Sunday, February 9, 2014

Conclusion-1

कभी-कभी जीवन में ऐसे संयोग अथवा ऐसी परिसिथतियाँ आती हैं जो आदमी को साधना मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं, विवश करती हैं। श्री अरविन्द एक क्रानितकारी एवं प्रतिभवान  व्यक्ति थे । विभिन्न प्रकार के दर्शनों का अध्ययन उन्हें बहुत प्रिय था। भारतीय दर्शन, वेद, उपनिषद, आदि बड़े चाव से पढ़ते थे। उनके मन में भारत की जनता को दु:खों-कष्टों में तड़पता देख बड़ी वेदना होती थी, वो भारत की  मुक्ति मार्ग खोज रहे थे। इसी समय उनके जीवन में एक घटना घटी। उनके एक भार्इ बारीन जो क्रानितकारी संगठन के मुख्य कार्यकत्र्ता थे, ज्वर से पीडि़त हो गए। बहुत प्रयासों के बाद भी ज्वर उतर नहीं रहा था। एक बार उनके द्वार पर एक नागा सन्यासी भिक्षा माँगने आया व बारीन को तपड़ते देखा। वह सन्यासी कौपीन धारे, शरीर पर भभूत मले रोज की तरह दर-दर भिक्षा माँगने निकला था, तभी उसने बारीन को रजार्इ में लिपटे, बुखार से काँपते हुए देखा। उसने एक गिलास पानी माँगा, उस पर एक चिहन बनाया, मंत्र पढ़ा और रोगी के पीने के लिए दिया। पाँच मिनट बाद ही बारीन ठीक हो गया। श्री अरविन्द ने इन सन्यासियों की अदभुत शक्तियों  की चर्चा सुन रखी थी परन्तु इस बार अपनी आँख से देखने पर उन्हें विश्वास करना पड़ा। श्री अरविन्द कहते हैं कि इंग्लैण्ड में रहने के कारण उनके अन्दर एक अज्ञेयवादी था, एक नासितक था, एक संशयवादी था और उन्हें यह पक्का निश्चय नहीं था कि र्इश्वर नाम की कोर्इ चीज़ है या नहीं। अब श्री अरविन्द मानवता के त्राण के लिए योग साधना की ओर उन्मुख हुए, प्रभु से प्रार्थना करने लगे, यदि तू है तो तू मेरे उदय की बात जानता है। तू जानता है कि मैं मोक्ष नहीं चाहता। मैं वह सब कुछ नहीं माँगता जो दूसरे लोग माँगते हैं। मैं इस देश का उद्धार  करने के लिए केवल शक्ति  की  याचना कर रहा हूँ। श्री अरविन्द ने इस प्रकार साधना के मार्ग पर अपने चरण बढ़ा दिए।
मेरे जीवन में भी सन 1988 में कुछ ऐसी ही परिसिथतियाँ उत्पन्न हुयी जब मै  K.N. I.T. Sultanpur से B.Tech Comp.Sci. Engg. कर रहा था। मेरी माता जी का छोटा आप्रेशन हुआ, व जिसके बाद वो डिप्रेशन का शिकार हो गयी। डाक्टर्स की दवाएँ असफल होते देख हमारी चेतना भगवान की ओर मुड़ गयी। आज भी जो लोग विषम परिसिथतियों से स्वयं को, राष्ट्र को, व मानवता को मुक्त  कराना चाहते है तो उन्हें साधना का मार्ग अपनाना होगा। बढ़ती शारीरिक समस्याएँ, गरीबी, पारिवारिक विघटन, टूटते रिश्तें  व्यक्ति को  विवश कर रहे हैं कि वो भगवान की ओर मुडे़, उनसे सहारा व प्यार प्राप्त करे तथा साधना के द्वारा अपने प्रारब्धों को काट कर समाज के लिए प्रकाश स्तम्भ बने।
मानव जीवन को चार भागों में बाँटा गया है। जीवन के प्रारमिभक 20-25 वर्षों में व्यक्ति सीखता है, शक्ति अर्जित  करता है। अगले 20-25 वर्षो में वह अपने उपार्जित  ज्ञान व शक्ति  कि उपयोग करके भाँति-भाँति के खटे-मीठे अनुभव प्राप्त करता है। इसके पश्चात जीवन का उत्तरार्द्ध  प्रारम्भ होता है। अगले 20-25 वर्ष उन अनुभवों को समाज में बाँटता है। समाज को ऊँचा उठाने में अपना योगदान देता है। तत्पश्चात अनितम 20-25 वर्ष को सन्यास कहा जाता है। जिसमें व्यक्ति स्वयं  को उत्तरदायित्वों से मुक्त  कर अपने आपको समेटने लगता है। परमात्मा में विलय की अथवा अपने अगले जन्म की तैयारी करता है। जो-जो काल व्यक्ति कि नियमानुसार गुजरता है उससे अगला उसके लिए उतना आनन्ददायी रहता है। यदि व्यक्ति  निब्रह्राचर्य आश्रम में ज्ञान और शक्ति कि उचित संचय किया है तो गृहस्थ बढि़या गुजरेगा। यदि गृहस्थ धर्मानुसार व मर्यादापूर्ण जिया, तो वानप्रस्थ उत्तम होगा। यदि वानप्रस्थ में सच्चे मन से समाज की सेवा की तो सन्यास बड़ा ही आनंदमयी रहेगा। व्यक्ति  सिवेच्छा से निवाकर   होकर हँसते हुए अपना शरीर छोड़ता है। कबीर दास जी कहते हैं-
