Wednesday, February 12, 2014

ऋतुचर्या-ऋ़तु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य

ऋतुचर्या-ऋ़तु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य
            अभी तक हमने उत्तरायण एवं दक्षिणायन में आने वाली छह ऋतुओं में किसी व्यक्ति की जीवनचर्या क्या होनी चाहिए, क्या-क्या दोष संभावित हैं, ऋतु विशेष में वातावरण कैसा होता है- इन पर विचार किया। आयुर्वेद पूर्णतः विज्ञानसम्मत है एवं यह बताता है कि शास्त्रोक्त जीवनपद्धति का पालन किया जाए तो किसी प्रकार के रोगों की संभावना नहीं रहती। अभी ऋतु विशेष के अनुसार आहार की हमने विशेष चर्चा नहीं की है। हाँ, ऋतुसंधि एवं ऋतु हरीतकी पर संक्षिप्त टिप्पणी पिछली बार की है। अब मौसम विशेष के अनुसार त्रिदोषों की स्थिति क्या होती है, इस पर इस समापन किस्त में प्रकाश डालेंगे। पंचकर्म प्रकरण की विस्तार से सद्वृत्त के साथ चर्चा बाद में होगी। वातावरण में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रभाव भिन्न-भिन्न ऋतुओं में होते हैं। आहार भी बदलता रहता है। यही दोषों को प्रभावित करता है। आहार तो हम अपने आप नियंत्रित कर सकते हैं, उपवास आदि से शोधन भी कर सकते हैं, परंतु जो वातावरण के घटक हैं वे सीधे हमारी त्वचा, श्वसन संस्थान, रक्तवाही संस्थान पर प्रभाव डालकर सारे शरीर को प्रभावित करते हैं।
वातावरण का वात पर प्रभाव- तीन प्रकार के प्रभाव वात नामक दोष पर पड़ते हैं और यही बीमारी के हेतु बन जाते हैं। ये हैं वात क्षय, वात प्रकोप एवं वात प्रशमन। क्षय अर्थात एकत्र हो जाना, प्रकोप अर्थात बढ़ जाना एवं प्रशमन अर्थात घट जाना।
वात क्षय- ग्रीष्म ऋतु में जब शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है एवं पाचन क्षमता भी कम हो जाती है, मनुष्य पसीने से भी पानी को गँवाता है एवं शरीर से एक प्रकार से जलतत्त्व (फ्ल्युड एवं इलेक्ट्रोलाइट्स) कम होता चला जाता है। इससे वात एकत्र होता चला जाता है। भोजन में शुष्कता एवं हलकापन भी वात क्षय बढ़ाते हैं, पंरतु ग्रीष्म के प्रभाव से यह इतना अधिक नहीं होता कि वात प्रकुपित हो जाए।
वात प्रकोप- वर्षा ऋतु में पाचनशक्ति एवं सामान्य शक्ति और अधिक कम हो जाती है। गरमी से ठंढक में अचानक परिवर्तन एक ही दिन में कई बार होता है इससे वात एकत्र होकर प्रकोप की दिशा में चला जाता है। आयुर्वेद के निष्णात विद्वान इस तथ्य से परिचित हो उपचार करते हैं।
वात प्रशमन- शरद ऋतु में आद्र्रता एवं गरमी का प्रभाव वातावरण में अधिक होता है। इसलिए शरदकाल में बढ़ा हुआ वात स्वतः घट जाता है एवं सात्मीकरण (होमियोस्टेसिस) की स्थिति आ जाती है।
वातावरण का पित्त पर प्रभाव- पित्त पर भी पित्त क्षय, पित्त प्रकोप एवं पित्त प्रशमन नामक तीन प्रभाव पड़ते है। ये अलग-अलग ऋतु में अलग-अलग प्रभाव डालते हैं इसीलिए आहार, औपधि, जीवनचर्या अलग-अलग रखनी होती है।  
 पित्त क्षय-ग्रीष्म का आतप शरीर मे गरमी का अनुपात बढ़ाकर इसे थका देता है। शरीर की शक्ति एवं पाचनशक्ति वर्षा के आगमन के साथ और भी कम हो जाती है। पानी की शुद्धता भी बरसाती जल के कारण संदिग्ध हो जाती है। स्वाद में परिवर्तन एवं अपच के कारण पित्त एकत्र होने लगता है एवं यह स्थिति पूरे वर्षाकाल व ग्रीष्म की पराकाष्ठा के काल में बनी रहती है। यदि वातावरण में ठंढक रहे तो पित्त क्षय नहीं होता।
पित्त प्रकोप- यह स्थिति शरदकाल में आती है, जब वर्षा के तुरंत बाद गरमी का प्रभाव तीव्रतम स्थिति में कुछ समय के लिए आता है। इससे एकत्र पित्त प्रकुपित हो उठता है एवं कभी-कभी उसका प्रभाव अधिक भी दिखाई देने लगता है।
पित्त प्रशमन- हेमंत के आगमन के साथ ही वातावरण में भी मधुरता एवं भोज्य पदार्थों में मधुर रस का बाहुल्य, ऋतु की ठंढक के साथ पित्त को शांत कर देता है।
