ये प्रसंग राधानाथ स्वामी की प्रसिद्ध पुस्तक अनोखा सफर - एक अमेरिकी स्वामी की आत्म कथा से लिए गए हैं 19 वर्ष की उम्र में रिचर्ड स्लेविन नामक एक रोमांच प्रिय अमेरिकी युवक अध्यात्म की खोज में शिकागों स्थित अपने घर को छोड़कर युरोप एवं मध्य-पूर्व एशिया के स्थल मार्ग से चल कर भारत पहुॅंचतें हैं भरत में आकर हिमानय के वनों एवं गुफाओं, योगयों, नागा बाबाओं, लामाओं एवं आयु सन्तों के सान्ध्धिय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। अनन्तः उनकी यात्रा उन्हें भारतिीय अध्यात्म के केन्द्र बिन्दृ तक ले जाती है और वह एक प्रसिद्ध गुरू के रूप में भारत माता की सेवा करते हैं परमसत्य की खोज में उनकी यह साहसपूर्ण यात्रा अनके परीक्षाओं खतरों से प्रलोभनों से भर है तथा हम सबके लिए एक अद्भुत मार्गदर्शिका है
मैंने ऋषिकेश को छोड़कर उत्तर में हिमालय की और ऊँचाइयों पर जाने का निश्चय किया। देव प्रयाग में मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसका चरित्र मेरे मानसपटल पर सदा-सदा के लिए अंकित रहेगा। एक सर्द सुबह जब तारे धूमिल हो रहे थे और नये दिन का सूर्य उदित होने ही वाला था, मैं पर्वत से उतरकर उस स्थान पर पहँुचा जहाँ भागीरथी और अलकनन्दा का संगम होता है। इस संगम से आगे नदी का नाम गंगा पड़ता है। वहाँ नदी का गीत कोलाहलपूर्ण था। नदी के भीषण प्रवाह की शक्ति से अनभिज्ञ मैं स्नान हेतु उसमें उतर पड़ा। मैंने जैसे ही एक कदम बढ़ाया तेज प्रवाह ने मेरे पैर उखाड़ दिये और मैं खतरनाक ढलानों की ओर बहने लगा। उसी समय मेरे निकट स्नान कर रहे एक बलवान व्यक्ति ने मेरी भुजा को अपने शिकंजे में पकड़कर खींचा और मुझे तट तक ले गया। मेरे रक्षक ने फिर अपनी दाहिनी हथेली मेरे सिर पर रखी और पूरे हृदय से मेरे संरक्षण के लिए मन्त्रों का जप करने लगा। इस प्रकार मैं पहली बार कैलाश बाबा से मिला।
मैंने ऋषिकेश को छोड़कर उत्तर में हिमालय की और ऊँचाइयों पर जाने का निश्चय किया। देव प्रयाग में मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसका चरित्र मेरे मानसपटल पर सदा-सदा के लिए अंकित रहेगा। एक सर्द सुबह जब तारे धूमिल हो रहे थे और नये दिन का सूर्य उदित होने ही वाला था, मैं पर्वत से उतरकर उस स्थान पर पहँुचा जहाँ भागीरथी और अलकनन्दा का संगम होता है। इस संगम से आगे नदी का नाम गंगा पड़ता है। वहाँ नदी का गीत कोलाहलपूर्ण था। नदी के भीषण प्रवाह की शक्ति से अनभिज्ञ मैं स्नान हेतु उसमें उतर पड़ा। मैंने जैसे ही एक कदम बढ़ाया तेज प्रवाह ने मेरे पैर उखाड़ दिये और मैं खतरनाक ढलानों की ओर बहने लगा। उसी समय मेरे निकट स्नान कर रहे एक बलवान व्यक्ति ने मेरी भुजा को अपने शिकंजे में पकड़कर खींचा और मुझे तट तक ले गया। मेरे रक्षक ने फिर अपनी दाहिनी हथेली मेरे सिर पर रखी और पूरे हृदय से मेरे संरक्षण के लिए मन्त्रों का जप करने लगा। इस प्रकार मैं पहली बार कैलाश बाबा से मिला।
कैलाश बाबा लगभग साठ वर्ष के थे। उनका शरीर बलशाली था और उन्होंने अपनी सफेद होती जटाओं को सिर पर बाँधा हुआ था। जब वे जटायें खोलते तो वें जमीन तक लटक जातीं। अनेक दशकों से उन्होंने अपने शरीर के किसी भी बाल को नहीं काटा था। उनका चेहरा चैकोर, लम्बी भूरी आँखें, ऊँचे कपोल और मुँह में सारे दाँत सलामत थे, जो वृद्ध साधुओं में अत्यन्त दुर्लभ है। उनके तन पर कन्धों से पैरों तक एक ही वस्त्र था। वे अपने हाथ में लोहे का एक त्रिशूल रखते थे जिसके ऊपर एक बड़ा डमरु बँधा रहता था। उस डमरु के दो सिर थे, प्रत्येक का व्यास लगभग बारह इंच था और उसके बीच रस्सी से बँधी एक गेंद लटकी हुई थी। जब बाबा डमरु हिलाते तो वह गंेद घूमती हुई दोनों सिरों पर टकराकर ऊँची आवाज करती। लोहे का एक भिक्षापात्र और एक पुराना कम्बल उनकी सम्पत्ति का कुल हिस्सा था।
