इन्द्रायणी नदी
का तट.. बालक ज्ञानेशा (श्री ज्ञानदेव जी) पसीने से लथपथ था। सूर्य का भीषण ताप
उसके अंगों को झुलसा रहा था। ज्ञानेशा स्नान करने आया था। इन्द्रायणी के शीतल जल
को अपलक दृष्टि से देखता हुआ वह सीढि़याँ उतरने लगा। तभी भीषण गर्जना हुई। यह एक
कट्टरपंथी ब्राह्मण का स्वर था- ‘ओ लड़के! भाग यहाँ से! इस
सरिता में ब्राह्मण स्नान करते हैं। इसे अपनी काया तो क्या, छाया
से भी मैली मत कर...’ ज्ञानेशा के कदम ठिठक गए। उसने धीरे से
कहा- ‘बाबा, नदी के इस ओर पानी में गाय,
बैल, भैंसे और कई पशु नहाते हैं। मैं भी इधर
कोने में ही डुबकी लगाऊँगा और चला जाऊँगा। नहाने दो न मुझे।’
‘ओए! तू
अपनी बराबरी ब्राह्मणों की गायों से करता है! तेरी इतनी हिम्मत! तू तो पशुओं से भी
हीन है। जा, कोई नाली-नाला ढूँढ़ नहाने के लिए...भाग यहाँ
से!’- ब्राह्मण मुख से आग उगल रहा था। पास ही, कुछ ब्राह्मण-कुमार खेल रहे थे। अवसर भाँपते ही उन्हें तो खेल सूझ गया।
उन्होंने तटवर्ती कंकड़-पत्थर उठाए और ज्ञानेशा को निशाना बना-बनाकर फेंकने लगे।
ज्ञानेशा की कोमल देह जगह-जगह से छिल गई। बड़ी मुश्किल से बचता-बचाता, कंकरीले तट पर रास्ता बनाता हुआ वह बच निकला। कुटिया की ओर... राह में...
ज्ञानदेव की देह घायल थी। पर उससे अधिक मन आहत था। ज्ञानेशा का हृदय चीस उठा- ‘हे विठोबा! हमारा क्या अपराध है? उन ब्राह्मणों
द्वारा खोदे गए कुँओं पर तो हम जाते ही नहीं। पर अब क्या तेरी नदियों पर भी हमारा
अधिकार नहीं? पशुओं तक का है, हमारा
नहीं! क्यों है ऐसा देव? वो ऊँचे, हम
नीचे कैसे? पग-पग पर ये अपमान की चोटें क्यों?... हमारे माता-पिता ने अपने जीवन तक का त्याग कर दिया। फिर भी इनकी घृणा का
विष दूर नहीं हुआ! अन्याय की भी कोई सीमा होती है, केशवा!
उफ! कैसे हैं ये लोग?’
ज्ञानेदव के
मन में प्रश्नों का झंझावात उमड़ने-घुमड़ने लगा था। किसी प्रकार का तर्क या तथ्य
उसे उत्तर नहीं दे पा रहा था। कोई गणित इस स्थिति में सटीक नहीं बैठता था। ऐसे में
कैसे मन-बुद्धि को समझाया जाए? एक ही पंथ शेष था-मन-बुद्धि
से परे का पंथ-आत्मा की राह! ज्ञानेशा की अंतरात्मा में गीता का एक श्लोक गूँज उठा,
जिसका भावार्थ था-
शीत ऊष्ण
सुख दुःख तथा शत्रु मित्र समान,
बन निःसंग
विचरे सदा सहे मान-अपमान।
निंदा-स्तुति
सम जानता तोष भरा मन में,
स्थिरमति
प्रिय वह भक्त है सर्वोपरि जग में।
यह था एक
साधक का अपना सनातन तर्क, अपना अलौकिक गणित- ‘मुझे क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। यह तो एक दिव्य परिस्थिति है, जो मेरे लिए ही निर्मित की गई है ताकि मेरा निर्माण हो सके! मुझमें संयम
पैदा हो सके! मुझमें सहनशक्ति, क्षमा जैसी सद्वृत्तियाँ जाग
पाएँ! मुझमें समभाव विकसित हो जाए! अच्छा है... अच्छा है...ऐसी स्थितियों में ही
तो स्थिर मति बनती जाती है। इसलिए क्षुब्ध क्यों होना? भला
एक अनगढ़ पत्थर छैनी-हथौड़ी से कोई गिला-शिकवा करता है? नहीं
