Sunday, February 9, 2014

Conclusion-2

पाल बंरटन ; इंग्लैंड के एक वरिष्ठ पत्रकारद्ध भारतीय अध्यात्म की खोज में पूरे भारत का भ्रमण कर थक गए। इतनी विविधताओं को देख भ्रमित ;बवदनिेमद्ध हो गए कि क्या सही है क्या गलत? किस मार्ग पर चला जाए। किसी ने उन्हें महऋषि  रमण जी के पास अरुणाचल भेज दिया जहाँ महऋषि   रमण मौन तप कर रहे थे। अपने मस्तिष्क  के उपजते सैकड़ों प्रश्नों को लेकर वो उनके पास पहुँचे। श्री रमण के पास शांति , प्रकाश, आनन्द की एक धारा प्रवाहित होती रहती थी जिसका अनुभव आश्रम के पशु पक्षी भी करते थे। पाल बंरटन वहाँ जाकर कुछ देर बैठते ही एकदम शान्त हो गए, आनन्द मगन हो गए वह सिथति उन्होंने जीवन में कभी नहीं पायी थी। उन्हें अपने प्रश्नों का उत्तर मिल गया कि व्यä एिेसी अवस्था को पा सकता है जहाँ परम शांति है, आनन्द है, दिव्यता है इसको पाना ही जीवन का लक्ष्य है, अध्यात्म मार्ग पर चलने का उदेश्य  यही है। इसी को शास्त्रों ने मुä  कहा है, निर्वाण कहा है, आत्मज्ञान यहीं उपलब्ध होता है। ऐसे साधक चाहिए जो उपदेश भले ही कम दें परन्तु अपने आत्मबल से, तपोबल से वातावरण को सातिवक बनाएँ, पवित्र बनाएँ, दिव्य बनाएँ। स्वामी विवेकानन्द जब पवहारी बाबा से मिले तो उनसे प्रश्न किया कि समाज की भयावह सिथति है आप यहाँ क्यों गुफा में पडे़ हों? वो बोले प्रत्येक की अपनी भूमिका है। यदि हम यहाँ बैठकर तप नहीं करेंगे, तुम्हारे उपदेशों का लोगों पर कोर्इ प्रभाव नहीं पडे़गा। इसीलिए मित्रों आज आध्यातिमक कार्ति , साधना क्रानित की आवश्यकता है जहाँ से एक समर्थ भारत, तपोमय भारत, दिव्य भारत का निर्माण सम्भव हो सके।    
महाभारत का युग समाप्त हो चुका था, पाण्डव पक्ष में विजय की लहर के साथ हर्ष-उल्लास फैला हुआ था लोग पाँचों पाण्डवों की वीरता एवं युध  कौशल का गुणगान कर रहे थे जिसको सुनकर पाण्डव फूले न समा रहे थे। बीच-बीच में सर्वश्रेष्ठ योधा  कौन यह प्रश्न भी उठ खड़ा होता था। हर कोर्इ अपनी-अपनी तरह से डींगें हाँक रहा था परन्तु इस प्रश्न का कोर्इ फैसला नही हो पा रहा था कि सर्वश्रेष्ठ योधा  कौन है? इसका फैसला वही कर सकता था जिसने पूरा युध  ठीक से देखा हो। उसी समय पास के एक वृक्ष से किसी के जोर-जोर से हँसने की आवाज आर्इ। वृक्ष पर एक बेताल ;पोण्डरकद्ध लटका हुआ था। बेताल;पोण्डरकद्ध ने उन सब को कहा कि मैंने यहाँ लटके-लटके यह पूरा युध  बड़े ध्यान से देखा मुझे तो केवल एक श्रीÏष्ण का सुदर्शन चक्र ही घूमता हुआ नजर आया जिसके कारण धर्म की विजय हुर्इ और दुष्टों का विनाश हुआ।
