बचपन से ही मुझे धर्म के मार्ग पर चलने व गरीब लोगों की सहायता करने में रूचि थी। सामान्य परिवार में जन्म लेने के कारण सदा धन का अभाव रहता था। बचपन में भगवान् से कहता, भगवान् मुझे ऐसी नौकरी देना कि मेरा धर्म-कर्म का मार्ग न छूटे व इतना धन हो कि मजबूर लोगों की मुझसे सहायता भी होती रहे। ईश्वर की ड्डपा क्र्पा से मुझे जुलाई 1990 में REC कुरुक्षेत्र में प्राध्यापक ; Lecturer की नौकरी मिल गयी। आस्तिक निश्चिन्तता के उपरान्त मेरी आध्यात्मिक उन्नति की इच्छा बढ़ती गयी। अब तो अपने इष्ट प्रभु श्री राम से यही प्रार्थना करता कि कोई ऐसा गुरु प्राप्त हो जिससे मेरा बेड़ा पार हो जाए, जीवन सफल हो जाए। उन दिनों मैं थोड़ा असमंजस में था बहुत सन्तों के सत्संग प्रवचन सुना करता था। यह नहीं जान पा रहा था कि किनको गुरु बनाऊँ। मैं उस समय धार्मिक पुस्तकें पढ़ने में बहुत समय लगाता था। सौभाग्यवश ‘हमारी वसीयत और विरासत’ पुस्तक मुझे मिली और मैं रात को पढ़ते-पढ़ते सो गया। रात्रि में लगभग दो बजे सोते हुए स्वप्न में श्रीराम शर्मा आचार्य जी के प्रकाश स्वरूप का दर्शन हुआ। उन्होंने कहा ‘मैं तुम्हारे प्रारब्ध काटने के लिए अपनी तप शक्ति का अंश लगाता रहूँगा, तुम मेरा काम करते रहना’। मैंने स्वप्न में उनसे पूछा कि मुझे कैसे पता चलेगा कि आप मुझसे क्या कराना चाहते हो? उत्तर मिला अपने अन्दर की आवाज को सुनना वैसी-वैसी भावना तुम्हारे भीतर बनती रहेंगी जो मैं तुमसे कराना चाहूँगा। मेरे नेत्र खुल गए व मैंने अपने भीतर एक नयी शक्ति, ज्योति, आचार्य जी के प्रति समर्पण व उनका काम करने की इच्छा महसूस की। प्रातःकाल होते ही गायत्री कार्यालय जाकर समयदान नोट करवाया।
अब मुझे यह स्पष्ट होने लगा था कि आचार्य जी मेरे गुरु हैं इससे पूर्व मैं रामड्डष्ण परमहंस जी को अपना गुरु मानता था, परन्तु एक मत के अनुसार जीवित गुरु होना चाहिए ऐसा मेरे मन में सन्देह था। कुछ समय पश्चात् मुझे पता चला कि आचार्य जी के पहले तीन जन्म स्वामी रामड्डष्ण परमहंस, समर्थ गुरु रामदास व सन्त कबीर के रूप में हुए हैं, तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने सम्पूर्ण भाव चेतना से आचार्य जी को समर्पण कर दिया। यद्यपि मेरी प्राणदीक्षा उस स्वप्न के माध्यम से हो चुकी थी फिर भी जून 1992 में शपथ समारोह में विधिवत दीक्षा ली। अब जगह-जगह झोला पुस्तकालय व ज्ञानरथ चलाना एवं यज्ञ कराना मुझे बड़ा सन्तोष देता था। अब तो मेरे मन में एक ही बात थी हनुमान जी ने श्री राम की सेवा की थी मुझे भी जो यह अवसर मिला है गवाऊँ नहीं पूरे तन मन धन से सेवा करता रहँ। नौकरी इस कार्य में बाधा प्रतीत होती थी अतः कई बार छोड़ने का असफल प्रयास किया। परिवार व समाज के लोग विवाह के लिए जोर देते थे परन्तु प्रभु कार्य में इतना आनन्द आता था कि इस बन्धन में बंधना नहीं चाहता था। शान्तिकुँज आने से भी डरता था कि कहीं कोई माता जी से कहकर जबरदस्ती मेरा विवाह न करा दे। एक स्वच्छन्द पक्षी की तरह जीवन का सवर्णीय काल गुजर रहा था।
