जाग्रत आत्माओं विशेषकर अपने युवा अनुजों के साथ अपने कुछ अनुभव बाँटना ( share) करना चाहता हूँ।
जब मैं अपनी दूसरी पुस्तक ‘युगऋषि का जीवन संघर्ष और हमारी भूमिका’ लिख रहा था तो मेरी माता जी को मेरे स्वास्थ्य व मेरे बच्चों की पढ़ाई की बड़ी चिन्ता रहती थी। वो अक्सर टोका करती थी ” राजेश तुम अपने बच्चों की ओर ध्यान नहीं देते, न ही अपने स्वास्थ्य की परवाह करते हो। पता नहीं किन कार्यो में उलझे रहते हो? तुमने अधिक कार्य करके स्वास्थ्य खराब कर लिया। अगर 45 वर्ष की इस आयु में शरीर को कुछ नुकसान हो गया तो बहुत पछताओंगे। बच्चे यदि नहीं पढ़ पाए तो उनका भविष्य खराब हो जाएगा वो जीवन भर उलाहना देंगे।“ मैं माता जी को हमेशा यही आश्वासन देता कि भगवान् हमारे साथ है सब कुछ अच्छा होगा।
जब मेरी पुस्तक प्रकाशित व वितरित हुई तो देश विदेश से पुस्तक की अच्छी प्रतिक्रिया (response) मिली, एक भाई ने कहा "जो मै सोचता हूँ, मिशन को योजनाब्द तरीके से कैसे आगे बढ़ना चाहिए वही सब आपने लिखा है।“ सच तो यह है कि ये विचार व्यक्तिगत किसी के नहीं हो सकते, देवसत्ताएँ सूक्ष्म से दे रही है जो बहुत लोग पकड़ रहे हैं। बड़ी सँख्या में मुझे परिजनों ने साधुवाद दिया। परन्तु कुछ ऐसे भी प्रश्न उठे जिन्होंने मुझे आत्मचिन्तन व जवाब देही को मजबूर किया जैसे कि-
”आपने यह पुस्तक क्यों लिखी?“
”आपको पुस्तक लिखने का अधिकार किसने दिया?“
”हम पहले गुरुदेव की पुस्तकें नहीं पढ़ पाए आपकी पुस्तक कौन पढ़ेगा?“
”पुस्तक उसी की पढ़ी जाती है जो तप करता है। पहले तप करिए फिर लिखिए।“
”पुस्तक इस विषय पर नहीं उस विषय पर लिखी जानी चाहिए थी।“
इस प्रकार के प्रश्नों के लिए मेरे पास एक ही उत्तर है कि पुस्तक मैंने किसी पूर्व योजना से नहीं लिखी। अपने स्वास्थ्य व परिस्थितियों से इतना लाचार हूँ कि पुस्तक लिखने जैसे कमरतोड़ कार्य के बारे कैसे मन बना सकता हूँ। मेरे पास कार्यो की व्यस्तता में इतना समय नहीं होता कि मैं कोई पुस्तक लिखने बढूँ अथवा बहुत पुस्तकें खोलकर पढूँ, समझूँ, मनन करूँ, फिर कुछ नया लिखूँ। कॉलेज की मेरी व्यस्त दिनचर्या, मेरा Hindi Speech Recognition पर शोध कार्य, मेरे सरल स्वभाव के कारण विभिन्न प्रशासनिक कार्यो में भागीदारी, मेरा प्रतिदिन 9 से 5 तक का समय ले जाता है। तत्पश्चात् कॉलेज से घर आने पर बाल-बच्चों के साथ खेल-कूद, पढ़ाई, व अन्य समस्याएँ आदि मुझे कुछ सोचने का अवसर नहीं देते।
बचता है मात्र प्रातः काल का समय। सुबह चार साढ़े चार बजे सर्वाइकल की एक दवा लेनी होती है। फिर जप-ध्यान करने बैठता हूँ। आधा-एक घण्टा जप करने पर लोगों को शान्ति मिलती है परन्तु मुझे बैचेनी प्रारम्भ हो जाती है। कुछ अजीब से भाव मुझे झकझोरते हैं, कभी-कभी गर्मी बहुत बढ़ती है जैसे भीतर कोई आग सुलगा रहा हो। मुझे डायरी कलम लेकर बैठना पड़ता है। जब मैं भीतर के भावों के लिखता हूँ तो वह बैचेनी शान्त होती जाती है। कुछ दिनों पश्चात् लगता है कि ये विचार क्रमबद होकर एक पुस्तक का रूप ले रहे हैं। फिर पुस्तक का नाम ढूँढ़ता हूँ तो एक सुन्दर नाम प्रकाशित हो जाता है।