वातावरण का कफ पर प्रभाव-त्रिदोषों में कफ की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इससे क्राॅनिक रोग जन्म लेते हैं, यदि ऋतु अनुसार कफ क्षय, प्रकोप एवं प्रशमन का ध्यान न रखा जाए।
कफ क्षय- हेमंत में स्वाभावतः भूख अधिक लगती है, शरीर में ताकत भी होती है। खाने-पीने की आदतें बदल जाती हैं और शिशिर ऋतु (जाती हुई ठंढक) तक जारी रहती हैं। उस समय पाचनशक्ति, कम होने लगती है। वातावरण की ठंढक एवं न्यून पाचनशक्ति, परंतु आहार अधिक होने से कफ क्षय होने लगता है, अर्थात कफ एकत्र हो जाता है।
कफ प्रकोप- वसंत का आगमन संचित कफ को पिघला देता है और नतीजा निकलता है, प्रकुपित कफ व उससे पैदा हुए रोगों के रूप में।
कफ प्रशमन- गरमी के आगमन के साथ ही संचित, प्रकुपित कफ स्वतः शांत हो जाता है। यहाँ यह कहना जरूरी है कि ऋषियों की यह सब प्रतिपादित हाइपोथीसिस-परिकल्पनाएँ भोगे हुए यथार्थ है एवं तब के हैं, जब न हीटर, एयरड्रापर, एयर कंडीशनर्स आदि होते थे। आज ये हैं तो दोष और ज्यादा हैं, क्योंकि कुसमय का ऋतु परिवर्तन दिन में कई-कई बार होता है एवं जीवनशैली में खान-पान की विकृतियाँ जुड़ गई हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि ये त्रिदोष शरीर को अधिक प्रभावित करेंगे और रोगी बनाएँगे। जीवनशैली के रोग (लाइफ स्टाइल disorder) इसीलिए आज ज्यादा हैं।
दोष शोधनम्- पंचकर्मों द्वारा शरीर का त्रिदोषों से शोधन किया जा सकता है। कफ दोष को वसंत ऋतु में वमन द्वारा, पित्त दोष को छोटी आँतों से शरद ऋतु में विरेचन द्वारा तथा वात दोष को बड़ी आँतों से स्थापन वस्ति द्वारा वर्षा ऋतु में संपन्न कर मिटाया जा सकता है। ये पंचकर्म प्रकोप की स्थिति में ही करना ठीक रहते हैं, परंतु ये एकत्र न होने पाएँ ऐसी सावधानी रखी जाए। इसके लिए जिस ऋतु में इनका प्रकोप होता है या होने की संभावना रहती है, उसके प्रारंभ में ही पंचकर्म कर लिए जाएँ तो प्रकोप की संभावना नहीं होती। शोधन तब नहीं करना चाहिए, जब ऋतु अपनी पूर्ण परिपक्वावस्था में होती है एवं शरीर भी कमजोर होता है।
            हेमंत व शिशिर ऋतु में उचित है कि तैल मालिश (स्नेहन) नियमित रूप से की जाए एवं इसके लिए वातहर औषधियों का तैल (बलादि तैंल, नारायण तैल) का प्रयोग किया जाए। वसंत ऋतु में नीम तैल, सरसों तैल या शीशम तैल से गरम मालिश की जाए। साथ ही गरम रेत के थैलों द्वारा स्वेदन भी किया जाए। वमन एवं नस्य भी किया जा सकता है। ग्रीष्म ऋतु में वातहर-पित्तहर स्नेहन घी की मालिश से करना चाहिए। वर्षा ऋतु में स्नेहन एवं विरेचन की ही अनुमति है। शारद ऋतु में औषधियुक्त घी (तिक्त घी) से स्नेहन किया जाए, हलका स्वेदन तथा कुटकी, हरीतकी, शुंठी, आमलकी द्वारा विरेचन किया जाए। ये उपाय परीक्षित हैं, सिद्ध हैं एवं किसी भी रोग से व्यक्ति को बचाने में सक्षम हैं। हम यह फिर बता दें कि यहाँ पंचकर्म की संक्षिप्त चर्चा ही ऋतुचर्या के संदर्भ में कही गई है।
ऋतु विपर्यय- आज ग्लोबल वार्मिग के कारण, हमारी जीवनचर्या बदल जाने के कारण ऋतुओं में वे प्रभाव नहीं हैं, जो उनके स्वाभाविक गुण हुआ करते थे। मई में ओले गिरना, बहुत ज्यादा ठंढक एवं शिशिर, शरद में गरम मौसम बहुतायत से देखने को मिल रहा है। यह बदला ऋतु का मिजाज ही रोगों को जन्म देता है, शरीर की जीवनीशक्ति की जमकर परीक्षा लेता है। इसका प्रभाव कृषि, पर्यावरण, उत्पन्न होने वाली शाक-सब्जियों, फलादि पर भी होता है तथा ग्रहण किए जाने पर ये भी गलत प्रभाव डालते हैं। इस पर ऋषियों ने संकेत मात्र किया था, पर आज यही सर्वाधिक चर्चित विषय बन गया है।  

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