Friday, August 8, 2014

संत ज्ञानेशवर का आत्मनिर्माण Part - 4

दोनों अपने आॅंगन तक पहुॅंच गए। निवृत्ति और मुक्ता उत्सुक कदमों से उनकी तरफ बढ़े। ज्ञानेशा कुछ नहीं बोला। कुटिया में प्रवेश कर, उसने किवाड़ बंद कर लिए। भीतर से सांकल भी जड़ दी। बाहर आॅंगन में सोपान ने रोते-रोते सारा प्रसंग कह सुनाया।
अब हम जरा साधारण स्तर पर विचार करें। सामान्यतः ऐसी स्थिति में क्या प्रतिक्रिया होती है? भयंकर विलाप! तीव्र उबाल व उफान! प्रचंड प्रतिशोध का धधक उठना! मुख से अपशब्दों के अंगार उगलना..... और यदि ये सब न भी हों, तो घोर मानसिक हिंसा होना। अक्सर हम और आप अपमानित होने पर ऐसी ही प्रतिक्रिया करते हैं।
            लेकिन इन प्रगतिशील साधकों का क्या व्यवहार रहा? (वैसे तो शास्त्र मत है कि श्री ज्ञानदेव महाराज साक्षात् भगवान विष्णु के ही अवतार थ। परन्तु यहाॅं इस प्रसंग में उन्होंने अपने भाई-बहनों के संग संघर्षशील साधक कैसे होते हैं - इसकी अभिव्यक्ति की है।)
            सारी बात सुनते ही श्री निवृत्ति तुरन्त सक्रिय हुए। सोपान के मस्तक पर हाथ धरा और कहा- धैर्य! धैर्य धरो, सोपान!... मुक्ता, जा इसके लिए शीतल जल ले आ।मुक्ता मिट्टी के कुल्हड़ में जल ले आई। सोपान गटागट पी गया। पर तब भी उसकी हिचकियाॅं बंद नहीं हुई। आवाज सुबकियों के फंदे में अब भी फंसी थी। कुपोषित देह काॅंप रही थी। सोपान ने अपनी विवशता व्यक्त की - निवृत्ति दादा! धैर्य नहीं बंध रहा। क्या करूॅं
            श्री निवृत्ति तुरन्त बोले - ध्यान करो! परम-चेतना का चिंतन करो! साधना में लीन हो जाओ!सोपान ने एक पल का भी विलम्ब नहीं किया। वह एकदम से उठा और श्री निवृत्ति को प्रणाम कर बरगद की छाॅंव तले रखी शिला पर जा बैठा। पद्मासन लगाया और उच्च स्वरों में उच्चारण की उठा - ओऽऽऽऽउ...म्...!ओउम् धुन धीरे-धीरे मद्धम हुई, फिर मौन हो गई। सोपान अंतर्जगत् की गहराईयों में पैठता चला गया। ऐसी गहराई, जहाॅं परम-चैतन्यमयी माॅं का ममतामयी प्यार भी था, परम-पिता का सांत्वना भरा दुलार भी था। उसे अपने से अपने का संरक्षण मिल रहा था।
            इधर बहन मुक्ता ने धीमे से स्वर में, लगभग फुसफुसाते हुए श्री निवृत्ति से कहा- दादा! क्या हमें सोपान को तनिक समझाना नहीं चाहिए था? उसे सांत्वना भरे दो शब्द ही कह देते तो... उसे सहारा मिल जाता!श्री निवृत्ति ने गहरी सांस भरी, मानो आत्मज्ञान के सागर में डुबकी लगाकर अमूल्य मोती निकाला हो- नहीं मुक्ता! अभी कोई भी बात करना उचित नहीं था। सोपान से कुछ भी कहते, तो वह व्यावहारिकता से ओत-प्रोत होता। व्यावहारिक गणित के पास इस स्थिति का कोई हल नहीं है। इसलिए अभी बातचीत करने से अगर कुछ हाथ लगता, तो सिर्फ नकारात्मकता! हम अपने मन पर द्वेष और गहरा रमा देते। अपना आत्म-पतन कर डालते। पर अब ऐसा नहीं होगा। पतन नहीं, उत्थान होगा। (सोपान की ओर देखते हुए)...वह देख मुक्ता, सोपान सीढि़याॅं चढ़ रहा है। वह मन बु़िद्ध और व्यावहारिकता के गणित के पार जा रहा है।
            मुक्ता एकटक सोपान को देखती रही। उसकी सुबकियाॅं गुम हो गई थीं। वह आत्मलीन था। उसके चेहरे पर सौम्यता बिखर आई थी। माथे की सिलवटें भी गायब हो चुकी थीं। वह ठहर गया था। ठीक जैसे किसी घड़ी की चलायमान सूइयाॅं प्रगाढ़ चुम्बकीय क्षेत्र में पहुॅंचकर थम जाती हैं। वह समर्पित सा दिख रहा था। ठीक जैसे एक उत्पाती बालक थक-हार कर अपनी माॅं के सामने आत्म-समर्पण कर देता है- तू जो करे, जैसे करे- तेरी इच्छा! मैं समर्पित हूॅं!
