Friday, August 8, 2014

संत ज्ञानेशवर का आत्मनिर्माण part-2

विट्ठल पंत का वंश असाधारण था। निष्ठावान्, कुलीन ब्राह्मण-परिवार में अध्ययन-चिंतन बराबर होता है। विट्ठल के पितामह त्र्यंबक पंत के गुरु नाथ-संप्रदाय के प्रतिष्ठाता गोरखनाथ थे। विट्ठल के पिता तथा माता को नाथ-संप्रदाय के दूसरे गुरु गहिनीनाथ से दीक्षा प्राप्त हुई थी। साधक-परिवार में जन्म लेने के कारण विट्ठल पंत में बचपन से ही वैराग्य उत्पन्न्ा हो गया था। वे विद्वानों के निकट वेद-शास्त्रों का अध्ययन और विचार-विमर्श करते थे। यहाँ तक कि योग्य गुरु की तलाश में निरंतर तीर्थयात्रा पर चले जाते थे।
            इसी यात्रा के दौरान वे अपनी जन्मभूमि आपेगाँव से आलन्दी आये। यहाँ सिद्धेश्वर मंदिर में ठहरे। कस्तूरी की गंध शीद्य्र फैल जाती है। इनके ज्ञान और निर्मल स्वभाव को देखकर सिद्धोपंत कुलकर्णी आकर्षित हुए। वे इसी प्रकार के युवक की खोज में थे। उन्होंने कल्पना की कि ऐसे व्यक्ति के हाथ अगर अपनी बेटी सौप दूँ तो गौरव की बात होगी। एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा विट्ठल के सामने प्रकट की। विट्ठल ने सिद्धोपंत को कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। वास्तव में विट्ठल सर्वदा अपने आत्मचिन्तन में इस प्रकार लीन रहते थे कि उनका ध्यान इन बातों की ओर नहीं जाता था। सिद्धोपंत ने अनुमान लगाया कि विट्ठल की इच्छा नहीं है।
            कई दिनों बाद एक रात को विट्ठल ने स्वप्न में देखा कि स्वयं भगवान् विट्ठल उसे आदेश दे रहे हैं-‘‘यह विवाह तुम कर लो। इससे तुम्हारे वंश का मुख उज्जवल होगा।’’ दूसरे दिन विट्ठल स्वयं ही सिद्धोपंत के यहाँ जाकर अपनी स्वीकृति दे आये। सिद्धोपंत की बेटी रुक्मिणी से उनका विवाह हो गया। देखते ही देखते कई वर्ष बीत गये। इस बीच विट्ठल के माता-पिता का देहान्त हो गया। आपेगाँव वापस आने के कुछ दिनों बाद विट्ठल की स्थिति चिन्ताजनक हो गयी। सर्वदा पठन-पाठन में लगे रहनेवाला व्यक्ति निकम्मा हो गया। अपनी बेटी से यह समाचार पाकर सिद्धोपंत तत्काल आपेगाँव आकर अपने साथ बेटी-दामाद को लेकर आलन्दी चले आये।
            कुलकर्णी का विश्वास था कि यहाँ विट्ठल अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारी को समझेगा, पर वे हमेशा पठन-पाठन में लगे रहे। गृहस्थी का मायाजाल उन्हें बाँध नहीं सका। सहसा एक दिन विट्ठल ने अपनी पत्नी से कहा-‘‘बहुत दिनों से काशी जाने की इच्छा हो रही है। तीर्थयात्रा हो जायगी और शायद उधर ही कहीं अपनी व्यवस्था करूँगा।’’ रुक्मिणी अत्यन्त पतिपरायण स्त्री थी। उसने न तो पति को जाने से रोका और न साथ ले चलने के लिए अनुरोध किया। सहर्ष अनुमति देती हुई बोली-‘‘जल्द वापस आइयेगा।’’
