Tuesday, August 5, 2014

राधानाथ स्वामी की अध्यात्मिक खोज यात्रा part-4

            एक दिन एक शुभचिन्तक ने घनश्याम बाबा को नये कपड़े दिये। उन्होंने लजाते हुए उनसे दृष्टि हटाई और कहने लगे। ‘‘यह शरीर भक्तों द्वारा पहने गये पुराने वस्त्रों को ही स्वीकार करता है।’’ घनश्याम बाबा केवल उन्हीं वस्त्रों को पहनते थे जिन्हें पहले किसी साधु ने पहना हो। ऐसे वस्त्रों को वे अमूल्य मानते थे।
            एक अन्य रात्रि मैंने घनश्याम बाबा को अकेले बैठकर एक छोटे हार्मोनियम पर सन्दुर राग गाते सुना। भक्ति में लीन वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि कब मैंने उनके कमरे में प्रवेश किया। यद्यपि मैं उनके गीत की भाषा नहीं समझ पा रहा था, उनकी भक्ति की मधुरता ने मुझे सबकुछ समझा दिया। कभी उनके स्वर हर्ष से झूम उठते और कभी वे अपने प्रियतम से विरह की भावना में विषाद करते। मुझे बताया गया था कि वे अपनी युवावस्था में एक राजा के दरबार में प्रमुख संगीतज्ञ थे। वे अपने गायन में इतने मग्र थे कि एक घण्टा बीतने के पश्चात् उनका ध्यान मुझपर गया। मुझे देखकर वे पुलकित हो गये। ‘‘कृष्णदास, तुम आ गये।’’ फिर उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘क्या तुम गोपीजनवलभ को सुलाने में मेरी सहायता करोगे?’’ पचास वर्षों से प्रत्येक रात्रि वे ऐसा कर रहे थे, किन्तु अब वृद्धावस्था के कारण वे उन्हें उठाकर सुलाने में अक्षम थे। उनकी सहायता करना मेरे लिए गौरव की बात थी।
            जब मैं जाने लगा उन्होंने पूछा, ‘‘कृष्णदास, आज रात तुम कहाँ सोओगे?’’
            ‘‘युमना के तट पर, जहाँ मैं प्रतिदिन सोता हँू।’’
            उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और मेरे सिर पर एक चिन्तित पिता के समान हाथ फेरने लगे। ‘‘किन्तु बाहर ठिठुराती ठण्ड है। आज रात तुम यहीं सो जाओ।’’
            ‘‘किन्तु बाबाजी मैं प्रत्येक रात्रि वहीं सोता हँू।’’
            ‘‘किन्तु आज तुम यहीं सो जाओ।’’
            वे कक्ष के बाहर एक छोटे गलियारे के फर्श पर सोते थे। घर के लोग उनके इर्द-गिर्द चलकर उस रास्ते से घर में आते-जाते थे। जब मैं फर्श पर सोया तो घनश्याम बाबा ने अपना एकमात्र कम्बल मुझे ओढ़ा दिया।
            मैं यह कैसे सहन कर सकता था। उस फटे-पुराने कम्बल को मैंने उन्हें वापस सौंप दिया। ‘‘यह आपका कम्बल है। आपको ही इसका उपयोग करना चाहिए।’’
            ‘‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, कोई आवश्यकता नहीं है।’’ ऊँची आवाज में कहते उन्होंने कम्बल लेने से मना कर दिया।
            ‘‘आप वृद्ध हैं और मैं अभी युवा हँू। आपको ही इसका उपयोग करना चाहिए।’’ मैंने फिर से उन्हें कम्बल दे दिया।
            किन्तु वे उछल पड़े, ‘‘नहीं चाहिए, नहीं चाहिए।’’
            एक वाद-विवाद शुरु हो गया। उनके जबरदस्ती करने पर मैंने वापस नदी के तट पर जाने की धमकी दी। मैंने कम्बल नीचे रखा और दरवाजे की ओर चल दिया।
            ‘‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं।’’ उन्होंने कम्बल उठा लिया। ‘‘ठीक है, मैं ही इसे ओढूँगा।’’
