Sunday, August 3, 2014

राधानाथ स्वामी की अध्यात्मिक खोज यात्रा part-3

भक्ति की पराकाष्ठा 
            एक दिन श्रीपाद बाबा मुझे और असीम को एक प्राचीन मंदिर में ले गये। अन्दर हमने लाल पत्थरों से बने एक विशाल कक्ष और ऊँची को देखा। मंदिर लम्बे समय से उपेक्षित था। धुँधले प्रकाश में बंदर सो रहे थे। बड़े-बड़े काले चमगादड़ ऊँचे गुम्बद के किनारों पर उल्टे लटके हुए थे और नीचे पत्थर के फर्श पर उनके मल के चिह्न दिखाई दे रहे थे। हम मंदिर से निकलकर एक टूटे-फूटे मार्ग पर चलने लगे जो अचानक समाप्त हो गया। सामने दो फुट चैड़ा एक खुला नाला था। श्रीपाद बाबा ने हँसते हुए हमें उकसाया, ‘‘चलो, मैं तुम्हें एक विशेष मंदिर दिखाना चाहता हँू।’’ हमने नाले पर पडे़ एक पत्थर पर चलकर उसे पार किया। कुछ दूर आगे चलकर हमने स्वयं को एक अजीब से घर में पाया। एक ओर बच्चे उछलकूद कर रहे थे और दूसरी ओर उनकी माँ धरती पर बैठी छोटे चूल्हे पर भोजन पका रही थी। यह कैसा मंदिर है? मैं सोचने लगा।
            एक छोटे-से कक्ष में एक अविश्सनीय दृश्य देखकर मैं विस्मित हो गया। वहाँ एक वेदी पर राधा-कृष्ण के विग्रह विराजमान थे। लगभग दो फुट ऊँचे श्रीकृष्ण काले पत्थर के और राधारानी चमकते काँसे की थीं। वे अत्यन्त प्राचीन दिख रहे थे। अजीब बात थी कि वहाँ रहने वाला परिवार अपने घर में स्थित इन सुन्दर विग्रहों के प्रति उदासीन प्रतीत हो रहा था। किन्तु जब हम निकट गये हमने देखा कि फटे वस्त्र पहने एक अधेड़ व्यक्ति भगवान् को पंखा झल रहे थे। वे लगभग सत्तर वर्ष के छोटे-पतले व्यक्ति थे और उनकी कोमल आँखों में प्रेमाश्रु भरे थे। उनका सिर और चेहरा मुँडा हुआ था और वे अत्यन्त दुर्बल लग रहे थे। कक्ष से शीद्य्रता से बाहर आकर उन्होंने अपने सभी अतिथियों के चरणों पर प्रणाम किया। घुटनों के बल बैठकर उन्होंने कृतज्ञताभरे आँसुओं के साथ बार-बार हमारा स्वागत किया।
            ‘‘मैं आपका आज्ञाकारी सेवक हँू,’’ वे रुक-रुककर बोले। ‘‘कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिए।’’ फिर उन्होंने कक्ष में विराजित विग्रहों की और संकेत किया। ‘‘कृपया राधा-कृष्ण से मिलिए। श्रीकृष्ण ने आज आपको इसलिए बुलाया है क्योंकि आप उनके प्रिय मित्र हैं, लेकिन जहाँ तक मेरा प्रश्न है मैं केवल उनका एक तुच्छ सेवक हँू। सेवा करना ही मेरा एकमात्र सौभाग्य है। कृपया मुझे अपनी सेवा करने दीजिए।’’
            घनश्याम बाबा से यह मेरी पहली भेंट थी।
            जब श्रीपाद बाबा ने उन्हें बताया कि कैसे वृन्दावन पहँुचने के लिए मैं इतनी दूर से यात्रा करके आया हँू तो घनश्याम बाबा आश्चर्य से रोमांचित हो उठे। ‘‘श्रीकृष्ण ने आपको बुलाया है इसलिए आप इतने समुद्र और महाद्वीप पारकर सुदूर देश से यहाँ आये है,’’ घनश्याम बाबा ने कहा। ‘‘वे लम्बे समय से आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। अन्ततः आप आ ही गये।’’ उनकी वाणी भर्रा उठी, ‘‘हाँ आखिर आप आ ही गये।’’ घनश्याम बाबा का छोटा वयोवृद्ध चेहरा सौम्य और कमजोर प्रतीत हो रहा था। उनकी छोटी धुंधली आँखें, गोल नाक, पतले होंठ और हल्की झुर्रियाँ उनके चेहरे पर एक स्थायी उदासी के भाव उत्पन्न्ा करते थे। उनकी वाणी के धीमे स्वर में भी यही भावना गूँजती थी। किन्तु इन सबके पीछे उनकी आत्मा एवं हृदय आनन्दमय प्रेम से इस प्रकार परिपूरित थे कि जो भी उनके सम्पर्क में आता वे उसके जीवन को भी वह प्रेम भर देते। हमें अपने विग्रहों के सामने खड़ा देख घनश्याम बाबा हर्ष से फूले न समाये।
            मैं उनके साथ और समय बिताने लगा। प्रतिदिन प्रातः नौ बजे मैं उस टूटे-फूटे फुटपाथ से होकर इस एक कक्ष के मंदिर में आता। मुझे उनका संग बहुत अच्छा लगता। मैं जब भी आता वे एक ही स्नेहभरे अभिवादन से मेरा स्वागत करते, ‘‘मैं तुम्हारा आज्ञाकारी सेवक हँू।’’ और वे इस पर अमल भी करते थे। प्रेमपूर्वक वे अपना सबकुछ बिना किसी अपेक्षा के दूसरों को दे देते। मैं भी यह गुण प्राप्त करने के लिए लालायित था।
            एक दिन प्रातः जब मैं और घनश्याम बाबा अकेले बैठे थे तो मैंने उनसे पूछा कि वे पहली बार वृन्दावन कैसे आये। उन्होंने अपना सिर झुका लिया। ‘‘मेरी कहानी का कोई महत्व नहीं है,’’ वे बोले। फिर उन्होंने ऊपर आकाश की ओर देखा और कहा, ‘‘किन्तु एक पापी के ऊपर श्रीकृष्ण की कृपा की कहानी सुनने योग्य है।’’ धीरे से वे मुझे बताने लगे कि कैसे उनका लालन-पालन एक संभ्रान्त परिवार में हुआ था। ‘‘जब मैं एक युवक था मैं अपने परिवार के साथ वृन्दावन की यात्रा पर आया। यहाँ पर भगवान् की कृपा के जाल ने मेरे हृदय को बंदी बना लिया। मेरे पास वापस जाने की शक्ति नहीं थी।’’ कथा सुनाते हुए घनश्याम बाबा नम्रता से झुकते गये। उन्होंने बताया  कि कैसे उनके परिवार वाले उनके द्वारा एक उज्ज्वल भविष्य को छोड़कर वृन्दावन में रहने के निर्णय से हक्के-बक्के रह गये। ‘‘उन्होंने मुझे डराया कि वे मुझे अपनी सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर देंगे, किन्तु मैं अडिग रहा। श्रीकृष्ण ने मेरा हृदय चुरा लिया था,’’ उन्होंने कहा। धरती पर सोते और प्रतिदिन व्रजवासियों के घर से भिक्षा में मिली सूखी रोटी खाते हुए उन्होंने कभी अपने पुराने ऐश्वर्य की अभिलाषा नहीं की। ‘‘अपितु,’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं कृतार्थ था कि मुझे श्रीकृष्ण के घर में ही उनकी सेवा करने का अवसर मिला।’’
            घनश्याम बाबा की गहरी आँखें एक सहमे हुए बालक के समान इधर-उधर देख रही थीं। ‘‘लम्बे समय से मेरा हृदय अर्चाविग्रहों की आराधना करने के लिए लालायित था। फिर एक दिन ऐसा आया जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता। उस दिन निकट के एक उद्यान में एक पेड़ के नीचे बैठकर मैंने अँगुली से मिट्टी पर श्रीराधालिखा। मैं दिनभर पुष्पों, गीतों और प्रार्थनाओं से मुलायम धूल में लिखे हुए उस नाम की पूजा करता रहा। अन्ततः सूर्यास्त के समय मैंने अपने हाथ से राधारानी के नाम को मिटा दिया।’’