न! तो तू क्यों करता है, ज्ञानेशा? इन्हें
धैर्य से सहन कर!’ ज्ञानेशा इस महातर्क की औषधि स्वयं को
पिलाते हुए वापिस लौटने लगा। इसलिए घर पहुँचने तक उसके आहत मन के सारे घाव सूख गए।
निर्जन
स्थान में बनी, अपनी कुटिया के आँगन में... भाई निवृत्ति,
सोपान और मुक्ता- तीनों किसी गहन मंत्रणा में व्यस्त थे। ज्ञानेशा
ने एक मृदु सी मुस्कान मुख पर लिए आँगन में प्रवेश किया। बड़े भाई निवृत्ति (जो
ज्ञानेशा के आध्यात्मिक-गुरु भी माने गए हैं) को झुककर प्रणाम किया। फिर छोटी बहन
मुक्ता से पूछा- ‘क्यों मुक्ताई, क्या
मंत्रणा चल रही है? किसी गहन विषय पर सोच-विचार करते लग रहे
हो सभी!’ मुक्ता और सोपान खीं-खीं करके हँस दिए। मुक्ता
बोली- ‘हाँ, ज्ञानू भईया, बहुत ही गहन-गंभीर विषय पर हम सभी गोष्ठी कर रहे थे।’
ज्ञानेशा
(उत्सुकता से)- बताओ न, किस विषय पर?
सोपान (भारी
भरकम स्वर निकालता हुआ)- ...कि आज मांडे कैसे पकाए जाएँ! गर्मागर्म, पतले-पतले, मृदु मांडे! चारों भाई-बहन हँस दिए।
मुक्ता ने बात आगे बढ़ाई- ‘ज्ञानू भईया! हमारे निवृत्ति दादा
(बड़े भाई) ने आज इच्छा की है, मांडे खाने की।’
ज्ञानेशा-
निवृत्ति दादा की इच्छा, माने गुरु की आज्ञा! मुक्ता,
अब तो हर स्थिति में उसे पूरा करना ही करना है।
सोपान- ठीक
कहते हो, भइया। आप और मैं मधुकरी में आटा माँग कर लाते हैं।
रास्ते में (कुम्हारिन) कमला मौसी के घर से खपरैल (मटका) भी उठा लाएँगे। मुक्त उसे
उल्टा करके मांडे सेक लेगी।
मुक्ता-
हाँ! हाँ! मुझे सुबह वन में कुछ कंद मूल मिले थे। तब तक मैं उनसे सब्जी और चटनी
बना लेती हँू। वाह! आज तो दावत हो जाएगी!
दादा
निवृत्ति ने बड़ी अर्थ भरी मुस्कान दी। ज्ञानदेव ने झोला टाँगा और सोपान के संग
गाँव आलंदी की ओर बढ़ गया। गाँव पहुँचकर...पहला द्वार खटखटाया... भिक्षाम् देहि!
मधुकरी दे दो, बाबा... भिक्षाम् देहि! झटके से द्वार खुला।
सामने एक बोदी वाला रूढि़वादी नकचढ़ा पोंगा शास्त्री आ खड़ा हुआ। उसका नाम था-
विसोबा चाटी। उसकी भृकुटियाँ चढ़ी हुई थीं। मुखाकृति वक्र थी। नेत्र द्वेष से तप्त
थे। दोनों बालकों को देखते ही उसने धावा बोल दिया- ‘अरे ओ
पाखंडी संन्यासी की औलादों! दूर भागो! मेरे आँगन में अपनी पापी छाया मत डालो। तुम
वो जंगल छोड़कर इधर गाँव में कैसे आ गए-नासपीटों! वहीं भूखे-प्यासे रहकर मर-खप
क्यों नहीं जाते? बार-बार अपनी मनहूस सूरत दिखाने क्यों चले
आते हो? क्या आलंदी में छूत की महामारी फैलाओगे?’
तलवार से भी
अधिक धारदार ताने! उफ! सुनने वाले को काट-काट के टुकड़े कर डाले! पर हमारे इन
ज्ञानी साधकों की क्या प्रतिक्रिया थी, जानते हैं? संयम! संयम! संयम! ज्ञानेशा ने मुस्कुराते हुए मीठा सा उत्तर दिया- ‘विसोबा काका! दूर भगाना है, तो क्रोध और द्वेष को
भगाओ! देखो, ये आपका कितना अहित कर...’ अभी ज्ञानेशा की पंक्ति पूरी भी नहीं हुई थी, विसोबा
चाटी बोल उठे- ‘ओ भीखमंगों! मुझ पर उपदेश झाड़ने चले हो?