            मैं उनके निकट लेट गया और सर्दियों की उस ठण्डी रात को गरमाहट के लिए सिकुडकर सो गया। कुछ समय पश्चात् गरमाहट का अनुभव होने पर मेरी नींद टूटी। मैंने फर्श पर लेटे हुए घनश्याम बाबा की ओर देखा जो तूफान में हिलते पत्ते के समान सर्दी से काँप रहे थे। उनके ऊपर कोई कम्बल नहीं था। मैं समझ गया कि उन्होंने मेरे सोने के पश्चात् वह कम्बल चुपके से मेरे ऊपर डाल दिया था। धीरे से मैंने वह कम्बल उन्हें ओढ़ा दिया।
            जैसे ही कम्बल ने उनका स्पर्श किया वे उछल पडे़ और चिलाये, ‘‘कोई जरुरत नहीं है। कोई जरुरत नहीं है। तुम श्रीकृष्ण के मित्र हो। तुम्हे अच्छी नींद लेनी चाहिए।’’
            ‘‘फिर मैं यमुना पर चला जाऊँगा, ‘‘मैंने जोर से कहा और दरवाजे की ओर चल दिया।
            वे फिर से उस कम्बल को स्वीकारने के लिए मान गये, किन्तु बाद में रात को पुनः गरमाहट पा मेरी नींद खुल गई। घनश्याम बाबा का दुर्बल शरीर सर्दी में बुरी तरह से काँप रहा था। मैंने फिर से उनपर कम्बल रखने का प्रयत्न किया। ‘‘कोई आवश्यकता नहीं है, कोई आवश्यकता नहीं है।’’
            घनश्याम बाबा जिनसे भी मिलते उनकी सेवा करना उन्हें बहुत अच्छा लगता। पिछले पचास वर्षों में भगवान् के लिए पानी लाने के अतिरिक्त वे उस छोटे-से मंदिर के आसपास के क्षेत्र को छोड़कर कहीं नहीं गये थे। वास्तव में वे सपने में भी अपने विग्रहों को छोड़कर जाने का विचार नहीं करते थे। उनकी सेवा के लिए उन्होेंने अपना जीवन और प्राण समर्पित कर दिये थे।
            एक दिन प्रातः जब मैं नदी से आ रहा था मैंने एक सुनसान गली में वृद्ध घनश्याम बाबा को कठिनाई से चलते देखा। मैं सहायता के लिए दौड़ा। बड़ी मुश्किल से वे पानी की एक बाल्टी उठाने का प्रयत्न कर रहे थे, जो विग्रहों के स्नान के लिए उन्होंने यमुना से भरी थी। हर कुछ पग चलने के बाद वे थककर खडे़ हो जाते।
            ‘‘बाबाजी, कृपया मुझे अपनी बाल्टी उठाने दीजिए।’’
            एक कठोर दृष्टि से देखकर उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘कोई जरुरत नहीं है, कोई जरुरत नहीं हैैै।’’
            मैं उन्हें इस प्रकार कठिन परिश्रम करता हुआ नहीं देख सकता था।
            ‘‘कृपया मुझे उठाने दें। मैं युवा हँू। बिना किसी कठिनाई के मैं इसे पाँच मिनट में मंदिर तक पहँुचा दूँगा। आप वृद्ध और दुर्बल हो गये हैं। आपको आधा घंटा लगेगा। कृपया मुझे ले जाने दें।’’
            उनके चेहरे पर बच्चे जैसी मासूम मुस्कुराहट खिल आई और वे अनुरोध करने लगे, ‘‘तुम गोपीजनवलभ के युवा मित्र हो। तुम सुख से रहो। मैं उनका बूढ़ा सेवक हँूं। मेरा जीवन सेवा के लिए ही है। तुम जाओ और वृन्दावन का आनन्द लो। उसी में मेरी प्रसन्न्ाता है।’’
            उनकी नम्रता से मेरा हृदय पिघल गया लेकिन मन चिन्तित हो उठा। ‘‘कृपया मान जाइये। आपकी बाल्टी उठाने में मुझे सबसे अधिक प्रसन्न्ाता होगी।’’ मैंने बाल्टी के हैण्डल को पकड़कर खींचा। बाबाजी की पूरी देह पेड़ के समान तन गई। दृढ़ता से अकड़कर उन्होंने पूरी शक्ति से उस हैण्डल को पकड़ लिया। उन्होंने उसे इस प्रकार जकड़ लिया जैसे पहाड़ की चोटी से निःसहाय लटकता व्यक्ति उस रस्सी को पकड़ता है जो उसे मौत से बचाकर रखती है।
            उन्होंने हताशा से मेरी आँखों में झाँका। ‘‘मैं एक गरीब बूढ़ा व्यक्ति हँू। मेरी एकमात्र सम्पत्ति मेरी सेवा है।’’ उनकी आँखें लाल हो गई और उनमें आँसू भर आए। ‘‘यदि तुम भगवान् की मेरी सेवा छीन लोगे, तो तुम मेरे प्राण ही ले लोगे। कृपया मुझे जीने दो। कृपा करो।’’
