Monday, August 18, 2014

गुरु भक्ति की पाराकाष्ठा part 2

एक अंतराल के बाद... श्रीरंगम मठ में आचार्य के लिए एक राजसी बुलावा आया। यह बुलावा चोल राज्य के नरेश का था। चोल नरेश कट्टर रूढि़वादी व्यक्ति था। वह आचार्य रामानुज के विशुद्ध आध्यात्मिक, आत्म-विज्ञानी मत का खुला विरोधी था। आचार्य के प्रति घृणा और विरोधी दाँव-पेंच का प्रदर्शन वह जब-तब करता ही रहता था। अबकि बार उसने आचार्य को चोल राज्य की राजधानी गंगैकोंडा चोलापुरम् में बुलाया था। यहाँ एक विराट सभा होनी थी, जहाँ तथाकथित विद्वानों के बीच आचार्य के मत पर मुकदमा चलाया जाना था। शास्त्रार्थ द्वारा निर्णय होना था कि रामानुजाचार्य के सिद्धांत हितकारी हैं या ह्नासकारी!
     राजकीय संदेशवाहक की पहली भेंट आचार्य के शिष्य कुरेश से हुई। उसी के हाथ आदेश-पत्र लगा। कुरेश आशंकित हो उठा। हृदय में भय की भँवरे करवट लेने लगीं- चोल नरेश की नीयत खोटी लगती है। उसने ज़रूर आचार्य को फँसाने के लिए षड़यंत्रपूर्वक जाल बिछाया है। निः सन्देह, आचार्य के जीवन को खतरा है।कुरेश के मन की भँवरे तूफानी हो गई। रोम-रोम राज-आज्ञा का विद्रोह कर उठा। करे भी तो कैसे न? सद्गुरु होते ही ऐसे हैं। इतने अपने बन जाते हैं कि उनके अपनेपन की गवाही रोम-रोम देता है।
     कुरेश ने बहुत देर तक गंभीर चिंतन किया। एक शिष्य की समर्पित बुद्धि कहाँ तक सोच सकती है? उसके समर्पण की सीमा क्या है? यह हमें दक्षिण भारत का यह शिष्य समझाता है। कुरेश आचार्य रामानुज के कक्ष में गया। न झुका, न बैठा, न ही दृष्टि उठाई-सीधे गुरु चरणों में दण्डवत् लेट गया। श्री रामानुज ने आश्चर्य व्यक्त किया। कुरेश ने बिना शीश उठाए, बस अपना निवेदन रख दिया।
कुरेश- आचार्य! हे गुरुवर! हे मेरे पेरूमाव्ठ! आपको स्मरण है, आपने मुझे एक वरदान माँगने को कहा था। मैं आज उसे माँगता हँू। कृपा कर पूर्ण करना। इन्कार मत करना। 
श्री रामानुज- हाँ वत्स! हमें स्मरण है। क्या अभिलाषा है तुम्हारी?
कुरेश- अभिलाषा बाद में कहँूगा। पहले मुझे आशवस्त कीजिए कि आप उसे सुनकर तथास्तुकहेंगे ही कहेंगे।
श्री रामानुज (हँसते हुए)- अच्छा बाबा! कहूँगा-कहँूगा! इच्छा तो बता।
