ के निधन के पश्चात् इनके स्वभाव में विचित्र परिवर्तन आया। शमशान के जिस स्थान पर माँ की क्रिया हुई थी ये वहीं रहने लगे। परिवार वालों के समझाने पर भी वापिस नहीं आए। परिवार वालों ने इनके लिए वहीं एक कुटिया बनवा दी एवं ये वहीं साधना करते रहे। लगभग 70 वर्ष की उम्र में भागीरथ नाम एक योगीराज इनके पास आए एवं इनको अपने साथ भ्रमण के लिए ले गए। अब इनका नाम दीक्षा के पश्चात् गजानन्द सरस्वती हुआ व साधना के द्वारा इनको )(ियाँ-सि(ियाँ प्राप्त हुई। ये जहाँ भी जातेऋ द्रवित हृदय से लोगों को मुसीबतों से निकाल देते! इससे इनकी प्रसि(ि बढ़ती जाती। अनेक लोग इनके पीछे हो लिए जिससे इनकी साधना में विघ्न पड़ने लगा। अब इन्होंने निश्चय किया ऐसी जगह जाकर साधना करेंगे जहाँ कोई परिचित न मिले विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए स्वामी जी नेपाल चले आए और बस्ती से दूर एक स्थान पर साधना करने लगे। बहुत वर्षों तक आपने यहाँ कठोर साधना की। यहाँ भी एक ऐसी घटना घटी जिससे आप की प्रसि(ि पूरे नेपाल में फैल गई।
     नेपाल नरेश को शेर के शिकार का शौक था। शेर का पीछा करते-करते उस स्थान पर चले आए जहाँ स्वामी जी साधनारत थे। गोली चलाने पर निशाना चूक गया। ध्यान से देखने पर पता चला कि शेर स्वामी जी के पैरों के पास शान्ति पूर्वक बैठा हुआ है व स्वामी जी उसके शरीर पर हाथ फेर रहे हैं। नेपाल नरेश व सैनिकों को नजदीक आता देख शेर गुर्राने लगा। स्वामी जी ने शान्त भाव से कहा- इससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है यह शेर यहाँ से तब तक नहीं उठेगा जब तक मैं इसे आज्ञा न दूँ। जब आप किसी को प्राण दे नहीं सकते तो लेने का अधिकार भी नहीं ह,ै हिंसा करना उचित नहीं है, आप वापिस चले जाओ राजन्। शेर जंगल में अपनी जगह वापिस चला गया व नेपाल नरेश अपने महल में। परन्तु नेपाल नरेश की रात की नींद हराम हो गई। उनकी आँखों के सामने वही दृश्य घूमता रहा कि उनके राज्य में एक सन्त ऐसा भी है जिसके पास जंगली शेर पालतू बिल्ली की तरह बैठा रहता है। दूसरे दिन प्रातःकाल ही अनेक उपहार लेकर वे स्वामी जी की सेवा में हाजिर हुए। स्वामी जी ने मुस्करा कर कहा- राजन् मैं आपकी भक्ति से प्रसन्न हँू परन्तु फकीर होने के कारण मुझे इनकी आवश्यकता नहीं है यह सामग्री गरीब व जरूरतमंद लोगों में बाँट दो। इससे आपका व आपके राज्य का कल्याण होगा। धीरे-धीरे ये समाचार आस-पास व चारों ओर फैल गया और इनके पास रोगी, स्वार्थी लोगों की भीड़ आने लगी। तत्पश्चात् आपको वह स्थान छोड़ना पड़ा एवं आप तिब्बत की ओर चल पड़े। काफी वर्षों तक आपने तिब्बत एवं मानसरोवर में योगाभ्यास किया अपनी साधना पूर्ण करने के उपरान्त आप फिर से यात्रा के लिए निकल पड़े। कुछ वर्ष प्रयाग रहने के पश्चात् आप काशी नगरी में आ गए। इस समय काशी औरंगजेब के अत्याचारों से त्रस्त थी विश्वनाथ मन्दिर ध्वस्त कर दिया था और नगर की जनता आतंकित और संकटों से घिरी थी।