            पाठकगणों! यह तर्कों से परे की स्थिति होती है। यहाॅं पहुॅंचकर साधक का दिमाग जमा-घटा करना छोड़ देता है। शून्य को अर्पित हो जाता है। सोपान इसी अवस्था में स्थित हो गया था। उसकी इस सूक्ष्म अवस्था को मुक्ता देख रही थी, समझ पा रही थी। क्योंकि उसके पास भी आत्मज्ञान की दृष्टि थी। वह खुश हो गई। श्री निवृत्ति उसके पास आए और कान में धीरे से बोले- क्या तेरे और मेरे असहाय शब्दों से उसे इतनी सहायता मिल पाती? देख, अब उसे हमारी जरुरत ही नहीं। उसे जो चाहिए था, वह भीतर मिल रहा है!
            मुक्ता ने झूमते हुए हल्की-सी ताली बजा दी- सच भईया! आप ठीक कह रहे हैं। सोपान भईया तो ब्रह्मलोक की सैर पर निकल गए हैं। अब उनकी कोई चिंता नहीं... पर भईया....मुक्ता के चेहरे पर पुनः काली घटाएॅं घिर आईं। वह बरबस ही कुटिया की ओर घूम गई। द्वार अब भी बंद था। मुक्ता ने निरही नज़र से श्री निवृत्ति की ओर देखा। उसकी आॅंखों में बड़ा सा प्रश्नचिह्न था, जो उनसे मार्गदर्शन माॅंग रहा था।
            श्री निवृत्ति गंभीर वाणी में बोले-मुक्ता! यह जो हमारा ज्ञानदेव है, यह संसार में रहकर भी संसार से बहुत ऊपर रहता है। शायद विसोबा चाटी के व्यवहार से थोड़ा क्षुब्ध हो गया है। ऐसे में, हमें उसकी आत्म-स्थिति का उसे फिर से बोध कराना होगा। वह तुम ही कर सकती हो, मुक्ता। जाओ...मुक्ता की पीठ थपथपा कर श्री निवृत्ति स्वयं ध्यानस्थ हो गए।
            मुक्ता आगे बढ़ी। द्वार खटखटाया, बोली- ज्ञानेशा भईया! किसी से रूठे हो क्या? दरवाजा खोलो न!मुक्ता के स्वर में मनुहार थी। पर फिर भी दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं मिला। सन्नाटा छाया रहा। ऐसा लगता था, मानो ज्ञानदेव गुमसुम हो गए हैं। मुक्ता ने पुनः सरस पुकार लगाई- ज्ञानू भईया! एक बार बाहर तो आओ। देखो न, आपकी छोटी सी, प्यारी सी बहन मुक्ता आपसे कुछ कहना चाहती है।प्रत्युत्तर अब भी मौन ही था।
            इतिहास बताता है, यह नन्हीं-सी साधिका मुक्ता ज्ञानवृद्धा थी। जब उसने अपने बड़े भाई ज्ञानदेव को मूक पाया, तो उसकी साधकता प्रखर हो उठी। उसके अंतःकरण से ऐसे अभंग प्रकट हुए, जिनमें गीता जैसा सार था! आत्मज्ञान का भाव था! इनका लक्ष्य था - ज्ञानदेव आनंदकंद होकर दरवाजा खोल दें और कुटिया के बाहर आ जाएॅं। इन अभंगों की हर अंतिम पंक्ति में मुक्ता कहती है-  द्वार खोलो, भईया ज्ञानेश्वर!
