Acharayaj
भारत की विशेषता ऋषि परंपरा रही है। ऋषि दृष्टा कहे गये हैं। वे समय की समस्याओं और उनके समाधानों को अपने मर्म चक्षुओं से देखकर उन्हें जन-जन के लिए सुलभ बना सकते हैं। उन्होंने जनजीवन को ईश्वरीय योजना और शक्ति प्रवाह से जोड़ने का ऋषिकर्म पूरी निपुणता के साथ सम्पन्न किया।
युगशक्ति, युगदेवता-
अपने अंतिम चरण में वे युगशक्ति और युगदेवता, महाकाल, सदाशिव की चेतना के प्रतिरूप बन गये। सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान उन्होंने ऐसी घोषणाएँ की, जिन्हें नियंता स्तर का व्यक्ति ही कर सकता है। जब उन्होंने उनकी घोषणा की, तब वे असंभव सी दिखती थी, किंतु समय के साथ वे यथावत घटित होती दिखाई दीं। अमेरिका और रूस दो महाशक्तियाँ उन्मत्त होकर परस्पर टकराने की स्थिति में थीं। टक्कर का अर्थ होता महाविनाश। तब उन्होंने कहा, "यह तनी हुई बंदूकें नीची होंगी, पीछे हट-पीछे हट के कर्कश स्वर थमेंगे और शांति के साथ विचार विमर्श द्वारा नये रास्ते खोजे जायेंगे।" वही हुआ, दोनों महाशक्तियों के विन्लवी तेवर शांत हुए और सहयोग-सहकार के रास्ते खुले। एक बार मंच से बोल उठे, "बड़ी शक्तियाँ कौन होती है? अध्यात्म द्वारा टक्कर मारकर उन्हें भी सीधा किया जा सकता है। वैज्ञानिक ही विनाश के प्रयोगों को नकार देंगे तो समर्थ राष्ट्र क्या करेंगे?"
विनाश के स्थान पर नवसृजन की बात पर प्रश्न उठा कि यह कैसे होगा? तो तमक कर बोले, "मैं कहता हूँ । इसलिये होगा।" स्पष्ट है कि वे उस समय युगदेवता, नियंता की चेतना के रूप में सक्रिय थे। सूक्ष्मीकरण साधना के बाद जब उनका मिलना-जुलना बहुत सीमित रह गया था, तब उन्होंने एक नैष्ठिक कार्यकत्र्ता से कहा था, "अब माताजी से मिलने का अर्थ है मुझसे ;गुरुद्ध से मिलना और मुझसे मिलने का अर्थ है गायत्री माता से मिलना।" यह भी कहा था कि, "गुरु को मैंने वहाँ ;समाधि स्थलद्ध पर स्थापित कर दिया है। अब मैं केवल मिशन ;ईश्वरीय योजना का संवाहकद्ध हूँ।"
काया छोड़ने के पहले उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि लगभग 10 से 15 वर्ष सूक्ष्म स्तर पर रहकर मैं कारण स्तर पर चला जाऊँगा। जो जहाँ पुकारेगा, वहाँ हम समीप अनुभव होते और समर्थ सहयोग करते अनुभव होंगे। महात्मा आनंद स्वामी ;प्रख्यात् आर्य समाजीद्ध उन्हें मू£तमान गायत्री और शिव रूप में ही देखते थे। इसलिए उम्र में बड़े और वेश से सन्यासी होते हुए भी उन्हें श्र(ा पूर्वक प्रणाम करते थे। अब वे सूक्ष्म से कारण स्तर पर पहुँच चुके हैं। वे निराकर, ऊँकार, सदाशिव रूप में अवस्थित हैं। भगवान श्रीड्डष्ण की तरह उनका भी आश्वासन हैं कि जो साधक जिस भाव से नमन करता है, उसकी सेवा-सहायता वे उसी रूप में कर देते हैं।
भारत की विशेषता ऋषि परंपरा रही है। ऋषि दृष्टा कहे गये हैं। वे समय की समस्याओं और उनके समाधानों को अपने मर्म चक्षुओं से देखकर उन्हें जन-जन के लिए सुलभ बना सकते हैं। उन्होंने जनजीवन को ईश्वरीय योजना और शक्ति प्रवाह से जोड़ने का ऋषिकर्म पूरी निपुणता के साथ सम्पन्न किया।
युगशक्ति, युगदेवता-
अपने अंतिम चरण में वे युगशक्ति और युगदेवता, महाकाल, सदाशिव की चेतना के प्रतिरूप बन गये। सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान उन्होंने ऐसी घोषणाएँ की, जिन्हें नियंता स्तर का व्यक्ति ही कर सकता है। जब उन्होंने उनकी घोषणा की, तब वे असंभव सी दिखती थी, किंतु समय के साथ वे यथावत घटित होती दिखाई दीं। अमेरिका और रूस दो महाशक्तियाँ उन्मत्त होकर परस्पर टकराने की स्थिति में थीं। टक्कर का अर्थ होता महाविनाश। तब उन्होंने कहा, "यह तनी हुई बंदूकें नीची होंगी, पीछे हट-पीछे हट के कर्कश स्वर थमेंगे और शांति के साथ विचार विमर्श द्वारा नये रास्ते खोजे जायेंगे।" वही हुआ, दोनों महाशक्तियों के विन्लवी तेवर शांत हुए और सहयोग-सहकार के रास्ते खुले। एक बार मंच से बोल उठे, "बड़ी शक्तियाँ कौन होती है? अध्यात्म द्वारा टक्कर मारकर उन्हें भी सीधा किया जा सकता है। वैज्ञानिक ही विनाश के प्रयोगों को नकार देंगे तो समर्थ राष्ट्र क्या करेंगे?"
विनाश के स्थान पर नवसृजन की बात पर प्रश्न उठा कि यह कैसे होगा? तो तमक कर बोले, "मैं कहता हूँ । इसलिये होगा।" स्पष्ट है कि वे उस समय युगदेवता, नियंता की चेतना के रूप में सक्रिय थे। सूक्ष्मीकरण साधना के बाद जब उनका मिलना-जुलना बहुत सीमित रह गया था, तब उन्होंने एक नैष्ठिक कार्यकत्र्ता से कहा था, "अब माताजी से मिलने का अर्थ है मुझसे ;गुरुद्ध से मिलना और मुझसे मिलने का अर्थ है गायत्री माता से मिलना।" यह भी कहा था कि, "गुरु को मैंने वहाँ ;समाधि स्थलद्ध पर स्थापित कर दिया है। अब मैं केवल मिशन ;ईश्वरीय योजना का संवाहकद्ध हूँ।"
काया छोड़ने के पहले उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि लगभग 10 से 15 वर्ष सूक्ष्म स्तर पर रहकर मैं कारण स्तर पर चला जाऊँगा। जो जहाँ पुकारेगा, वहाँ हम समीप अनुभव होते और समर्थ सहयोग करते अनुभव होंगे। महात्मा आनंद स्वामी ;प्रख्यात् आर्य समाजीद्ध उन्हें मू£तमान गायत्री और शिव रूप में ही देखते थे। इसलिए उम्र में बड़े और वेश से सन्यासी होते हुए भी उन्हें श्र(ा पूर्वक प्रणाम करते थे। अब वे सूक्ष्म से कारण स्तर पर पहुँच चुके हैं। वे निराकर, ऊँकार, सदाशिव रूप में अवस्थित हैं। भगवान श्रीड्डष्ण की तरह उनका भी आश्वासन हैं कि जो साधक जिस भाव से नमन करता है, उसकी सेवा-सहायता वे उसी रूप में कर देते हैं।
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