            काशी आकर विट्ठल पंत अध्ययन में जुट गये। सौभाग्य से एक दिन श्रीपादस्वामी से मुलाकात हो गयी। इनके ज्ञान और साधना से प्रभावित होकर विट्ठल ने संन्यास ग्रहण कर लिया। अपना वास्तविक परिचय गुप्त रखा। संन्यास लेने के बाद विट्ठल का नया नाम चैतन्य आश्रम हुआ। श्रीपादस्वामी स्वयं जगद्गुरु शंकरचार्य की आश्रम-शाखा के संन्यासी थे। बारह वर्ष के बाद एक दिन पुनः उन्हें अपने गुरु के आदेश से आलन्दी वापस आना पड़ा। विट्ठल पंत अक्सर सोचते थे कि शायद आगे चलकर गाँववालों का क्रोध शान्त हो जायगा और उन्हें अपना खोया हुआ सम्मान फिर प्राप्त हो जायगा। वे इसी आशा में लम्बी अवधि तक आलन्दी में निवास करते रहे। इस बीच में वे चार संतानों के पिता बने।
            संतानों के नामकरण में उन्होंने अपने ज्ञान का परिचय दिया, जिसका उपयोग अपने परवर्ती जीवन में बच्चों ने किया। निवृत्तिबड़े लड़के का नाम था जिसका अर्थ है- समाप्ति, छुटकारा, मुक्ति, विश्राम। वे आगे संतान नहीं चाहते थे, पर इसके बाद ज्ञानदेव ने जन्म लिया। तीसरा सोपान यानी सीढ़ी और अन्त में आयी मुक्ता। समाजपतियों की उपेक्षा के कारण विट्ठल का मन आलन्दी से उचट गया। उन्हें तीर्थयात्रा की सनक सवार हुई। रुक्मिणी से अनुरोध करते ही वह भी तैयार हो गयी। कई दिनों बाद विट्ठल सपरिवार नासिक आये। कुशावर्ती में नित्य स्नान करने के बाद त्र्यंबकेश्वर का दर्शन करते थे। इसके बाद ब्रह्मगिरि की फेरी करते थे। भिक्षा में जो कुछ मिलता, उसीसे संतोष कर लेते थे। शेष समय अध्यात्म और ब्रह्म-चिन्तन में व्यतीत होता रहा।
            देवयोग से एक दिन दुर्घटना हो गयी, जिसके कारण विट्ठल की जीवन-धारा में अदुभुत परिवर्तन हो गया। उस दिन मंदिर-दर्शन करने के बाद जब सभी लोग घर वापस आ रहे थे तभी जंगल के भीतर से बाघ के गरजने की आवाज आयी। भय से घबराकर जिसे जिधर मार्ग मिला, उधर भाग निकल। किसी को इतना होश नहीं था कि कौन, कहाँ है, पता लगाता। जंगल से बाहर सुरक्षित स्थान पर आने के बाद विट्ठल को पता लगा कि केवल निवृत्ति को छोड़कर सभी साथ आ गये है। एक ऊँची चट्टान पर चढ़कर विट्ठल निवृत्ति को पुकारने लगे। उनकी आवाज जंगल में गूँजती रही, पर दूसरी ओर से कोई आवाज नहीं आयी। यह देखकर अनजाने आशंका से रुक्मिणी रोने लगी। माँ को रोते देख बच्चे भी रोने लगे।
            विट्ठल ने कहा- ‘‘रोने से वह वापस नहीं आयेगा। लगता है किसी पेड़ पर या किसी गुफा में छिप गया है वर्ना उसकी आवाज सुनाई देती। अब कल सबेरे जंगल में जाकर खोजना पड़ेगा। दूसरे दिन सभी लोग निवृत्ति की तलाश में जंगल के भीतर गये। इसी प्रकार तीसरे, चैथे दिन तक लोग खोजते रहे, पर निवृत्ति का कहीं पता नहीं चला। बाद में विट्ठल ने यह सोचकर संतोष कर लिया कि भगवान् ने उन्हें किसी पाप का दंड दिया है। आठवें दिन अचानक निवृत्ति वापस आ गया। उसे देखते ही माँ ने कंठ से लगाया। पिता ने गोद में उठाया और भाइयों ने प्रणाम किया।