मित्रों आज श्री अवतारी चेतना का सुदर्शन चक्र तीव्र गति से घूम रहा है एवं यह पुस्तक भी उसी का परिणाम है। यह चक्र लगभग सवा करोड़ लोगों के अन्त:करण को झकझोर रहा है उनमें समाज और राष्ट्र के लिए कुछ महान कार्य करने की उमगें पैदा कर रहा है एवं उनको शकित प्रदान कर रहा है। हम अपना अन्त:करण टटोल कर देखें कि हमको क्या प्रेरणा भगवान दे रहें हैं? आसपास के वातावरण से उत्पन्न कोलाहल को रोककर मोह बन्धनों को ढ़ीला कर उस प्रेरणा को सुनें व उस पर चलने का साहस पैदा करें यह घाटे का नहीं नफे का सौदा रहेगा। मानव जन्म सार्थक हो जाएगा इस जीवन में कुछ अच्छा कर पाने का संतोष बहुत बड़ी उपलब्धि है। आत्मा व परमात्मा का आशीर्वाद पा कर हमें अपूर्व सुख की अनुभूति होगी। ढ़र्रे पर तो हर कोर्इ चल रहा है, पशु-पक्षी हर कोर्इ पेट-प्रजनन के लिए मर-खप रहा है। आओं हम अपने सामने एक ऊँचा लक्ष्य, एक ऊँचा आदर्श खड़ा करें। साधना के पथ पर चलकर उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अनवरत प्रयत्नशील रहें।
कर्इ बार लोग मुझसे पूछते है कि आप पुस्तकें क्यों लिखते हो? आपका परिवार, समाज क्या इसकी अनुमति देता है? क्या इसको पसन्द करता है? गोस्वामी तुलसी दास जी के सामने भी यह प्रश्न था कि आप यह मानस क्यों बाँचते हो? जबकि समाज आपको परेशान करता है। गोस्वामी जी का उत्तर था 'स्वान्त: सुखाय। यही उत्तर मेरा भी है आत्म कल्याण के लिए, अपने को प्रभु से जोड़े रखने के लिए मैं यह कार्य करता हूँ। मुझे नहीं पता कि इससे किसी को कोर्इ लाभ होता है या नहीं, मुझे यह आभास अवश्य होता है कि मैं प्रभु का कार्य कर रहा हूँ। आने वाली पीढ़ी को, अपने बच्चों को कुछ अच्छा देने का प्रयास, अवश्य कर रहा हूँ। आने वाली पीढ़ी समाज में फैली गन्दगी, अश्लीलता, लोभ, र्इष्र्या द्वेष आदि विचारों से अपनी रक्षा कैसे करेगी? लोग अपने प्रियजनों के लिए धन-दौलत, मकान-दुकान जोड़ते हैं। हम उनको श्रेष्ठ विचारों की यह पूँजी, दिव्य जीवन की यह पूँजी देना चाहते हैं। हमारे पास एक अच्छी टीम है जो इस दिशा में मिलजुल कर प्रयास कर रही है। हम चाहते हैं कि यह पुस्तक और अच्छी बने व शीध्र ही एक लाख लोगों के हाथों तक पहुँचे। हम सदा पुस्तक का मूल्य, लागत से कम ही रखते हैं। कर्इ बार आधे मूल्य पर अथवा बिना मूल्य के भी देते हैं। इस संकल्प में जो भागीदार बनना चाहे, किसी भी प्रकार का सहयोग देना चाहें वह हमारे सहयोगी बन्धु श्री विशाल जी ;mob: 9354761220  से सम्पर्क करें। यह न सोचें कि सहयोग केवल आर्थिक  रूप में ही दिया जा सकता है, सहयोग आपके प्रोत्साहन द्वारा, अच्छे लेखों के द्वारा अथवा एक पुस्तक को दस बारह लोगों को पढ़वाने के द्वारा अथवा इसकी जानकारी लोगों तक पहुंचाकर पहँुचाकर भी किया जा सकता है। जो पढ़े लिखे हैं, जो Internet का प्रयोग करते हैं, वो पुस्तक की pdf file नि:शुल्क प्राप्त करें एवं सम्पर्क के विभिन्न लोगों तक भेजने का प्रयास करें। 

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