     अब कुरेश ने विस्तार से सारी बात कह सुनाई। चोल राज्य का दूत... राजपत्र... विद्वानों की सभा... नरेश का कुचक्र! सबकुछ! सब बताकर शिष्य ने अपना वर माँगा- आचार्य! वहाँ चोल में आपको कोई नहीं पहचानता। इसलिए आपके वस्त्र पहनकर, आपका नाम धारण कर, आपके स्थान पर मैं चोल जाना चाहता हँू। पीछे से आप मेरे वस्त्र पहनकर कुछ समय के लिए श्रीरंगम छोड़ दीजिए। यही वरदान मुझे दीजिए, आचार्य। जीवन में आपसे आज तक कुछ नहीं माँगा, न कभी आगे माँगूंगा। बस मेरी यह माँग पूर्ण कर दीजिए, स्वामी।
     श्री रामानुजाचार्य जी ने एक दीर्घ श्वास ली। न कह सके, हाँ। बस इतना बोले- मैं दाता हँू। अपने जीवन के लिए तेरा जीवन कैसे ले सकता हँू कुरेश?’ कुरेश ने आचार्य के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। अपने सजल नयन उनके दिव्य नयनों से मिला दिए, मानो उन्हें अपने प्रेम से सम्मोहित कर देना चाहता हो। फिर बोला- आचार्य! मुझे यह वरदान देकर आप मेरा जीवन लेंगे नहीं, बल्कि मुझे जीवन देंगे। क्योंकि अगर आप पर आँच भी आई, तो (अपनी ओर इशारा करते हुए) इस तन में प्राण रहने पर भी, मैं जी नहीं पाऊँगा। पर यदि आप यूँ ही साकार रहे और मेरे इस तन से प्राण छिन भी गए, तो मैं शाश्वत जीवन का आनंद पा जाऊँगा। मुझे इसी शाश्वत जीवन का वरदान दे दीजिए, आचार्य! आपने यह वर देने का वचन भी दिया है...ऐसा कहते हुए कुरेश ने आचार्य का वरद-हस्त अपने सिर पर रख लिया। इस प्रेमपगे हठ के साथ कुरेश आचार्य को मनाता रहा। आखिरकार श्री रामानुज विवश हो ही गए।
     अगली सुबह... आचार्य ने कुरेश को अपना भगवा चोला दे दिया। वह उस पर ऐसे लपका, मानो कुबेर का खज़ाना मिल गया हो। जितना संभव था, उतना रामानुजाचार्य जैसा रूप धारण किया। फिर जी भर कर अपने गुरु को देखता रहा, उन्हें अपने नेत्रों में भरा और चल दिया... चोल राज्य की राजधानी गंगौकोंडा चोलपुरम् की ओर। इसी धुन को धारण कर-
तुम अगणित जीवो के जीवन होए
तुम अगणित हृदयो के स्ंपदन होए
मैं एक दीपए बुझ भी गया तो क्याए
तुम अगणित दीपों के ईधंन हो।
मेरा क्या मैं तो मृत्यु लोक का वासी हूँ।
अल्प बुद्धि और अल्प जीवन का धारी हूँ।
नश्वर जगत का प्राणी मैंए मुझे तो ले जाने कीए
आज नहीं तो कलए काल की है तैयारी।
तुम स्वीकार कर लोगेए यह शीश अगरए
मेरी मृत्यु भी होगी आभारी तुम्हारी।