कैलाश बाबा ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मुझे सिखाया कि एक यायावार साधु को कैसे जीवन यापन करना चाहिए। ठण्डी रातों में हम नदी को देखते-देखते पहाड़ों के किनारे सो जाते। एक रात उन्होंने मुझे अपना कम्बल दिया और मेरे बार-बार मना करने पर भी वे जोर देते रहे। तत्पश्चात् अनेक रातों तक हम एकसाथ एक ही कम्बल में सोये। उन्होंने मुझे सिखाया कि कैसे जंगल के कंदमूल, फलों और पत्तों की पहचानकर भोजन और औषधियाँ प्राप्त की जा सकती है।
मुझे गाँव में ले जाकर उन्होंने सिखाया कि किस प्रकार सद्व्यवहार के साथ साधु आदरपर्वूक भिक्षा माँगता है। पश्चिम संस्कृति के विपरीत यहाँ साधुओं द्वारा गाँवों में भिक्षा माँगना जीवन यापन का एक सम्मानजनक तरीका माना जाता है, क्योंकि लोग साधुओं से इतना कुछ पाते हैं कि बदले में वे भिक्षा देकर उनकी सेवा करते हैं। कैलाश बाबा जैसे महान् व्यक्ति को भिक्षा माँगता देखकर मुझे लगा कि भिक्षा माँगना भी एक महान् कार्य है। उन्होंने मुझे सूखे चिवड़े पर निर्वाह करना सिखाया। यह सबसे सस्ता भोजन है और कोई भी बनिया प्रसन्न्ातापूर्वक इसे दे देता है, और क्योंकि यह जल्दी खराब नहीं होता इसलिए जंगल में हफ्तों तक इसे खाकर निर्वाह किया जा सकता है। भोजन के लिए उसमें केवल नदी का जल मिलाने की आवश्यकता है। उन्होंने मुझे सिखलाया कि कैसे शरीर को रगड़कर नहाना। खाने और स्वच्छ रहने की शिक्षाओं के अतिरिक्त उन्होंने मुझे न केवल पवित्र नदियों, मंदिरों, वृक्षों, सूर्य, चन्द्र और यज्ञाग्रि का, अपितु साँप, बिच्छू एवं सभी जंगली जानवरों का भी आदर करना सिखाया। वे अंग्रेजी नहीं बोलते थे, लेकिन उनमें अपने विचार मुझ तक सम्प्रेषित करने की एक जादुई शक्ति थी, विशेषतः यह विचार कि भगवान् सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं। उदाहरणतः उन्होंने मुझे एक विषैले साँप के हृदय में स्थित आत्मा को देखना और उसे चले जाने का रास्ता देकर उसका सम्मान करना सिखाया। साधुओं की संगत के दौरान अन्य साधुओं को विभिन्न्ा उपाधियों के आधार पर सम्बोधन करना और उनके साथ भोजन करने का शिष्टाचार भी उन्होंने मुझे सिखाया।
एक साथ भ्रमण करते हुए वे धीरे-धीरे मेरे पिता तुल्य बनते गये और वे मुझपर इतना प्रेम बरसाने लगे मानो मैं उन्ही का पुत्र हँू। यद्यपि हमने कभी बात नहीं की, किन्तु जहाँ हृदय में परस्पर स्नेह होता है वहाँ भावनाओं की अभिव्यक्ति भाषा की सभी सीमाओं को लाँघ जाती है। एक सादे संकेत से, अँगुली दिखाने, मुस्कुराने या भौंहे सिकोड़ने से उन्होंने मुझे वह सब कुछ सिखा दिया जिसकी मुझे आवश्यकता थी। दिखने में वे एक भयंकर ऊबड़-खाबड़ पहाड़ जैसे व्यक्ति लगते, जो तपस्या से कठोर होकर हाथ में त्रिशलू उठाये घूमते थे। किन्तु मैंने उनमें एक ऐसा व्यक्ति पाया जो मुझे अबतक मिले सर्वाधिक दयालु और सज्जन पुरुषों में से एक था। हम जो भी सादा भोजन एकत्रित करते वे पहले मुझे भरपेट खिलाते और फिर स्वयं खाते। जब मैं पहले खाने से मना करता तो वे अपनी अबोध दृष्टि द्वारा सहजता से मुझे पराजित कर देते। वास्तव में वे जब भी मेरी ओर देखते स्नेहभरे आँसू उनकी आँखों में उमड़ आते। स्नेह के एक पर्वत तुल्य कैलाश बाबा के प्रति मेरे हृदय में ऐसा प्रेम था जैसा एक आजीवन मित्र के प्रति रहता है।