मात्र डायरी लिखने से पुस्तक नहीं बन जाती। उनकी टाइपिंग (Typing) कम्पयूटर (Computer Setting) व उसी तरह के विचारों को अन्य पुस्तकों से उठाना, यह सब बड़ी मेहनत का कार्य है। गुरुदेव से पूछते हैं कि आप क्या चाहते हो? कैसे यह सब सम्भव होगा? कुछ ही दिनों में एक बहुत ही अच्छा सहयोगी ;श्री विशाल पसरीचा, Assistant Prof., NIT. KKR मेरे पास भेज़ दिया जाता है। उत्साह बढ़ जाता है और यह कार्य बसन्त पंचमी 2013 से गायत्री जयन्ती 2013 तक मात्र चार माह में ;लेखन व टाइपिंगद्ध पूरा हो जाता है। तत्पश्चात् तीन-चार माह छपाई सम्बंधी कार्य setting, editing & printing में लगते हैं। यह सब होता देख मैं खुद हैरान रह जाता हूँ।
ईश्वर की कृपा से मेरे पास दोनों चीजें हैं एक वैज्ञानिक का मस्तिष्क एवं एक भक्त का हृदय। यदि मैं एक वैज्ञानिक के दिमाग से सोचता हूँ तो यह मेरा भ्रम भी हो सकता है। विज्ञान तो प्रमाण माँगता है। प्रमाण की बात सोचते ही ‘हमारी वसीयत और विरासत’ का पृष्ठ 119 मेरे सामने आ जाता है-
”बुद्धि को भगवान् के खेत में बोया और वह असाधारण प्रतिभा बनकर प्रकटी। अभी तक लिखा हुआ साहित्य इतना है कि जिसे शरीर के वजन से तोला जा सके। यह सभी उच्च कोटि का है। आर्षग्रंथो के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा युग की भावी पृष्ठभूमि बनाने वाला ही सब कुछ लिखा गया है। आगे का सन् 2000 तक का हमने अभी लिखकर रख दिया है।“
यह बड़ा स्पष्ट संकेत है कि गुरुदेव सन् 2000 के पश्चात् अपने शिष्यों से लिखवाना चाहते हैं। गुरुदेव ने इन पंक्तियों में लिखा है कि सन् 2000 तक लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है उतना लिख कर छोड़ रखा है। अच्छा साहित्य राष्ट्र का अनमोल धन है ऐसे लेखकों को उभारना प्रोत्साहित करना हर जागरूक व्यक्ति का कर्तव्य है। मात्र आसुरी प्रवृत्ति के अहंकारी लोग ही ऐसे पुणीत कार्यों में रुकावटें डालते हैं। 'Nobody can challenge the divine light coming on earth by some fingers.' युगऋषि ‘श्रीराम’ आचार्य जी एक स्थान पर लिखते हैं- ”अच्छी पुस्तकें जीवन्त देव प्रतिमाएँ है जिनकी अराधना से तत्काल उल्लास व प्रकाश मिलता है।“ इस सूत्र का पालन करते हुए मैं अपने पास कुछ श्रेष्ठ पुस्तकें अवश्य रखता हूँ अपनी निराशा व कठिनाईयों के समय में मैं पुस्तकें टटोलता हूँ अनेक बार ऐसा होता है वहीं पृष्ठ सामने आते हैं जिससे अन्तःकरण में उत्साह व शक्ति भरती है व समस्याओं का समाधान मिलता है सूक्ष्म जगत् की यह विचित्र लीला देख हृदय प्रभु प्रेम से भर जाता है। क्या कोई शक्ति हमारे इतना करीब हो सकती है? हमारे जीवन का रथ हाँक सकती है यह सोच की शरीर में रोमांच हो उठता है यही भाव उठते है कि उस सत्ता को हम और अधिक निकट से अनुभव कर सकें। इतने पवित्र हो जाए कि उससे और गहराई से जुड़ सके।
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