            माँ के प्रश्न करने पर निवृत्ति ने बड़ी रोमांचकारी कहानी सुनाई। उसने कहा कि आप लोगों से बिछुडने के बाद मैं दायीं ओर अंजनी पर्वत की गुफा की ओर भागा। थोड़ी देर बाद वहाँ एक महात्मा आये और मुझे अपने साथ लेकर भीतर की ओर बढ़े। आगे एक स्थान पर काफी बड़ा घर था। दूसरे दिन मुझे उन्होंने अपने शिष्यों के साथ स्नान के लिए भेजा। स्नान करने के बाद जब मैं वापस आया तब उक्त महात्मा ने कहा-निवृत्ति, आज तुम्हारे जीवन का महत्वपूर्ण दिन है। गुरु गोरखनाथ की कृपा से कल तुम्हारा आगमन हुआ और उन्हीं की प्रेरणा से आज तुम्हें दीक्षा दे रहा हूँ। अब यहाँ कुछ दिनों तक आसन, मंत्र आदि सीखना पडे़गा। इसके बाद ही तुम घर जा सकोगे।श्रद्धेय गुरुवर गहिनीनाथ मुझे ध्यान, आसन और यौगिक क्रियाओं की शिक्षा देते रहे। आज दोपहर के बाद उनसे अनुमति प्राप्त होने पर मैं चला गया।
            गहिनीनाथ का नाम सुनते ही विट्ठल समझ गये कि मेरे माता-पिता के गुरु ने निवृत्ति को अपना मंत्र-शिष्य बनाया है। उन्हें यह जानकर प्रसन्न्ता हुई कि उनका बालक नाथ-संप्रदाय में दीक्षित होने पर भी कृष्ण-भक्त बनता जा रहा है। बड़े भाई की साधन से प्रभावित होकर ज्ञानेदव ने उनसे दीक्षा ली। ज्ञानदेव से सोपन और मुक्ता ने दीक्षा ली। इस प्रकार विट्ठल की सभी संतानें नाथ-संप्रदाय के अंतर्भुक्त हो गयीं।
            पिता से वेद-उपनिषद् शास्त्रों का अध्ययन करते हुए लड़के बड़े होते गये। अब विट्ठल ने निश्चय किया कि वंश-परंपरा के अनुसार बच्चों का यज्ञोपवीत होना चाहिए और यह कार्य अपनी जन्मभूमि में जाकर सम्पन्न्ा करना चाहिए। आपेगाँव आकर विट्ठल ने स्थानीय कर्मकांडियों से निवेदन किया कि कृपया अब मुझे अपनी जाति में सम्मिलित कर लीजिये। मुझे अपने बच्चों का यज्ञोपवीत-संस्कार करना है। बदले में प्रायश्चित्त के लिए आप लोग जो दंड देंगे, उसे मैं स्वीकार कर लूँगा।
            ब्राह्मणों ने धर्म-ग्रंथांे की छानबीन करने के बाद निर्णय दिया- ‘‘संन्यास लेने के बाद तुम पुनः गृहस्थ-आश्रम में आये हो। इस प्रकार देानों आश्रमों को तुमने कलंकित किया है। इसका एकमात्र प्रायश्चित्त है-मृत्यु। यह इसलिए कि भविष्य में तुम्हारी तरह अन्य कोई अपराध करे तो तुम्हारे उदाहरण से उसे शिक्षा प्राप्त हो। अगर हम तुम्हें क्षमा कर देंगे तो भविष्य में लोग तुम्हारी तरह पापाचार करते रहेंगे। इस प्रकार हमारा धर्म, हमारा समाज, नैतिकता आदि नष्ट हो जायेंगे।’’
            कर्मकांडियों के इस निर्णय को सुनकर विट्ठल सन्न्ा रह गये। यह एक ऐसा निर्णय था जिसे सहज ही स्वीकार कर लेना आसान नहीं था। कई दिनों तक मानसिक यंत्रणा भोगने के बाद अपनी संतानों की मंगल कामना के लिए पंडितों का निर्णय उन्होंने स्वीकार कर लिया। उन्हें इस बात पर संतोष हुआ कि उनके बलिदान के पश्चात् इन निष्पाप बच्चों को उचित सम्मान मिलेगा।
            अपने चारों बच्चों को असहाय अवस्था में छोड़कर एक दिन विट्ठल अपनी पत्नी के साथ चुपचाप चल दिये। कहा जाता है कि प्रयाग में जाकर इन दोनों ने जल-समाधि ले ली। माता-पिता के चले जाने के बाद चारों बच्चे इतने असहाय हो गये कि इन्हें भीख मिलना कठिन हो गया। न जाने कितने दिन जंगली फल खाते रहे। उपवास इनके जीवन का श्रृंगार बन गया। 

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