ठहरो, तुम्हारी तो...!!’ विसोबा ने द्वार पर रखा मोटा डंडा उठा लिया। बालकों की ओर लपके। ज्ञानेशा
और सोपान ने आव देखा न ताव... सिर पर पैर रखकर भागे।
‘आटा तो मिल
नहीं, चाँटा ज़रूर मिल जाता, भईया’-सोपान हाँॅफते हुए बोल उठा। ज्ञानेशा ने भी लम्बी गहरी साँस भरी- ‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं, सोपान!
विसोबा काका को मन ही मन क्षमा कर दो। नही
ंतो, भीतर बैर जन्म ले लेगा, जो आगे
चलकर बड़ा मानसिक क्लेश मचाएगा।’ पर सोपान तनिक विद्रोही हो
चला था। दाँत पीसता हुआ बोला- ‘मेरा बस चले तो, इन ढपोलशंखी धूर्त मार्तंडों को इनकी बोदी से ही पकड़कर गोल-गोल घुमा दूँ
और ज़ोर से धरा पर पटक डालूँ! ज्ञानेशा ने तुरन्त अपनी बाँह छोटे भाई के कंधों पर
रख दी, समझाया- ‘नहीं, नहीं, सोपान! इतना उबाल अच्छा नहीं। निवृत्ति दादा
कहते हैं न, आनंद मनाना है, तो परमानंद
को ध्याओ। इन छोटी-मोटी बातों पर क्या विचार करना? देखो,
ज़रा संयम धर कर देखो, तुम स्वयं को कितना ऊँचा,
कितना विराट अनुभव करोगे। मैं भी ऐसा ही करता हँू।’
सोपान- आप
ठीक कहते हो, भईया। वैसे भी हमें अपने लक्ष्य से नहीं भटकना
चाहिए, जो है- ‘मांडे!’ दोनों भाई हँस दिए और अगले द्वार की ओर बढ़ चले। द्वार खटखटाया, पुकारा- ‘भिक्षाम् देहि! मधुकरी दे दो, माई!’ स्त्री ने द्वार खोला। ‘तनिक
ठहरो!’ कहकर भीतर जाने ही लगी थी कि ज्ञानेशा ने विनय की- ‘आज मधुकरी में आटा दे दो, माई।’ स्त्री उदार थी। बर्तन भर कर आटा लाई और ज्ञानेशा का पूरा झोला ही भर
दिया। दोनों बालक प्रसन्न हो उठे। कुम्हारिन कमला के घर की ओर बढ़ गए। अब तो सोपान
चल नहीं, फुदक रहा था। अत्यंत उमंगित था। बार-बार झोले का
भार अपने हाथों में ले लेता था। भार अनुभव करते ही तालियाँ बजाता और खिलखिलाता था।
ज्ञानेशा ने फिर से सोपान को सावधान किया-‘सोपान! अधिक हर्ष
मत मनाओ। दादा निवृत्ति कहते हैं-हर्ष कब संघर्ष में बदल जाए, कुछ पता नहीं।’
दोनों
कुम्हारिन कमला के आँगन में पहुँच गए। तरह-तरह के मटकों की कतारें सुशोभित थीं।
ज्ञानेशा ने पुकारा- ‘कमला मौसी... कमला मौसी! एक खपरा दे
दोगी क्या?’ कमला का चारों बालकों के प्रति स्नेह अपार था।
ज्ञानेशा का स्वर सुनते ही वह दौड़कर बाहर आ गई। सोपान ने निजी इच्छा रखी- ‘मौसी, आज हमने मांडे खाने की योजना बनाई है।
निवृत्ति दादा की यही इच्छा है। इसलिए मांडे सेकने के लिए एक खपरा चाहिए।’
कमला- हाँ,
हाँ... क्यों नहीं! बहुत बढि़या! अभी देती हँू एक चपटा खपरा...