            घनश्याम बाबा चुप हो गये और अपने प्रिय विग्रहों को निहारने लगे। स्पष्ट दिख रहा था कि वे अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे थे। एक लम्बी चुप्पी के पश्चात् उन्होंने कथा को जारी किया। ‘‘जहाँ वह नाम लिखा था वहाँ भूमि पर हाथ फेरते हुए मुझे कोई सुनहरी वस्तु दिखाई दी। मैं विस्मित हो उठा। यह क्या है?’ मैंने सोचा, ‘मैं तब आऊँगा जब यहाँ पर कोई नहीं होगा।अगले दिन प्रातः मैंने अपने हाथों से उस स्थान को खोदा जहाँ मैंने राधारानी का नाम लिखा था।’’ घनश्याम बाबा के धैर्य का बाँध टूट गया। उमड़ते आँसू उनके गालों से होकर बह निकले और वे कँपकँपाती हुई वाणी में अपनी प्रेमभरी कथा का वर्णन करने लगे। ‘‘जिस सुनहरी वस्तु का स्पर्श मेरी अँगुलियों ने किया था वह मेरी राधारानी के सिर का ऊपरी भाग था। उनका विग्रह मेरे लिए धरती से प्रकट हुआ। उन्हीं के साथ धरती के अन्दर ही श्रीकृष्ण का श्याम विग्रह था। उनके आधार पर उनका नाम लिखा था, ‘गोपीजनवलभ’, अर्थात् वे जो गोपियों को प्रिय हैं।’’
            उनकी वाणी भर्रा उठी। ‘‘लेकिन मेरे पास कुछ नहीं था, कुछ भी नहीं। मैं उनके लिए कर ही क्या सकता था?’’ घनश्याम बाबा ने प्रेमभरी दृष्टि से अपने विग्रहों की ओर देखा और धीरे से कहा, ‘‘मैं नहीं जानता कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, किन्तु उन्होंने स्वयं को मेरी देखरेख में रख दिया। इसलिए मैंने दिन-रात उनकी सेवा की। आरम्भ में लोग भोग लगाने के लिए कुछ भोजन दे जाते थे। लम्बे समय तक मैंने एक पेड़ के नीचे उनकी पूजा की। फिर इस परिवार के बुजुर्गों ने गोपीजनवलभ को बेघर देखकर यह कमरा हमें दे दिया। मैं लगभग पचास वर्षों से यहाँ उनकी सेवा कर रहा हँू।

            जैसे-जैसे सप्ताह बीतते गये मुझे घनश्याम बाबा के चरित्र से और प्रेरणा मिली। ‘‘मैं तुम्हारा आज्ञाकारी सेवक हँू, मैं तुम्हारा आज्ञाकारी सेवक हँू,’’ मुझे अपना सबकुछ देते हुए वे बस यही कहते। हम दोनों मिलकर गोपीजनवलभ के लिए गाते या मोरपंख के पंखे से उन्हें हवा ढुलाते। प्रतिदिन वे जोर देकर कहते कि मैं उधर ही भगवान् का प्रसाद पाऊँ, जो तीन व्रज रोटी होता। व्रज रोटी वृन्दावन के लोगों का आम भोजन है। भले ही साधारण लोगों के दृष्टिकोण से व्रज रोटी सादी एवं रूखी रोटी होती है लेकिन श्रद्धावान लोगों के लिए यह एक अमूल्य वरदान है। वृन्दावन की धरती में उगे अन्न्ा और भक्तों के हाथों से बनी तथा श्रीकृष्ण को अर्पित की गई व्रज रोटी अत्यन्त पवित्र प्रसाद माना जाता है। कृतार्थ हो मैं घनश्याम बाबा की व्रज रोटी खाने लगा। 
            एक दोपहर नदी में स्नान करते हुए मुझे एक परिचित साधु मिले। वे साधुबाबा मुझे सदैव आशीर्वाद देते थे, लेकिन आज उन्होंने कठोर वचनों से मुझे डाँट दिया। वे तट से ही चिलाये, ‘‘तुम्हारे कारण घनश्याम बाबा भूखे रहते है।’’
            ‘‘यह कैसे?’’ मैंने पूछा।
            उन्होंने मुझे घूरकर देखते हुए कहा, ‘‘एक व्रजवासी प्रतिदिन उनके लिए तीन रोटी लाता है। वही उनका एकमात्र भोजन है। और प्रतिदिन तुम उन्हें खा जाते हो। कितने स्वार्थी हो तुम!’’