                                                     कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसा हम रोए।
                                                     ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोए।
व्यक्ति को यह पता चल जाता है कि शरीर छोड़कर वह इससे भी अच्छी सिथति प्राप्त करने जा रहा है, शान्त लोक में वास करने जा रहा है। सुकरात ने अपने शिष्यों को कहा अब तक मैंने जीवन के अनुभव सुनाए, आज मै मृत्यु के अनुभव भी सुनाऊँगा। यह कहकर विष का प्याला मुँह से लगा लिया। उन्होंने बताया कि धीरे-धीरे वो एक प्रकाश में समाते जा रहे हैं जहाँ बहुत ही शांति  है किसी प्रकार का कोर्इ दु:ख, कष्ट, विकार नही है। बड़ी जतन से ओढ़ी चदरिया, ज्यों की त्यों घर दीनी। यदि व्यक्ति ने  जीवन यत्न से जिया हो यह तभी सम्भव है।

हर अगले आश्रम की फसल पहले वाले आश्रम में बोयी जाती है ब्रह्राचार्य आश्रम में जो फसल बोयी वो गृहस्थ में काटी। जितना तेज, ज्ञान सामथ्र्य ब्रह्राचार्य आश्रम में  अर्जित  किया उतना सुख गृहस्थ में मिलेगा। उस सुख में मदहोश नहीं होना वरण अगले आश्रम के लिए फसल भी बोना। साधु सन्तों का आदर सम्मान, अंशदान, समयदान परम्परा का निर्वाह व साथ-साथ श्रेष्ठ संस्कारों से युग  सन्तान का निर्माण। यदि हम गृहस्थ में धर्म-कर्म से जुड़े रहेंगे तो बाल-बच्चे अच्छे संस्कारी होंगे। जिन्हें देखकर वानप्रस्थ आश्रम में सन्तोष होगा। यदि गृहस्थ आश्रम में पैसे की दौड़ में लगे रहे, तो हम तो संस्कारी है क्योंकि हमारे माता पिता ने धर्म-कर्म का निर्वाह किया, हमारी सन्तान जरूरी नहीं संस्कारी हो। यह गलती भारी पड़ सकती है अत: गृहस्थ आश्रम को मर्यादापूर्ण व धर्मानुसार जिया जाए।  यह गृहस्थ आश्रम में फसल की बुआर्इ है।
गृहस्थ में पाए अनुभवों को जीवन के उत्तरार् में समाज को देते हुए त्याग तपोमय जीवन जीना, यह वानप्रस्थ का आनन्द है। यदि गृहस्थ में भोगों में अति कर डाली तो वानप्रस्थ में रोगों से दु:खी होना पड़ता है। यदि वानप्रस्थ में कोर्इ गलती नहीं करते, पद-प्रतिष्ठा के मोह में नहीं फंसते, नए बन्धन नहीं जोड़ते तो अनितम चरण जीवन का आनन्ददायी होता है। एक प्रकार कह सकते है कि प्रथम चरण में अन्नमय कोष का विकास होता है, द्वितीय चरण में प्राणमय कोष का उन्नयन होता है, तृतीय चरण में विज्ञानमय कोष का अनावरण होता है व अनितम चरण में आनन्दमय कोष का अवतरण होता है व मानव जीवन सार्थक एवं धन्य हो जाता है।
परन्तु यदि वासना, तृष्णा, अहंता से पूर्ण जीवन रहा हो तो व्यक्ति की आत्मा उसको धिक्कारती है व उसका परलोक अन्धकार पूर्ण होता है। इस दिशा में अनेक लोगों ने खोजबीन की है। एक पुस्तक 'जीवात्मा जगत के नियम, मृत्यु के बाद के अनुभवों के बारे में कुछ प्रकाश डालती है। निष्कर्ष यही निकलता है कि क्षणिक भोगों, इच्छाओं के चंगुल में फँसकर इस जीवन को खराब न किया जाए अपितु साधना के पथ पर चलकर इहलोक व परलोक दोनों को सुधारा जाए।