मुक्ता को कहना, चूल्हे पर इसे उल्टा रख दे। कमला पंक्ति में
से एक उपयुक्त खपरा उठाने लगी। तभी... एक प्रचण्ड भूचाल आँगन में आ धमका। इस भूचाल
का नाम था- विसोबा चाटी। अपने सेवकों से कहकर उसने बालकों पर नज़र रखवाई हुई थी।
उन्हीं के खबर देने पर वह कमला के आँगन पहुँचा था। उसकी कुटिल दृष्टि सीधी ज्ञानेशा
की लदी-फंदी झोली पर गई। फिर कमला के हाथों में टिके खपरा पर! उस धूर्त को समझते
देर न लगी। कुत्सित स्वर में चीख पड़ा- ‘आ हा... ये कंगाल
भीखमंगे माँग-माँग के मांडे उड़ाने की सोच रहे हैं। दो-दो गज लंबी जीभ हो गई तुम
दुष्टों की! पूरी आलंदी को मूर्ख बनाते हो। पेट की आग बुझाने का बहाना बनाते हो...
और मांडों की ललक रखते हो! थोड़ी बहुत भी लज्जा है या सारी हया घोल कर पी गए हो,
पाखंडियों! टुकड़खोर चोर कहीं के!’
कमला भी सहम
गई थी पर फिर भी हिम्मत बटोर कर वह बोली- ‘साहब! बालक ही तो
हैं। सालों में एक बार मांडे पकाकर खा भी लिए तो क्या?... वही
आटा है...! ‘चुप कर, कुम्हारिन! अपनी
औकात में रह!’ विसोबा चाटी पहले से भी ऊँचे व उग्र स्वर में
चीखे- ‘तूने ही इन ठीकरों को सिर चढ़ा रखा है!... इतना
कहते-कहते चाटी क्रोध से पागल हो गए। ताव में आकर पाँव चलाने लगे। कुम्हारिन के
मटके एक-एक करके चूर-चूर करते गए। कमला के हाथ से भी खपरा छीन कर चकनाचूर कर डाला।
दोनों बालक
अपनी आँखों के सामने विनाशकारी तांडव देख रहे थे। कमला के नेत्र भी डबडबा आए थे।
सोपान में रोष का उफान उठा गया था। वह प्रबल प्रतिक्रिया करने वाला था कि तभी
ज्ञानेशा ने उसका हाथ दबाया और आँखों ही आँखों में शांत रहने को कहा। बालकों की यह
शांति देखकर विसोबा चाटी ज्यादा जल-भुन गया। मुख से अंगारे उगलता हुआ आगे बढ़ा और
ज्ञानेशा का झोला छीनकर पटक दिया। सारा
आटा टूटे मटकों के टुकड़ों और मिट्टी में जा मिला। विसोबा चाटी ने अंतिम धमकी दी- ‘नरक के कीड़ों! मैं टुकड़ा भर भी मांडे तुम्हें खाने नहीं दूँगा। तुम्हारी
तो ऐसी की तैसी!’
फिर चाटी ने
अकड़ में अपना अंगरखा झाड़ा और तमतमाता हुआ आँगन से चला गया। आँगन में चारों ओर
विध्वंस ही विध्वंस था। प्रलयकारी तूफान आया था और सबकुछ लील कर चला गया था। दोनों
बालक थरथर काँप रहे थे। सोपान के कंठ में हिचकियाँ भर गई थीं। घोर संताप दोनों के
मन में उबल रहा था। ज्ञानेशा ने एक नज़र उठाकर कमला की ओर देखा। उसकी भी ऐसी ही
दशा थी। दोनों भाई लुटे-पिटे कदमों से अपने सिद्ध द्वीप की ओर चल पड़े। अब तो
ज्ञानेशा का संयमचारी मन भी सिसकने लगा था- ‘इतना अपमान!
इतना तिरस्कार! इतना अनादर! इतनी उपेक्षा! हे ईश्वर, हमारा
अस्तित्व ही तूने क्यों गढ़ा?...’
दोनों अपने
आँगन तक पहँुच गए। निवृत्ति और मुक्ता, दोनों उत्सुक कदमों
से उनकी तरफ बढ़े। ज्ञानेशा कुछ नहीं बोला। कुटिया में अकेले प्रवेश कर, उसने किवाड़ बंद कर लिए। भीतर से सांकल भी जड़ दी। बाहर आँगन में सोपान ने
रोते-रोते सारा प्रसंग कह सुनाया। अब आगे इन बालकों की क्या प्रतिक्रिया रहेगी?
इस घोर अपमान को वे कैसे आत्म-निर्माण की सीढ़ी बनाएँगे, ऐसी कौन-सी दिव्य योजना होगी इन नन्हें साधकों की, जो
विसोबा चाटी जैसे क्रूर और महा-हिंसक जीव को भी इनके चरणों में गिरने को विवश कर
देगी?
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