     यहीं रहकर आपने अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से लोगों की साधना की ओर प्रेरित किया। कहते हैं सन् 1870 में दयानन्द सरस्वती जी भी काशी आए थे एवं आर्य समाज की स्थापना की। त्रैलंग स्वामी जी ने निकट कुछ भक्त लोग आए व उन्होंने सनातन धर्म के विरु( होने वाले भाषणों के साथ अपनी यथा का उल्लेख किया। सारी बातें सुनने के बाद त्रैलंग स्वामी ने एक कागज पर कुछ लिखा व दयानन्द सरस्वती जी के पास भिजवा दिया। कहा जाता है उस पत्र को पाते ही दयानन्द जी काशी छोड़ कर अनयत्र चले गए। त्रैलंग स्वामी जी के कई शिष्यों ने उनकी अनेक विभूतियों का जिक्र किया है जिनका विवरण देना सम्भव नहीं है। अचानक एक दिन काशी के नागरिक एक मा£मक समाचार सुनकर स्तब्ध रह गए है। त्रैलंग स्वामी जी समाधी लेने वाले हैं ये समाचार नगर में एक छोर से दूसरे की ओर फैल गया जो जहाँ था पंचगंगा घाट की ओर आने लगा सन् 1887 को पौष शुक्ल एकादशी के दिन पूर्ण चेतन अवस्था में स्वामी जी समाधिस्थ हो गए एवं नश्वर शरीर त्याग दिया। बाबा के शरीर को एक सन्दूक में रख कर एक नि£दष्ट स्थान पर गंगा गर्भ में विस£जत कर दिया गया। घाट किनारे खड़ी जनता अपने अश्रुओं से उन्हें भाव-भरी विदाई देती रही। आज भी पंचगंगा घाट पर स्वामी जी की भव्य मू£त व आश्रम श्र(ालु जनता को आक£षत करता है एवं योग साधना के पथ पर चलकर जीवन को धन्य बनाने की प्रेरणा देता है।

shri Raman

coming soon

Brief biography of Acharayaji-3

Acharayaj
  भारत की विशेषता ऋषि परंपरा रही है। ऋषि दृष्टा कहे गये हैं। वे समय की समस्याओं और उनके समाधानों को अपने मर्म चक्षुओं से देखकर उन्हें जन-जन के लिए सुलभ बना सकते हैं। उन्होंने जनजीवन को ईश्वरीय योजना और शक्ति प्रवाह से जोड़ने का ऋषिकर्म पूरी निपुणता के साथ सम्पन्न किया।
युगशक्ति, युगदेवता-
अपने अंतिम चरण में वे युगशक्ति और युगदेवता, महाकाल, सदाशिव की चेतना के प्रतिरूप बन गये। सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान उन्होंने ऐसी घोषणाएँ की, जिन्हें नियंता स्तर का व्यक्ति ही कर सकता है। जब उन्होंने उनकी घोषणा की, तब वे असंभव सी दिखती थी, किंतु समय के साथ वे यथावत घटित होती दिखाई दीं। अमेरिका और रूस दो महाशक्तियाँ उन्मत्त होकर परस्पर टकराने की स्थिति में थीं। टक्कर का अर्थ होता महाविनाश। तब उन्होंने कहा, "यह तनी हुई बंदूकें नीची होंगी, पीछे हट-पीछे हट के कर्कश स्वर थमेंगे और शांति के साथ विचार विमर्श द्वारा नये रास्ते खोजे जायेंगे।"  वही हुआ, दोनों महाशक्तियों के विन्लवी तेवर शांत हुए और सहयोग-सहकार के रास्ते खुले। एक बार मंच से बोल उठे, "बड़ी शक्तियाँ कौन होती है? अध्यात्म द्वारा टक्कर मारकर उन्हें भी सीधा किया जा सकता है। वैज्ञानिक ही विनाश के प्रयोगों को नकार देंगे तो समर्थ राष्ट्र क्या करेंगे?"
विनाश के स्थान पर नवसृजन की बात पर प्रश्न उठा कि यह कैसे होगा? तो तमक कर बोले, "मैं कहता हूँ । इसलिये होगा।" स्पष्ट है कि वे उस समय युगदेवता, नियंता की चेतना के रूप में सक्रिय थे। सूक्ष्मीकरण साधना के बाद जब उनका मिलना-जुलना बहुत सीमित रह गया था, तब उन्होंने एक नैष्ठिक कार्यकत्र्ता से कहा था, "अब माताजी से मिलने का अर्थ है मुझसे ;गुरुद्ध से मिलना और मुझसे मिलने का अर्थ है गायत्री माता से मिलना।" यह भी कहा था कि, "गुरु को मैंने वहाँ ;समाधि स्थलद्ध पर स्थापित कर दिया है। अब मैं केवल मिशन ;ईश्वरीय योजना का संवाहकद्ध हूँ।"
काया छोड़ने के पहले उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि लगभग 10 से 15 वर्ष सूक्ष्म स्तर पर रहकर मैं कारण स्तर पर चला जाऊँगा। जो जहाँ पुकारेगा, वहाँ हम समीप अनुभव होते और समर्थ सहयोग करते अनुभव होंगे। महात्मा आनंद स्वामी ;प्रख्यात् आर्य समाजीद्ध उन्हें मू£तमान गायत्री और शिव रूप में ही देखते थे। इसलिए उम्र में बड़े और वेश से सन्यासी होते हुए भी उन्हें श्र(ा पूर्वक प्रणाम करते थे। अब वे सूक्ष्म से कारण स्तर पर पहुँच चुके हैं। वे निराकर, ऊँकार, सदाशिव रूप में अवस्थित हैं। भगवान श्रीड्डष्ण की तरह उनका भी आश्वासन हैं कि जो साधक जिस भाव से नमन करता है, उसकी सेवा-सहायता वे उसी रूप में कर देते हैं।