क्रमशः विकसित हुई भूमिकाएँ
गुरुदेव के जीवन में पात्रता विकास का क्रम चलता रहा और क्रमशः उच्चस्तरीय ऊर्जा प्रवाह उनके माध्यम से प्रकट-प्रभावी होते चले गये। साधना और तपश्चर्या तो उनके जीवन की सहचरी हमेशा रही। वे क्रमशः सैनिक, मनीषी, आचार्य, )षि की कक्षाओं को सफलता पूर्वक पार करते हुए अन्ततः महाकाल, युग प्रवर्तक सदाशिव की भूमिका में पहुँच गये। शरीर रहते ही उनकी अन्तिम भूमिका प्रारम्भ हो गयी थी। स्थूल काया छोड़कर सूक्ष्म और कारण शरीर में विकसित होकर उन्होंने अपनी भूमिका को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर-श्रेष्ठतम स्थिति तक ले जाने का उपक्रम अपनाया है। एक दृष्टि उनके चेतनात्मक विकास के क्रम पर डालें।
विनम्र, तेजस्वी, सेवाभावी साधकः-
उनका यह रूप किशोर अवस्था में ही उभर आया था। इसी कारण वे सबके प्रिय और सबके हितकारी बनकर सबका स्न्नोह-सम्मान प्राप्त करते रहे। कठिन पुरश्चरणों के साथ ही वे स्वतंत्रता सैनिक की भूमिका भी बखूबी निभाते रहे। आगरा जिले में लगानबन्दी के क्रम में उनके तैयार आँकड़ों को राष्ट्रीय नेताओं ने सराहा और उन्हें ब्रिटिश कौंसिल के सामने प्रस्तुत किया गया। इसी बीच बाबू गुलाब राय ;बी. ए.द्धतथा सैनिक कार्यालय के साथ जुड़कर उन्होंने अपनी साहित्य सृजन और सम्पादन की क्षमता को निखार लिया। इसी साधना के बल पर नहीं के बराबर साधनों के साथ उन्होंने ‘अखण्ड-ज्योति’ जैसी अनुपम पत्रिका को प्रकाशित किया।
मनीषी और आचार्यः-
उसके बाद उनकी अगली भूमिका प्रारंभ हो गयी। मनीषी के रूप में उन्होंने अपने समय ही हर छोटी-बड़ी समस्या के समाधान तथा प्रगति के हर मार्ग को प्रशस्त करने वाले सशक्त विचारयुक्त साहित्य का सृजन किया दैहिक, दैविक, भौतिक तापों-रोगों की सुविचार रूप औषधियाँ तथा दैहिक, मानसिक एवं आत्मिक उन्नाति के अमृत विचार सूत्र उन्होंने दिए। यही नहीं, उन सूत्रों को अपने आचरण से सिख करके सच्चे आचार्य के रूप में जन-जन का मार्गदर्शन किया। इसी नाते वे तपोनिष्ठ और वेदमू£त कहलाये। तप को विकास का अनिवार्य अंग मानते हुए वे लिखते हैं-
”तपश्चर्या के मौलिक सि(ांत हैं-संयम और सदुपयोग। इन्द्रिय संयम से, पेट ठीक रहने से स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता। ब्रह्मचर्य पालन से मनोबल का भंडार चुकने नहीं पाता। अर्थ संयम से, नीति की कमाई से औसत भारतीय स्तर का निर्वाह हो जाता है, फलतः न दरिद्रता पास फटकती है और न बेईमानी की आवश्यकता पड़ती है। समय संयम से व्यस्त दिनचर्या बनाकर चलना पड़ता है, कुकर्मों के लिए समय ही नहीं बचता, जो बन पड़ता है वह श्रेष्ठ और सार्थक ही होता है। विचार संयम से एकात्मता सधती है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का दृष्टिकोण विकसित होता है। भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की साधना सहज सधती है।" हमारी वसीयत और विरासतद्ध
