Sunday, February 9, 2014

लेखक परिचय & निवेदन-2

आप अपना कार्य प्रसन्न मन से करते रहें। मेरा अपने पाठकों से यही विनम्र अनुरोध है कि मैं अपने जीवन के 24 वर्षों की शोध व अनुभवों को इस पुस्तक के माध्यम से प्रकाशित करने का प्रयास कर रहा हुँ । इस पुस्तक को पढ़ने से पूर्व एक बार अपने इष्ट से प्रार्थना अवश्य करना कि वो इसके माध्यम से अपनी प्रेरणा प्रकाश आप तक पहुचाएँ। मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक के माध्यम से आपको अपनी आध्यात्मिक उन्नति में सहायता अवश्य मिलेगी। पुस्तक को एक पवित्र ग्रन्थ की तरह पढ़ें, मनन करें, प्रार्थना करें व अपने मित्र बन्धुओं तक
 पहुँचाने का प्रयास करें। ज्ञान का वितरण साधना की अनिवार्य आवश्यकता है। कहते हैं तीन  व्यक्ति के ऊपर होते हैं एक ऋषिगण भी होता है ऋषियों ने अपने जीवन की आहुति देकर जो ज्ञान सम्पदा हमें दी है उसको सदा बाँटने का प्रयास करना चाहिए। मेरे गुरुदेव ने कभी अपने साहित्य का कॅापी राइट नहीं रखा क्योंकि यहाँ अपना कुछ भी नहीं है। ऋषियों का दिया हुआ है समाज के लिए है इसको जितना फैलाया जाए वितरित किया जाय उतना अच्छा। इस पुस्तक से आप जो लेना चाहें, जैसे लेना चाहें, लीजिए समाज में अच्छा ज्ञान फैलाइए, परन्तु ईमानदारी के साथ। पुस्तक का संदर्भ (Reference) देंगे तो आपकी आत्मा पर बोझ नहीं रहेगा कि कहीं से कुछ चुराया है।
यदि आपके हृदय में पुस्तक को बाँटने की प्रेरणा हो तो निर्भय होकर बाटें, यदि आप इसके लिए आस्तिक   मदद देना चाहें तो भी आपका स्वागत है। यदि हमसे आधे मूल्य पर लेना चाहें तो भी आपका स्वागत है। यह तो दैव कार्य है, प्रभु कार्य है, इसमें सकोंच कैसा। कई बार विभिन्न मिशनों के लोग कुछ संर्कीणता पाले रहते हैं कि हमें केवल अपने मिशन-गुरुदेव का लिखा ही पढ़ना है, पढ़ाना है, अन्य कुछ नहीं देखना है। परन्तु मुझे लगता है कि यह संर्कीणता व्यक्ति को विकसित नहीं होने देती, महापुरुषों के प्यार से वंचित करती है।
मैंने स्वयं अनेकों संस्थाओं व महापुरुषों को पढ़ा है हरेक से कुछ न कुछ सीखा है, पाया है। अपने हृदय का द्वार खोलिए इसमें सबका प्यार आने दीजिए, सबका प्रकाश आने दीजिए। क्या बच्चा केवल माँ-बाप के प्यार का ही अधिकारी है नहीं दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-चाचा सबका प्यार ही उसका व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनाता है। फिर अध्यात्म क्षेत्र में संर्कीणता क्यों? जब मैं श्री अरविन्द आश्रम पांडिचेरी गया तो ‘माँ की गोद में’ असीम प्यार की अनुभूति हुयी। मैं तो श्री अरविन्द जी का भक्त थाऋ श्री माँ को नहीं जानता था, परन्तु माँ ने इतना प्यार दिया कि जीवन के वो तीन दिन अविस्मरणीय हो गए।
मित्रों विलक्षण समय है, महावतार हो रहा है, देवसत्ताएँ हमें प्रेरणा प्रकाश देने के लिए व्याकुल हैं। कहीं जाने की, भागने की अवश्यकता नहीं है! जहाँ है, जिस स्थिति में हैं, अपने हृदय के कपाट खोल दीजिए। हिमालय की देवसत्ताएँ आपके भीतर शान्ति, आनन्द, प्रकाश, शक्ति भर रही हैं यह अनुभव करिए। पात्रता विकसित कर उसको टिकने दीजिए, उसका सदुपयोग कर जीवन को महान बनाएँ व दूसरों को भी श्रेष्ठ बनाएँ।
भारत की भूमि के मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारें, आश्रम सम्पूर्ण विश्व की साधना स्थली बनने जा रहे हैं। मेरा भारत जाग रहा है, उठ रहा है सम्पूर्ण विश्व को एक नया आलोक प्रदान करने के लिए। प्रभु के इस परम पुनीत कार्य में हम भी भागीदार बनें, अपने जीवन की आहुति दें यही भावना करते हुए इस पुस्तक को लिखा है व यही भाव रखते हुए आप पढ़ें। परमात्मा आपके प्रारब्धों को काटकर आपको साधना के पथ पर चलाएगा यह देवसत्ताओं का आश्वासन है। मैने अपने भाव कलमबद करने का प्रयास किया है सम्भव है इसमें कोई त्रुटि हुई हो। भावावेश में कुछ इधर-उधर हो गया हो तो साधना-मार्ग का पथिक समझकर क्षमा कर देना।
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स्वामी विवेकानन्द की वाणी को जनमानस तक पहुँचाने का मुख्य श्रेय जोशिया जे गुडविन को जाता हैं गुडविन के प्रयत्नों से ही आशुलिपि द्वारा लिखे गए व्याख्यानों के कारण ही स्वामी जी के व्याख्यानों का अमूल्य भंडार हमें प्राप्त हुआ है। वे जन्म से अँगरेज थे। पहले उनकी नियुक्ति की गई थी, पर बाद में वे शिश्यभाव से सब करने लगे। दिसंबर 1895 से 1898 में देह छोड़ने तक उनने यह कार्य किया। वे पूरी तरह वेदांत में डूब गए थे। द्रुतगति से निकली वाणी को लिपिबद्ध करना, गूढ़ संकेतों को समझना यह सब कितनी कुशलतापूर्वक उनके द्वारा किया गय, यह एक विलक्षण इतिहास बन गया है। नवयोर्क  शहर में स्वामी जी को जो शिश्य मिला, उसने उनके ओजस्वी विचारों को शब्दरूप दे जिंदा रखा। हम उनके ऋणी हैं।

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