Sunday, February 9, 2014

Conclusion-3

देवसत्ताएँ साधना के और अधिक गूढ़ रहस्यों का प्रकटीकरण इस पुस्तक के माध्यम से चाहती हैं, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। परन्तु मेरी परिसिथति, मन:सिथति, पुस्तक का बढ़ता कलेवर ;व अन्य limitations  यहीं पर पुस्तक की समापित के लिए बाध्य कर रहे हैं। सम्भवत: इसके अगले अंक को हम अधिक शानदार और जानदार बनाकर साधक संजीवनी के रूप में प्रस्तुत कर पाएँ, यह हम सभी मिलकर देवसत्ताओं से प्रार्थना करें। पाठकों की शुभकामनाएँ, सहयोग, आशीर्वाद, प्रार्थना व मार्गदर्शन उदगार पहली पुस्तकों के प्रकाशन में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। पाठकों के प्यार भरे पत्र;उंपसद्ध उदय का गदगद कर लेते हैं।
अध्यात्म की इस पाठशाला में मैं ; लेखकद्ध अन्य पाठकों की तरह एक विधार्थी हूँ। देवसत्ताएँ ही हमारे गुरु हैं जो हम सबके सम्मुख अनमोल ज्ञान के भण्डार को प्रकट करते हैं। माध्यम वो किसी को भी बना लेते है। आज मैं इसका माध्यम बन रहा हूँ कल आप भी इसके माध्यम बन सकते हैं क्योंकि हम आप सब एक ही परमात्मा के प्यारे बच्चे हैं। मैं स्वयं भी अपनी लिखी पुस्तकों, लेखों का एक अच्छा पाठक हूँ। क्योंकि जीवन के उतार-चढ़ावों में सदज्ञान एवं र्इश्वर इन दोनों का सर्वोपरि महत्व है। इसलिए स्वाध्याय द्वारा सदज्ञान व सत्कर्मो द्वारा र्इश्वर Ïपा पाने का सभी मनुष्यों को प्रयास करना चाहिए। तत्ववेत्ताओं के अनुसार स्वामी रामÏष्ण परमहंस जी के चरण धरती पर पड़ते ही ;सन 1836 द्ध युग परिवर्तन की भूमिका बनना प्रारम्भ हो गयी थी यह 200 वषो का संधिकाल है जिसमें भारत अपने तमस को काटकर निरन्तर उपर उठ रहा हैं। धरती पर सनातन धर्म की स्थापना, मानवीय मूल्यों की स्थापना, ऋषियों के संविधान की स्थापना एक अकाटय सत्य है। परन्तु यह समय उथल-पुथल व चुनौतियों से भरा है क्योंकि आसुरी शकितयाँ अपने आसितत्व की रक्षा के लिए पूरा जोर लगा रही हैं। अत: व्यकित के लिए यह आवश्यक है कि वह धर्म एवं अध्यात्म के सि(ांतों को अपनाकर दिव्य संरक्षण ; divine protection का कवच धारण किए रहे, इस समय व्यकित के अहित की सम्भावनाएँ भी बहुत अधिक है।
जिन पुस्तकों अथवा पत्रिकाओं से हमने लेख उठाएँ  है। हम उदय से उनका आभार प्रकट करते हैं। विशेष रूप से युग-ऋषि श्रीराम 'आचार्य, श्री योगानन्द परमहंस, मह£ष अरविन्द एवं दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के अनमोल विचार हमने पुस्तक में संकलित किए हैं। अपनी ओर से उचित संदर्भ ; references देने का प्रयास किया है। यदि कोर्इ भूल रह गयी हो क्र्प्या क्षमा करें। धर्म,  संस्Ïति, राष्ट्र की रक्षा के लिए हमें मिलजुल कर आगे बढ़ना है, अपने अहं व सकींर्णता को छोड़ना है, एक दूसरे का परस्पर सहयोग करना है।
   भारतीय संस्Ïति की रक्षा के लिए, ऋषियों का संविधान इस राष्ट्र में लागू कराने के लिए हम तन मन धन से ही नहीं, अपना रक्त  भी देने से पीछे न हटें, ऐसा संकल्प प्रभु हममें जगा देना, साधना कराकर हमें इतना समर्थ बना देना हमारी आहुति स्वीकार कर लेना, हमें भवसागर से पार लगा देना। बस यही एक मात्र आपसे विनती है।
यदि स्वार्थ हेतु माँगे, दुत्कार भले देना।
जनहित हम याचक हैं सुविचार हमें देना।
अन्त में मैं प्रति के सार्वभौम सत्य का उल्लेख करना चाहता हूँ
1. यदि हम पतन के मार्ग को चुनते है तो विघटनकारी शकितयाँ हमारे साथ आती जायेंगी अर्थात जैसी मन-सिथति वैसी ही परिसिथति और पूरा जीवन पतन की गर्त में समा जायेगा।
2. यदि हम तप अर्थात सन्मार्ग, सदभाव, सहयोग का मार्ग चुनते हैं तो जीवन का प्रत्येक कार्य श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होता जायेगा, मार्ग की बाधायें स्वत: हटती चली जायेंगी यानि ब्रह्राांड से हमें वही मिलता है जैसा हम चाहते हैं।
At last I would like to share universal laws with you.
1. If we follow the negative approach, the universe would give negative to us.
2. If we follow the righteous path, the nature would be right for us. It means, we would take right decision; we would get right job, right life partner and right environment.

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