मनीषी और आचार्यरूप में उन्होंने जीवन विज्ञान, जीवन साधना, जीवन जीने की कला के सहज सूत्र सभी के लिए उपलब्ध करा दिए हैं। यदि हम उनके इस स्वरूप को समझ पायें, उसका सही मूल्यांकन कर पाये तो उनकी जय-जयकार तक ही सीमित न रहकर उनके मनीषी के सूत्रों और आचार्य जीवन का अनुगमन करके अपने व्यक्तित्व को भी उच्चस्तरीय चेतन प्रवाह का माध्यम बना सकते है। युगऋषि आचार्य से आगे बढ़कर वे ऋषि की भूमिका में पहुँच गये। ऋषियों की परिपाटी जो विलुप्त या विखड़ित हो गयी थी, उसे उन्होंने नये संदर्भ में युगानुरूप संस्कारित स्वरूप प्रदान किया। अनेक ऋषियों की परिपाटी को उन्होंने परिष्ड्डत और जीवंत बनाया।
लुप्तप्राय गायत्री विद्या को नवीन रूप देने के नाते ‘विश्वमित्र’ की भूमिका पूरी की। साधना के विशिष्ट प्रयोगों को साधकर उन्होंने जनजीवन के अनुकूल बनाकर ‘युग वशिष्ठ’ कहलाये। यज्ञीय विज्ञान को अग्निहोत्र एवं जीवन यज्ञ के रूप में पुनः स्थापित करने से ‘युग याज्ञवल्क्य’ की उपाधि पायी। सभी आर्ष ग्रंथों ;वेद, उपनिषद्, दर्शन आदिद्ध के जनसुलभ संस्करण तथा प्रज्ञापुराण, प्रज्ञोपनिषद् की रचना करके ‘युग व्यास’ की भूमिका निभाई। अध्यात्म को विज्ञान के साथ जोड़कर अथर्वण व कणाद ऋषि की परंपरा को जाग्रत् किया। युग प्रज्ञा का प्रवाह भूतल पर प्रवाहित करके ‘युग भगीरथ’ की भूमिका निभाई। वनौषधि विज्ञान को जन सुलभ बनाकर ‘चरक परंपरा’ को पुनर्जीवित किया। भ्रष्ट विचारों का उच्छेदन ज्ञान परशु से करके युग के ‘परशुराम’ की भूमिका को पूरा किया। बुराई के धर्म चक्र परिवर्तन और आदि शंकराचार्य के संस्कीरती संस्ड्डति दिग्विजय अभियान को नया रूप दिया।
गुरुदेव के जीवन में पात्रता विकास का क्रम चलता रहा और क्रमशः उच्चस्तरीय ऊर्जा प्रवाह उनके माध्यम से प्रकट-प्रभावी होते चले गये। साधना और तपश्चर्या तो उनके जीवन की सहचरी हमेशा रही। वे क्रमशः सैनिक, मनीषी, आचार्य, )षि की कक्षाओं को सफलता पूर्वक पार करते हुए अन्ततः महाकाल, युग प्रवर्तक सदाशिव की भूमिका में पहुँच गये। शरीर रहते ही उनकी अन्तिम भूमिका प्रारम्भ हो गयी थी। स्थूल काया छोड़कर सूक्ष्म और कारण शरीर में विकसित होकर उन्होंने अपनी भूमिका को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर-श्रेष्ठतम स्थिति तक ले जाने का उपक्रम अपनाया है। एक दृष्टि उनके चेतनात्मक विकास के क्रम पर डालें।
विनम्र, तेजस्वी, सेवाभावी साधकः-
उनका यह रूप किशोर अवस्था में ही उभर आया था। इसी कारण वे सबके प्रिय और सबके हितकारी बनकर सबका स्न्नोह-सम्मान प्राप्त करते रहे। कठिन पुरश्चरणों के साथ ही वे स्वतंत्रता सैनिक की भूमिका भी बखूबी निभाते रहे। आगरा जिले में लगानबन्दी के क्रम में उनके तैयार आँकड़ों को राष्ट्रीय नेताओं ने सराहा और उन्हें ब्रिटिश कौंसिल के सामने प्रस्तुत किया गया। इसी बीच बाबू गुलाब राय ;बी. ए.द्धतथा सैनिक कार्यालय के साथ जुड़कर उन्होंने अपनी साहित्य सृजन और सम्पादन की क्षमता को निखार लिया। इसी साधना के बल पर नहीं के बराबर साधनों के साथ उन्होंने ‘अखण्ड-ज्योति’ जैसी अनुपम पत्रिका को प्रकाशित किया।
मनीषी और आचार्यः-