इधर मेरे माता-पिता जी बहुत बीमार व मेरी ओर से उदास रहते थे। पिता जी लकवा व माता जी नर्वस डिसआर्डस व भंयकर डिप्रेशन से पीडि़त थी। उनका दुःख मुझसे देखा नहीं गया व मैंने अप्रैल 1998 में विवाह करा लिया। विवाह के पश्चात् मेरे परिवार वाले बहुत प्रसन्न हुए। मेरी पत्नी माता-पिता की सेवा व साधना आदि में रुचि लेती थी, परन्तु घर की ओर मेरी उदासीनता से रूष्ट रहती थी। धीरे-धीरे मैंने गायत्री परिवार के कार्यक्रमों में दौड़ना कम कर दिया, परन्तु मेरा तीन चार घण्टे का स्वाध्याय का प्रतिदिन का क्रम जारी रहा। इंजीनियरिंग कालेज से ही मुझे सात आठ घण्टे प्रतिदिन पढ़ने का अभ्यास था। कोई भी मोटी रुचिकर पुस्तक मैं दो या तीन दिन में पढ़ लेता था। ‘हमारी वसीयत और विरासत’ व ‘योगी कथामृत’ जैसी पुस्तकें मैंने अनेक बार पढ़ी।
सन् 2000 के पश्चात् मुझे लेखन में रुचि जागी। मुझे जो भी जहाँ से अच्छा लगता अथवा ध्यान में जो भाव आते डायरियों में लिखता रहता। धीरे-धीरे करके आठ दस प्रकार की डायरियाँ भर गयी। जो मुझसे मिलने आते कहते यह डायरियाँ बहुत प्रेरणाप्रद हैं। मेरे इंजीनियरिंग के विधार्थीयों ने मुझसे उन डायरियों को क्रमवद कर पुस्तक के रूप में छपवाने का आग्रह किया। अपने एक प्रियविधार्थी का आग्रह मैं टाल नही पाया और इस प्रकार पहली पुस्तक ‘सनातन धर्म का प्रसाद’ सन् 2004 में छप गई। तत्पश्चात् मैं अपने Academics
में व्यस्त हो गया तथा Ph.d में प्रवेश ले लिया। मेरा Ph.d का कार्य सन् 2012 में पूरे जोरों पर था कि मेरी पुस्तक किसी परिव्राजक के द्वारा बंगाल-भूटान के सीमावर्ती (border) जयगाँव में श्री अरविन्द प्रसाद को मिली। उन्होंने मुझसे 200 पुस्तकें भेजने के लिए आग्रह किया, इस कारण मुझे उसके पुनः प्रकाशन के बारे में सोचना पड़ा। 15 दिसम्बर 2012 को Ph.d का कार्य जमा कर राहत की साँस नहीं ले पाया कि पुस्तक के पुनः प्रकाशन में जुटना पड़ा व बसन्त पंचमी 2013 में ‘सनातन धर्म का प्रसाद’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुई।
परन्तु इन दबावों ने मेरे स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित किया व मुझे आराम करने के लिए विवश किया। मैं कालेज के शोध कार्य व अन्य सामाजिक कार्यों से बचकर घर में अधिक समय व्यतीत करने लगा। अचानक मेरा लेखन एक नई दिशा में चला और मेरी दूसरी पुस्तक ‘युगऋषि का जीवन संघर्ष और हमारी भूमिका’ मात्र सात-आठ माह में तैयार हो गयी। पुस्तक की प्रतिक्रिया बड़े पैमाने पर हुयी। बहुत लोगों ने सराहा परन्तु कुछ ने मुँह भी बनाया। अपनी आदत अनुसार मैंने गुरुदेव से पूछा ऐसा क्यों होता है- उत्तर मिला
"जाकी रहे भावना जैसी, तिसको मिले प्रेरणा वैसी"
अब मुझे यह स्पष्ट होने लगा था कि आचार्य जी मेरे गुरु हैं इससे पूर्व मैं रामड्डष्ण परमहंस जी को अपना गुरु मानता था, परन्तु एक मत के अनुसार जीवित गुरु होना चाहिए ऐसा मेरे मन में सन्देह था। कुछ समय पश्चात् मुझे पता चला कि आचार्य जी के पहले तीन जन्म स्वामी रामड्डष्ण परमहंस, समर्थ गुरु रामदास व सन्त कबीर के रूप में हुए हैं, तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने सम्पूर्ण भाव चेतना से आचार्य जी को समर्पण कर दिया। यद्यपि मेरी प्राणदीक्षा उस स्वप्न के माध्यम से हो चुकी थी फिर भी जून 1992 में शपथ समारोह में विधिवत दीक्षा ली। अब जगह-जगह झोला पुस्तकालय व ज्ञानरथ चलाना एवं यज्ञ कराना मुझे बड़ा सन्तोष देता था। अब तो मेरे मन में एक ही बात थी हनुमान जी ने श्री राम की सेवा