मेरा क्या परिचय पूछ रहे, रचयिता रक्षक पोषक हूँ।
मैं शून्य किन्तु फिर भी विराट, मैं आदि )चा उद्घोषक हूँû
मैं युगदृष्टा, युगस्रष्टा हूँ, युग-परिवर्तक उद्घोषक हूँ।
मेरा क्या परिचय पूछ रहे, रचयिता रक्षक पोषक हूँ।
कर इड़ा पिंगला को सम मैं, अजर अमर हो जाता हूँ।
ब्रह्मरन्ध्र के महाशून्य में, जब चाहे खो जाता हूँ।
प्रभु अपने अनन्त रूपों में किसी एक का युगानुरूप प्राकट्य करते है। उनके हर अवतार का एक ही उद्देश्य रहता है- युग का परिवर्तन। अपने इसी शाश्वत संकल्प को पूरा करने के लिए ईश्वरीय चेतना युग-ऋषि श्रीराम ‘आचार्य’ जी के रूप में अवतरित हुई ।
गांधी जी समर्थ ब्रिटिश शासन के सम्मुख प्रचंड प्रतिरोध तभी खड़ा कर सके, जब उनके पीछे अनुशासनबद स्वयंसेवकों की लंबी कतार थी। उनकी विजय का यही एकमात्र रहस्य था। महात्मा बुद के पास ढ़ाई लाख परिव्राजकों की एक विशाल सेना थी जिन्होनें पूरे एशिया में बौद धर्म के प्रचार के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी। आचार्य जी के जीवन का मुख्य उद्देश्य था सवा लाख उच्चस्तरीय तपस्वी आत्माओं को एकत्रित एवं संगठित कर युग निर्माण के महायज्ञ में नियोजित करना। ब्रह्मकमल के रूप में उनका स्वयं का जीवन खिला व ऐसे असंख्य ब्रह्मबीज वो इस धरती पर बो गए। भविष्य में अनेकों कमल खिलेंगे और अपनी सुगन्धि व सुन्दर कार्यों से धरती पर सत्य, प्रेम और न्याय की स्थापना करेंगे। सामान्य कमल सुन्दरता व सकारात्मक ऊर्जा का स्त्रोत होता है परन्तु ब्रह्मकमल अपनी दिव्य गंध से व्यक्ति को समाधि सुख की अनुभूति करा देता है। ऐसे व्यक्तित्व तैयार करना जिनके स्मपर्क में आते ही दूसरे व्यक्ति सुख-शान्ति अनुभव करें, अधोगामी मार्ग छोड़ कर आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रयास करें, इस मिशन का मुख्य उद्देश्य है।
किशोरवय श्रीराम ने अपने महान गुरु को पहचाना और अपने आपको भी। अपने मार्गदर्शक को पूर्णतः संपन्न होकर अपने जीवन की दिशाधारा को उनके निर्देशानुसार निश्चित करने का वचन दिया। हिमालयवासी महासिद ने आशीर्वाद के साथ आश्वासन भी दिया-‘तुम्हारे हर काम की सफलता के लिए शक्ति और साधन मैं हमेशा जुटाता रहूँगा। तुम पुरुषार्थ करना मैं दिव्य अनुदानों से तुम्हारी झोली सदैव भरता रहूँगा।
आचार्य जी ने अपने गुरु के विषय में कहा था-”मेरे गुरुदेव की साधना और व्यक्तित्व हिमालय जैसा महान है। वे इच्छानुसार स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर धारण करते हैं और उनकी आयु कल्पनातीत है, आध्यात्मिक वर्गीकरण के अनुसार वे ‘महाअवतार’ हैं। मेरी जीवन भर की समस्त उपलब्धियाँ उन महासिद का प्रसाद है। युग का निर्माण करने, युग का परिवर्तन करने जैसे असाध्य संकल्प मैने उन्हीं के निर्देश पर, उन्हीं के भरोसे लिए हैं।“ आचार्य जी के साधना गुरु स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी का और अधिक परिचय देना सम्भव नहीं है। वे सूर्य की भाँति हिमगिरी में तपते हैं और आध्यात्मिक प्राण ऊर्जा की शक्तिधारा युग निर्माण को सफल बनाने के लिए सतत् उपलब्ध करा रहे हैं, किन्तु सब कुछ पर्दे के पीछे रहकर अदृश्य रुप से।
आश्विन ड्डष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1967 ;20 सितम्बर 1911द्ध को स्थूल शरीर से ग्राम आँवलखेड़ा जनपद आगरा जो जलसेर मार्ग पर आगरा से पंद्रह मील की दूरी पर स्थित है, में जन्मे श्रीराम जी का बाल्यकाल-कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता। वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिताश्री पं॰ रूपकिशोर जी शर्मा आस-पास के, दूर-दराज के, राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भागवत् कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत विचलित रहता था। साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा। जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे। छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे। किसे मालूम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुतः अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी। पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में उनके घर की पूजा स्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आगरा थी, जबसे महामना पं॰ मदन मोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ अदृश्य छायाधरी सूक्ष्म रूप में। उनने प्रज्जवलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में संपन्न क्रिया कलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आये हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकालाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषि सत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं। चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक की अवधि तक हिमालय आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हें तीन संदेश दिए- 1. गायत्री महाशक्ति के चैबीस-चैबीस लक्ष के चैबीस महापुरुश्चरण जिन्हें पाँच छटाक जौं व सवा सेर छाछ के प्रतिदिन के आहार के कठोर तप के साथ पूरा करना था। 2. अखण्ड घृतदीप की स्थापना एवं जन-जन तक इसके प्रकाश को फैलाने के लिए समय आने पर ज्ञानयज्ञ अभियान चलाना, जो बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के 1938 में प्रथम प्रकाशन से लेकर विचार-क्रांति अभियान के विश्वव्यापी होने के रूप में प्रकट तथा 3. चैबीस महापुरुश्चरणों के दौरान युगधर्म का निर्वाह करते हुए राष्ट्र के निमित्त भी स्वयं को खपाना, हिमालय यात्रा भी करना तथा उनके संपर्क से आगे का मार्गदर्शन लेना।
यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक-दूसरे के पर्याय हैं, की जीवन यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने भावी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया। पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक ‘हमारी वसीयत और विरासत’ में लिखते हैं कि ”प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्ना हुआ। दो बातें गुरु सत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गई, संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुहँ मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सामथ्र्य विकसित होगी जो विशुद तः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी। वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधरण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सदगुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।"
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