उसके बाद उनकी अगली भूमिका प्रारंभ हो गयी। मनीषी के रूप में उन्होंने अपने समय ही हर छोटी-बड़ी समस्या के समाधान तथा प्रगति के हर मार्ग को प्रशस्त करने वाले सशक्त विचारयुक्त साहित्य का सृजन किया दैहिक, दैविक, भौतिक तापों-रोगों की सुविचार रूप औषधियाँ तथा दैहिक, मानसिक एवं आत्मिक उन्नाति के अमृत विचार सूत्र उन्होंने दिए। यही नहीं, उन सूत्रों को अपने आचरण से सिख करके सच्चे आचार्य के रूप में जन-जन का मार्गदर्शन किया। इसी नाते वे तपोनिष्ठ और वेदमू£त कहलाये। तप को विकास का अनिवार्य अंग मानते हुए वे लिखते हैं-
”तपश्चर्या के मौलिक सि(ांत हैं-संयम और सदुपयोग। इन्द्रिय संयम से, पेट ठीक रहने से स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता। ब्रह्मचर्य पालन से मनोबल का भंडार चुकने नहीं पाता। अर्थ संयम से, नीति की कमाई से औसत भारतीय स्तर का निर्वाह हो जाता है, फलतः न दरिद्रता पास फटकती है और न बेईमानी की आवश्यकता पड़ती है। समय संयम से व्यस्त दिनचर्या बनाकर चलना पड़ता है, कुकर्मों के लिए समय ही नहीं बचता, जो बन पड़ता है वह श्रेष्ठ और सार्थक ही होता है। विचार संयम से एकात्मता सधती है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का दृष्टिकोण विकसित होता है। भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की साधना सहज सधती है।" हमारी वसीयत और विरासतद्ध
मनीषी और आचार्यरूप में उन्होंने जीवन विज्ञान, जीवन साधना, जीवन जीने की कला के सहज सूत्र सभी के लिए उपलब्ध करा दिए हैं। यदि हम उनके इस स्वरूप को समझ पायें, उसका सही मूल्यांकन कर पाये तो उनकी जय-जयकार तक ही सीमित न रहकर उनके मनीषी के सूत्रों और आचार्य जीवन का अनुगमन करके अपने व्यक्तित्व को भी उच्चस्तरीय चेतन प्रवाह का माध्यम बना सकते है। युगऋषि आचार्य से आगे बढ़कर वे ऋषि की भूमिका में पहुँच गये। ऋषियों की परिपाटी जो विलुप्त या विखड़ित हो गयी थी, उसे उन्होंने नये संदर्भ में युगानुरूप संस्कारित स्वरूप प्रदान किया। अनेक ऋषियों की परिपाटी को उन्होंने परिष्ड्डत और जीवंत बनाया।
लुप्तप्राय गायत्री विद्या को नवीन रूप देने के नाते ‘विश्वमित्र’ की भूमिका पूरी की। साधना के विशिष्ट प्रयोगों को साधकर उन्होंने जनजीवन के अनुकूल बनाकर ‘युग वशिष्ठ’ कहलाये। यज्ञीय विज्ञान को अग्निहोत्र एवं जीवन यज्ञ के रूप में पुनः स्थापित करने से ‘युग याज्ञवल्क्य’ की उपाधि पायी। सभी आर्ष ग्रंथों ;वेद, उपनिषद्, दर्शन आदिद्ध के जनसुलभ संस्करण तथा प्रज्ञापुराण, प्रज्ञोपनिषद् की रचना करके ‘युग व्यास’ की भूमिका निभाई। अध्यात्म को विज्ञान के साथ जोड़कर अथर्वण व कणाद ऋषि की परंपरा को जाग्रत् किया। युग प्रज्ञा का प्रवाह भूतल पर प्रवाहित करके ‘युग भगीरथ’ की भूमिका निभाई। वनौषधि विज्ञान को जन सुलभ बनाकर ‘चरक परंपरा’ को पुनर्जीवित किया। भ्रष्ट विचारों का उच्छेदन ज्ञान परशु से करके युग के ‘परशुराम’ की भूमिका को पूरा किया। बुराई के धर्म चक्र परिवर्तन और आदि शंकराचार्य के संस्कीरती संस्ड्डति दिग्विजय अभियान को नया रूप दिया।
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