की थी मुझे भी जो यह अवसर मिला है गवाऊँ नहीं पूरे तन मन धन से सेवा करता रहँ। नौकरी इस कार्य में बाधा प्रतीत होती थी अतः कई बार छोड़ने का असफल प्रयास किया। परिवार व समाज के लोग विवाह के लिए जोर देते थे परन्तु प्रभु कार्य में इतना आनन्द आता था कि इस बन्धन में बंधना नहीं चाहता था। शान्तिकुँज आने से भी डरता था कि कहीं कोई माता जी से कहकर जबरदस्ती मेरा विवाह न करा दे। एक स्वच्छन्द पक्षी की तरह जीवन का सवर्णीय काल गुजर रहा था।
इधर मेरे माता-पिता जी बहुत बीमार व मेरी ओर से उदास रहते थे। पिता जी लकवा व माता जी नर्वस डिसआर्डस व भंयकर डिप्रेशन से पीडि़त थी। उनका दुःख मुझसे देखा नहीं गया व मैंने अप्रैल 1998 में विवाह करा लिया। विवाह के पश्चात् मेरे परिवार वाले बहुत प्रसन्न हुए। मेरी पत्नी माता-पिता की सेवा व साधना आदि में रुचि लेती थी, परन्तु घर की ओर मेरी उदासीनता से रूष्ट रहती थी। धीरे-धीरे मैंने गायत्री परिवार के कार्यक्रमों में दौड़ना कम कर दिया, परन्तु मेरा तीन चार घण्टे का स्वाध्याय का प्रतिदिन का क्रम जारी रहा। इंजीनियरिंग कालेज से ही मुझे सात आठ घण्टे प्रतिदिन पढ़ने का अभ्यास था। कोई भी मोटी रुचिकर पुस्तक मैं दो या तीन दिन में पढ़ लेता था। ‘हमारी वसीयत और विरासत’ व ‘योगी कथामृत’ जैसी पुस्तकें मैंने अनेक बार पढ़ी।
सन् 2000 के पश्चात् मुझे लेखन में रुचि जागी। मुझे जो भी जहाँ से अच्छा लगता अथवा ध्यान में जो भाव आते डायरियों में लिखता रहता। धीरे-धीरे करके आठ दस प्रकार की डायरियाँ भर गयी। जो मुझसे मिलने आते कहते यह डायरियाँ बहुत प्रेरणाप्रद हैं। मेरे इंजीनियरिंग के विधार्थीयों ने मुझसे उन डायरियों को क्रमवद कर पुस्तक के रूप में छपवाने का आग्रह किया। अपने एक प्रियविधार्थी का आग्रह मैं टाल नही पाया और इस प्रकार पहली पुस्तक ‘सनातन धर्म का प्रसाद’ सन् 2004 में छप गई। तत्पश्चात् मैं अपने Academics
में व्यस्त हो गया तथा Ph.d में प्रवेश ले लिया। मेरा Ph.d का कार्य सन् 2012 में पूरे जोरों पर था कि मेरी पुस्तक किसी परिव्राजक के द्वारा बंगाल-भूटान के सीमावर्ती (border) जयगाँव में श्री अरविन्द प्रसाद को मिली। उन्होंने मुझसे 200 पुस्तकें भेजने के लिए आग्रह किया, इस कारण मुझे उसके पुनः प्रकाशन के बारे में सोचना पड़ा। 15 दिसम्बर 2012 को Ph.d का कार्य जमा कर राहत की साँस नहीं ले पाया कि पुस्तक के पुनः प्रकाशन में जुटना पड़ा व बसन्त पंचमी 2013 में ‘सनातन धर्म का प्रसाद’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुई।
परन्तु इन दबावों ने मेरे स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित किया व मुझे आराम करने के लिए विवश किया। मैं कालेज के शोध कार्य व अन्य सामाजिक कार्यों से बचकर घर में अधिक समय व्यतीत करने लगा। अचानक मेरा लेखन एक नई दिशा में चला और मेरी दूसरी पुस्तक ‘युगऋषि का जीवन संघर्ष और हमारी भूमिका’ मात्र सात-आठ माह में तैयार हो गयी। पुस्तक की प्रतिक्रिया बड़े पैमाने पर हुयी। बहुत लोगों ने सराहा परन्तु कुछ ने मुँह भी बनाया। अपनी आदत अनुसार मैंने गुरुदेव से पूछा ऐसा क्यों होता है- उत्तर मिला
"जाकी रहे भावना जैसी, तिसको मिले प्रेरणा वैसी"
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