     इधर आचार्य रामानुज को श्रीरंगम छोड़ना पड़ा। अपने शिष्य कुरेश के सफेद वस्त्र धारण कर वे कर्नाटक के तिरुनारायाणपुरम् चले गए। दक्षिण भारत का इतिहास बताता है कि श्री रामानुजाचार्य जी के इस आगमन के उपलक्ष्य में तिरुनारायणपुरम् में आज भी एक पर्व मनाया जाता है- पुनर्वसु-श्वेत वस्त्र धारण करना!इसका आध्यात्मिक अर्थ यही था कि गुरु शिष्यमय हो गए और शिष्य को गुरुमय कर दिया।
     उधर चोल की राजधानी में... भव्य सभा सजाई गई थी। चोल नरेश ने पाखण्डी विद्वानों के साथ मिलकर पूरा चक्रव्यूह रचा हुआ था। कुरेश अभिमन्यु सा शौर्य दिखाकर इस चक्रव्यूह में कूद गया। उसने स्वयं को आचार्य रामानुज के रूप में प्रस्तुत किया। शास्त्रार्थ में अद्भुत पराक्रम दिखाया। परन्तु जैसा कि आशंकित था, वही हुआ। पाखण्डी विद्वानों ने निराधार कुतर्कों के जाल में उसे फँसा ही दिया। दण्डस्वरूप सज़ा सुनाई गई- इस धूर्त वैष्णव रामानुज की दोनों आँखें निकाल ली जाएँ। जो समाज को दिशाविहीन कर रहा है, उस दृष्टि से विहीन कर दिया जाए!अज्ञानी कपटियों की सभा में कोई सूझवान निर्णय लिया भी कैसे जा सकता था? श्री रामानुजाचार्य का वेश धारण किए हुए कुरेश की आँखें निकाल ली गई।
     उधर रक्त की धाराएँ फूटीं, इधर कुरेश की मुक्त हँसी! सभा हतप्रभ थी। यह कैसा सनकी है, जो आँखें नुचवा कर भी हँसता है!! भला ये संसारी क्या जानें, इस हँसी का रहस्य? दरअसल, यह हँसी एक शिष्य का विजय-नदा था! एक शिष्य का गौरवमय बलिदान था! अपने सद्गुरु की सेवा का आनंद-गान था। दर-दर की ठोकरें खाता हुआ कुरेश जैसे-तैसे वापिस श्रीरंगम पहँुच गया। अपने आचार्य की याद में दिन व्यतीत करने लगा। कुछ ही समय बाद स्वयं प्रकृति ने न्याय किया। चोल नरेश की मृत्यु हो गई। यह समाचार मिलते ही श्री रामानुजाचार्य पुनः श्रीरंगम लौट आए। सबसे पहले अपने मरजीवडे़ मुरीद कुरेश से मिले। लड़खड़ाता हुआ कुरेश सामने आया। उसकी दीन दशा देखकर आचार्य में दर्द और प्रेम का ऐसा मिलाजुला ज्वार उठा कि उन्होंने कुरेश को कस कर हृदय से लगा लिया। उनके अश्रुपात से कुरेश का कुत्र्ता भीग गया। उनके भुजपाश में इतना कसा था कुरेश कि अपने गुरु की आहत धड़कनें सुन सकता था। उसने हाथ जोड़कर प्रार्थना की- आप विहृल न हों, आचार्य। मुझे तो स्थूल आँखों के बदले अलौकिक आनंद मिल गया है। भला इससे खरा सौदा और क्या हो सकता था! आज मेरे गुरु साकार रूप में मेरे पास हैं... और मेरा गर्व से भरकर आलिंगन कर रहे हैं! इससे बढ़कर एक शिष्य की क्या उपलब्धि हो सकती है, आचार्य?’
श्री रामानुज- उस दिन तूने मुझसे एक वरदान माँगा था। क्या आज मैं तुझसे कुछ माँग सकता हूँ?
कुरेश (श्री चरणों में गिरकर)- आप आज्ञा दें, आचार्य। मैं उसे पूरा करने को तत्पर हँू।
श्री रामानुज- मैं चाहता हँू, तू श्री भगवान वरदराज से अपनी दृष्टि के लिए प्रार्थना कर।
कुरेश- पर आचार्य, आपने ही तो हमें सिखाया है कि ये आँखें हमें सिर्फ माया का दर्शन कराती हैं और मायापति से दूर रखती हैं। फिर मैं इन मायावी आँखों को क्यों माँगू?
श्री रामानुज- मेरे लिए... मेरी प्रसन्नता के लिए... मेरे आनंद के लिए तू भगवान पेरूमाव्ठ से दृष्टि माँग। मैं आशीर्वाद देता हँू कि उसी क्षण से तू देख पाएगा।
    कुरेश कांचीपुरम के मंदिर में भगवान पेरूमाव्ठ के सामने उपस्थित हुआ। हाथ जोड़े और यह ऐतिहासिक प्रार्थना की- हे श्री भगवान! हे वरदराज पेरूमाव्ठ! मेरे गुरु की प्रसन्नता के लिए मैं आपसे दृष्टि माँगता हँू... पर मेरी एक और विनय है। मेरी इस दृष्टि को ऐसी अनन्यता दीजिए कि यह केवल दो दृश्यों पर ही केन्द्रित रहे। एक, आप पर; दूसरे, मेरे गुरुदेव श्री रामानुजाचार्य जी के दिव्यतम स्वरूप पर। अन्य कोई दृश्य मुझे देखने की अभिलाषा नहीं। कृपा करें, वरदराज!प्रार्थना तत्क्षण सुनी गई। मानों स्वयं भगवान श्री गुरु की आज्ञा का पालन करने को तत्पर थे। ऐसी थी, दक्षिण भारत के शिष्य कुरेश की अनन्य गुरु-भक्ति! जिसने गुरु को सदा के लिए अपनी पलकों में कैद कर लिया था!

साभार अखंड ज्ञान ;अगस्त २०१४द्ध

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