उनसे एवं अन्य लोगों से मैं हिन्दु धर्म में पाये जाने वाले भगवान् के विभिन्न्ा रूपों और देवी-देवताओं के विषय में जानने लगा। मैं उन देवताओं की प्रतिमाओं और उनके द्वारा लिये गये विभिन्न्ा स्वरूपों के विषय में कुछ निश्त् िनहीं कर पा रहा था, क्योंकि मेरे लिए वे सभी नये थे। किन्तु मैं देख सकता था कि ये मूर्तियाँ गहरे प्रेम और भाक्ति को प्रेरित करती हैं। मेरे मन के द्वार खुले थे और मैं सबकुछ समझने के लिए उत्सुक था।
कैलाश बाबा के आराध्य देव शिवाजी थे। शिवजी ईश्वर के वे स्वरूप हैं जो भौतिक जगत् और उसके संहार का नियंत्रण करते हैं। कैलाश बाबा निरन्तर ओअम् नमः शिवाय मन्त्र का जप करते रहते। जब हम जंगली पथ से गुजरते तो वे ऊँची आवाज में शिव-पार्वती के नाम पुकारते, ‘‘जय शंकर,’’ ‘‘हे विश्वनाथ,’’ ‘‘हे केदारनाथजी,’’ ‘‘जय श्रीपार्वती,’’ और ‘‘हे उमा माता,’’। जब भी हम अन्य शैवों के पास होते तो हम एकसाथ मंत्रोच्चारण करते। कीर्तन जब अपनी पराकाष्ठा पर पहँुच जाता तो कैलाश बाबा हर्षातिरेक में जोर-जोर से अपना डमरु बजाने लगते। उसकी आवाज लगभग बहरा कर देने वाली होती। वह डमरु साधुओं को हर्ष से उन्मादित कर देता। वे पागलों की भाँति अपना सिर घुमाने लगते और उनकी जटायें इधर-से-उधर लहराने लगती। कुछ साधु ताली बजाते और शेष अपने पैरों पर खडे़ होकर एक दैवी नृत्य करने लगते।
बिना ठौर-ठिकाने के रहने वाले इन साधुओं में कैलाश बाबा का बहुत सम्मान था। जंगल में एक वृद्ध तपस्वी ने मुझे चुपचाप बताया कि कैलाश बाबा सैकड़ों वर्ष बूढ़े हो सकते हैं। किसी को भी उनकी वास्तविक उम्र का ज्ञान नहीं था। उनके पास रोगियों को ठीक करने और अद्भुत कार्य करने की अलौकिक योग-सिद्धियाँ थीं। ‘‘लगभग तीस वर्ष पूर्व मैंने प्रत्यक्ष इनके चमत्कारों को देखा था,’’ उस व्यक्ति ने कहा। ‘‘लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी और बाबा को भगवान् की तरह पूजने लगी। लेकिन बाबा ने जान लिया था कि आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य सिद्धियों या ख्याति की प्राप्ति नहीं है। उन्होंने प्रण लिया कि वे कभी भी अपनी इन शक्तियों का प्रदर्शन या वर्णन नहीं करेंगे। उन्होंने न तो शिष्य बनाये और न ही कोई आश्रम खोला, अपितु अकेले हिमालय के वनों में घूमते रहे।’’ मुझे यह जानकर आश्चर्य नहीं हुआ कि कैलाश बाबा के पास महान् योग शक्तियाँ थीं। निश्चित् ही मैं उनसे प्रभावित था, किन्तु मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया उनके चरित्र ने और अपने आध्यात्मिक मार्ग के प्रति उनकी समर्पित भक्ति ने।
जैसे-जैसे दिन बीते मुझे एहसास होने लगा कि कैलाश बाबा की एकान्त में जाने की इच्छा हो रही है। मैं उनपर बोझ नहीं बनना चाहता था और समझ गया कि मेरे लिए भी अब आगे बढ़ने का समय आ चुका है। उनके चरणों में प्रणाम करते हुए मैंने उनसे आशीर्वाद की याचना की। बाबाजी ठहाका लगाकर हँस पड़े। फिर उनकी आँखों में आँसू भर आये और उन्होंने कसकर भालू के समान मेरा आलिंगन किया। तब एक मन्त्र उच्चारण करके उन्होंने मुझे अपना आर्शीवाद दिया। विदाई के समय उनके हृदय की कोमलता और विरक्ति की दृढ़ता ने मुझे छू लिया। हम एक-दूसरे से एक पिता और पुत्र के समान प्रेम करते थे, किन्तु हम समझ गये कि विचरते साधु होने के कारण हम पुनः कभी नहीं मिल पायेंगे।
लोगों से मधुर सम्बन्ध बनाना और उन्हें छोड़कर पुनः आगे बढ़ जाना, यह कड़वा-मीठा अनुभव मेरे द्वारा चुने गये जीवन का एक अंग बन चुका था। यह मेरे लिए कठिन था। लेकिन विरह की पीड़ा सम्बन्धों की मधुरता को मेरे हृदय में जीवन्त बनाये रखती। मुडकर कैलाश बाबा से दूर जाते हुए मैंने प्रार्थना की कि मैं उन्हें कभी न भूलूँ। और आज भी वे मेरे हृदय में विद्यमान है।
साभार: अनोखा सफ़र
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