            मेरा हृदय बैठ गया। मैं कर ही क्या सकता था? मैंने उन्हें उनका जीवन लौटा दिया, और बाल्टी भी। किन्तु जब उन्होंने देखा कि मैं उनके प्रति कितना चिन्तित था, वे मेरे साथ मिलकर उसे उठाने के लिए राजी हो गये। चलते हुए वे हर मिनट मुझसे पूछाते कि मैं ठीक तो हँू।
            एक रात्रि घनश्याम बाबा ने मुझे राधारानी के गाँव बरसाना जाने का सुझाव दिया। वे जोर देते हुए बोले, ‘‘कृष्णदास, बरसाना का अनुभव करके तुम्हारा जीवन बदल जायेगा।’’ मेरे उत्साह को देखकर उन्होंने लजाते हुए कहा, ‘‘जब तुम वहाँ जाओ तो राधारानी से कहना कि उनका तुच्छ सेवक घनश्याम उनका दर्शन करना चाहता है।’’
            मेरा हृदय गुमनामी में रहने वाले इन छोटे-से वृद्ध व्यक्ति से बहुत प्रभावित हुआ था। वे केाई बडे़ विद्वान, विख्यात् गुरु या सिद्ध योगी नहीं थे। किन्तु वे एक सच्चे सन्त थे और उनकी नम्रता भगवान् के प्रति उनके प्रेम की अभिव्यक्ति थी।
            एक समय मैं अन्य पश्चिमवासियों के समान सोचता था कि नम्रता स्वयं को तुच्छ समझने की एक चेष्टा है अथवा आत्मविश्वास के अभाव को दर्शाने वाली एक कमजोरी। यहाँ तककि यह एक नकारात्मक सनक है जो आगे चलकर हीन भावना या निराशा में बदल सकती है। किन्तु घनश्याम बाबा जैसे लोगों के संग में मैंने पाया कि सच्ची नम्रता इसके विपरीत है, क्योंकि यह हमें एक ऐसी अनन्त शक्ति से जोड़ती है जो हमारी स्वयं की शक्ति से कहीं अधिक श्रेष्ठ है-वह है कृपा की शक्ति। सच्ची नम्रता का अर्थ है भगवान् की महानता में गर्व का अनुभव करना और अन्यों के गुणों के प्रति सच्ची सराहना रखना।
            मैं समझने लगा कि सच्ची नम्रता का अर्थ यह नहीं है कि मुझे कायर बनकर चुनौतियों से भागना होगा। अपितु सच्ची नम्रता मुझे निष्ठा, आदर, प्रेम और कृतज्ञता के साथ अपने पूरे साधन जुटाकर चुनौतियों पर विजय प्राप्ति हेतु चेष्टा करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी नम्रता द्वारा हम भगवान् के हाथों में एक निमित्त मात्र बनने का प्रयास करते हैं।
            स्वयं को दूसरों से अच्छा समझना हमें अपने जीवन की एक आवश्यकता लगती है। सच्ची नम्रता इस विकृत मानसिकता से परे एक गहरा सिद्धान्त सिखलाती है। वह सिद्धान्त हमें घमण्डी बनने और अपने से छोटों पर रौब जताने से बचाता है। नम्रता का गुण हमें उन लोगों से ईष्र्या करने से रोकता है जो हमसे अधिक निपुण है। जब व्यक्ति नम्र होता है तो वह कृतज्ञ हो जाता है तथा भगवान् एवं उन सभी को श्रेय देता है, जिन्होंने कभी उसकी सहायता की थी। एक नम्र हृदय वाला व्यक्ति सरलता से अपनी गलतियों को स्वीकार कर लेता है तथा और अधिक सीखने के लिए तैयार रहता है। नम्र बनना अपने अहम् को मारना नहीं है, अपितु ऐसे सच्चे अहम् को जगाना है जो सदैव ईश्वर तथा अन्य लोगों से प्रेम करने के लिए तत्पर रहता है।

            मैं सीख रहा था कि सर्वाधिक गहन रहस्य यह है कि जिस स्तर तक व्यक्ति में ये महान् गुण होते हैं, वह स्वयं को अत्यन्त तुच्छ, भगवान् का अंश और सभी का सेवक मानता है। दूसरों की निःस्वार्थ सेवा ही घनश्याम बाबा के हृदय का एकमात्र आनन्द थी। घनश्याम बाबा मुघ्े अबतक मिले सर्वाधिक धनी और सुखी लोगों में से एक थे। ऐसे सरल व्यक्ति जो सहज हृदय से भगवान् से प्रेम करते थे।

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