            ‘‘क्या?’’ नदी तट से ऊपर आता मैं हक्का-बक्का रह गया। ‘‘ऐसा नहीं हो सकता। कृपया मेरा विश्वास करें मुझे यह बिल्कुल मालूम नहीं था।’’
            अगले दिन घनश्याम बाबा ने मुझे अपने सादे घर के फर्श पर बैठाया और प्रेम से व्रज रोटियाँ परोस दीं। मैंने पत्तल को दूर हटा दिया। ‘‘आज मुझे भूख नहीं लग रही। मैं नहीं खाऊँगा।’’
            यह सुनकर घनश्याम बाबा दुःखी हो गये। ‘‘तुम्हें खाना ही होगा। यह गोपीजनवलभ का प्रसाद है। उन्होंने तुम्हारे लिए ही रखा है।’’ मैंने मना कर दिया। हाथ जोड़कर काँपते हुए उन्होंने विनती की, ‘‘क्या मेरे पापों के कारण तुम मेरी सेवा स्वीकार नहीं कर रहे हो? कृपया मेरी रोटी खा लो।’’
            मेरा हृदय टूट रहा था। मैंने उनसे याचना की, ‘‘घनश्याम बाबा मैं आपकी सारी रोटियाँ खा लेता हँू और आप भूखे रह जाते हैं। मुझे तो कहीं भी रोटियाँ मिल सकती हैं, किन्तु आप यह स्थान छोड़कर कहीं नहीं जाते।’’
            ‘‘किन्तु मेरे पास और भी रोटियाँ हैं,’’ घनश्याम बाबा ने जोर देते हुए कहा। ‘‘कोई कमी नहीं है।’’ फिर से उन्होंने पत्तल मेरे सामने रख दी। ‘‘मैं भीख माँगता हँू, कृपया खाकर प्रसन्न्ा रहो।’’
            मैंने फिर से उसे धकेल दिया। ‘‘यदि आपके पास और रोटियाँ हैं तो मुझे दिखाओ।’’
            ‘‘कोई ज़रुरत नहीं है, कोई ज़रुरत नहीं है,’’ उन्होंने निराशा से काँपते ऊँचे स्वर में कहा।
            ‘‘मैं तब तक रोटियाँ नहीं खाऊँगा जब तक आप मुझे और रोटियाँ नहीं दिखायेंगे।’’ उन्होंने मेरा उत्तर देने के लिए आवाज और ऊँची की। ‘‘नहीं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, कोई आवश्यकता नहीं है। रोटियाँ उस कमरे में हैं।’’
            मैंने तुरन्त उठकर उस कमरे में खोजा, परन्तु वहाँ कुछ नहीं मिला। ‘‘बाबाजी, यहाँ एक भी रोटी नहीं है। आप मेरे कारण भूखे रह रहे हैं। कृपया आप ही ये रोटियाँ खाइये।’’
            अपने निर्मल हृदय के भाव व्यक्त करते-करते घनश्याम बाबा की आँखें भर आई। ‘‘तुम गोपीजनवलभ के बन्धु हो, किन्तु मैं केवल उनके दासों का दास हँू। मेरे जीवन का एकमात्र आनन्द भक्तों की सेवा करना है। मैं तुमसे भीख माँगता हँू। कि तुम इन रोटियों को खा लो।’’ हाथ जोड़कर उन्होंने याचना की, ‘‘एकमात्र इसी के लिए मैं जीता हँू, कृपया मुझे इससे वंचित मत करो।’’ मैं उनके निःस्वार्थ प्रेम को देखकर रो उठा। अपने प्रिय घनश्याम बाबा को आनन्द देने के लिए मैंने सारी रोटियाँ खा ली।
            अगले दिन मैं सामान्य समय से दो घण्टा देरी से आया, यह सोचते हुए कि अबतक उन्होंने रोटियाँ खा ली होंगी। घनश्याम बाबा उल्लसित हो उठे, ‘‘कृष्णदास, रथीनीकृष्ण दास, आखिर तुम आ गये। गोपीजनवलभ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’ मैंने जो देखा उसपर विश्वास नहीं हुआ। रोटियाँ अभी भी वेदी पर रखी थीं। घनश्याम बाबा ने समझाया, ‘‘मेरे भगवान् तबतक भेंट स्वीकार नहीं करते जब तक उन्हें एक मित्र का संग नहीं मिलता। श्रीकृष्ण ने ये रोटियाँ केवल तुम्हारे लिए बचाई हैं।’’ इन शब्दों के साथ उन्होंने सारी रोटियाँ मेरे सामने रख दीं। ‘‘केवल जब तुम खाओगे तभी राधारानी मुझे अपने सेवक के रूप में स्वीकार करेंगी।’’ मुझे पुनः पराजित होना पड़ा। 

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