यह एक यक्ष प्रश्न है कि अपने को इतना बुद्धिमान मानने वाला आदमी इधर क्यों बेबस हो जाता है? युधिषिठर से यक्ष ने प्रश्न किया, दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिषिठर बोले हर कोर्इ जानता है कि जीवन की अवधि सीमित है, बहुत कम है। परन्तु फिर भी मानव जीवन का सदुपयोग नही करता, लक्ष्य नहीं ढूंढ़ता, अपितु नश्वर चीजों से ऐसा चिपका रहता है जैसे वो उसके साथ जाएँगी। इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है? कभी-कभी तो यह सिथति बड़ी विकट हो जाती है जब दुनिया को नश्वरता का सन्देश देने वाले साधु सन्त, समाजसेवी, ज्ञानी, तपस्वी भी अपने आश्रमों व पदों के मोह में अन्धे होकर व्यापार अथवा व्याभिचार में लिप्त पाए जाते हैं। यदि हम स्वयं को निलिप्त नहीं कर पाए, अपनी कुर्सी का मोह नहीं छोड़ पाए तो दुनिया को श्रेष्ठ बनाने का नैतिक अधिकार हमें कैसे हो सकता है? क्या मात्र बड़े-बड़े भवन, आश्रम खडे़ करके, अच्छे उपदेश देकर दुनिया बदल जाएगी नहीं; ज्योति से ज्योति जगानी होती है। अपने अन्दर जब तक परमात्मा की ज्योति नहीं जलेगी, ज्ञान और वैराग्य नही आएगा, देश धर्म की रक्षा के लिए आचार्य शंकर की तरह परिव्रज्या नहीं की जाएगी, आदर्शो की सीपना  कैसे होगी?  क्या अन्तर पड़ता है पीला पहन लो, भगवा पहन लो, सफेद पहन लो, भीतर तो कुर्सी का व्यापार चल रहा है। बस कुर्सी-कुर्सी का अन्तर है कहीं कुर्सी आश्रम में पड़ी है तो कहीं किसी कार्यालय में पड़ी है। कोर्इ आश्रम की कुर्सी की उधेड़बुन में फंसा है तो कोर्इ किसी कार्यालय की कुर्सी हड़पने के ताने बाने बुन रहा है।
एक अशान्त व्यक्ति कैसे  किसी को अपने उपदेशों से शान्त कर सकता है? एक कामुक व्यक्ति कैसे उपदेशों से किसी को संयम के पथ पर चला सकता है? जो लोग आश्रमों को भव्य बनाने के चक्कर में येन केन प्रकारेण जनता से धन जुटाने में लगे हैं वो कैसे किसी को त्याग तप के मार्ग पर चलने को प्रेरित कर सकते हैं? गुड़ गोबर अलग करना होगा। हमें वो साधक चाहिएँ जो वास्तव में संयम, तप, त्याग को जीवन का आधार बनाकर चल रहे हैं वो नहीं जो कुर्सी पर बैठकर मजे करते हो व बाहर आकर सजधज कर जनता से मीठी-मीठी बातें करते हों। जिस दिन हमने एक लाख ऐसे हीरें तैयार कर दिए, ऐसे हीरें चुन लिए उस दिन युग निर्माण का प्रारम्भ हो जाएगा, सतयुग का सूर्य उदय हो जाएगा। हे अर्जुन ! तू बातें तो अच्छी करता प्रतीत होता है लेकिन है सब बेकार लक्ष्य से भटका हुआ है, बन्दर की तरह क्यों उछलकूद कर रहा है काम की बात कर, युद्ध  कर युद्ध  धरती पर सतयुगी वातावरण बनाने के लिए जगह-जगह भ्रमण कर, एक लाख, ब्रह्राबीज खोज, ब्रह्राकमल खिला, जो कंकड़ पत्थर उन्हें बढ़ने से रोक रहे हैं उनको साफ कर। कहने का तात्पर्य है जनता जागरूक होकर पहचाने कि वास्तव में साधक कौन है? उनको सहारा दे, समर्थन दे उनके योग क्षेम का वहन करें ताकि उनका आत्मविश्वास बढ़े और वो अपनी साधना के बल पर इस राष्ट्र को नयी दिशा दे सकें। यों व्यर्थ में दो मंजिल, पाँच मंजिल, दस मंजिल के मंदिर बनाने से अथवा पाँच एकड़, दस एकड़, बीस एकड़ का आश्रम बनाने से किसी का कोर्इ भला या सुधार नहीं होने वाला है। बिना अच्छे चिकित्सकों के अस्पतालों का क्या लाभ ? बिना अच्छे अध्यापको कें बड़े विधालयों का क्या मूल्य? इसी प्रकार बिना उच्च कोटि के साधक के आश्रमों का क्या महत्व?

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