            मुक्ता ने तीसरी बार द्वार खटखटाया और गा उठी-
हे योगी! मन पावन रखिए। सबके अपराधों का सहिए।
विश्व भले ही आग लगावै। संत तुरंत पानी बन जावै।।
शब्दशस्त्र के घाव हुए जो, मल्हम संत-उपदेश को समझो।
एक ही धागा विश्ववस्त्र में, परब्रह्म को राखो मन में।।
क्रोध तजो दुःख को त्यागो, मन अपने को शांत करो।
खोलो किवाड़ भईया मेरे, मुझ पर थोड़ी कृपा करो।।
            भावार्थ- हे ज्ञानेशा भईया! आप तो महान योगी हैं। आपका मन परम-पावन है। जन-साधारण के अपराधों पर मन मैला मन करो। जब विश्व में कहीं भी आग लगती है, तो संत पानी बनकर अग्नि को बुझाते हैं। मैं जानती हूॅं, आप पर विसोबा चाटी ने बड़ी निर्दयता से शब्दों के शस्त्र चलाए हैं। उनसे आपके अंतर्मन में बहुत क्लेश हुआ है। पर भईया, इस शब्द-शस्त्र के आगे आप ज्ञान-शस्त्रछोड़ दो। संतों के उपदेशों को याद करो। सब संतों ने कहा है- यह सम्पूर्ण विश्व एक विराट वस्त्र है, जो एक ही धागे से बना हुआ है। वह धागा है- परब्रह्म परमेश्वर! वही एक वास्तविकता है, अन्य कुछ नहीं! इसलिए भईया, उन परब्रह्म पर चित्त लगाओ। आनंदित होकर किवाड़ खोलो और अपनी छोटी बहन के लिए बाहर आओ।
मुक्ता ने चैथी बार द्वार खटखटाया। फिर अगला अभंग गाया-
            अपने हाथों चोट लगे जब, क्या हम हाथ काटते हैं तब?
            कभी जीभ दाॅंतों से दबती, दंतपंक्ति नहीं तोड़ी जाती।
            सब अपने हैं, नहीं पराए, एक ब्रह्म के सब हैं जाये।।
            उन पर यदि तुम रोष करोगे, परमपित को ही दुःख दोगे।
            परब्रह्म को यदि है पाना, हॅंसते-हॅंसते सब सह जाना।।
            विकारों के वश न होकर, श्रेष्ट विचार ही धारण करो।
            खोलो किवाड़ भईया मेरे, मुझ पर थोड़ी कृपा करो।।
भावार्थ- सोचो भईया, जब अपने ही हाथों से हमें कभी चोट लग जाती है, तो क्या हम उस हाथ को काट डालते हैं? जब अपने ही दाॅंत जीभ को आहत करते हैं, तो क्या हम अपनी दंत-पंक्ति तोड़ देते हैं? नहीं न! इसी तरह हम सभी उस परब्रह्म पिता की विराट देह के अंग हैं। कोई अपना, कोई पराया नहीं; हम सभी उसी की अभिव्यक्ति हैं। ऐसे में अगर एक अंग (व्यक्ति) अज्ञानता के कारण दूसरे अंग (व्यक्ति) को कष्ट दे बैठता है, तो आहत हुए अंग को कभी रोष नहीं करना चाहिए। क्योंकि इससे अंततः दुःख तो परमपिता को ही होगा। भईया, हम याद रखें, चाहे सुख है या दुःख- सब परमपिता के ही प्रसाद हैं। हमारे निर्माण के लिए ही वह इन्हें हम तक भेज रहा है। इसलिए जब जो आए, जैसा आए- सब सहते जाएॅं- यही सोचकर कि हमारा लक्ष्य परम-पिता को प्रसन्न करना है। प्रभु को पाना है। इसलिए आनंदित होकर किवाड़ खोलो और अपनी छोटी बहन के लिए बाहर आओ!

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