अगली दोपहर मैं
उसी धूलभरे मार्ग से होता हुआ हनुमान मंदिर पहँुच गया। न जाने क्यों मेरा मन आकांक्षाओं
से भरा था। मंदिर में एक मिनट भी नहीं बीता होगा कि 20-24 वर्षीय एक व्यक्ति मेरे
पास आया। ‘‘महाराजजी अभी
आपसे मिलना चाहते हैं,’’ उसने कहा।
‘‘मुझसे?’’ मैंने अपनी ओर संकेत करके पूछा, ‘‘महाराजजी कौन हैं
और वे मुझे कैसे जानते हैं?’’
‘‘ओह,
वे तुम्हारे बारे
में सब जानते हैं।’’
‘‘कृपया क्या तुम मुझे महाराजजी के विषय में कुछ बताओगे?’’ मैंने पूछा।
‘‘अभी नहीं। महाराजजी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। हम बाद में
बातें करेंगे।’’
मेरा हाथ पकड़कर वह मुझे एक धूप से भरे आँगन
में ले गया जहाँ मधुरता से मुस्काते हुए एक मोटे व्यक्ति चैकड़ी मारे लकड़ी के
पलंग पर बैठे थे। उनका शरीर एक पुराने कम्बल से ढका था। मैं निकट आ गया। छोटी सफेद
दाढ़ी से भरा उनका चेहरा एक अलौकिक उल्लास से चमक रहा था। उनकी तेज आँखें मेरी
आँखों के झरोखों से मेरे जीवन के रहस्यों में झाँकती हुई प्रतीत हो रही थीं। वे थे
नीम करोली बाबा। जब मैं हिमालय में रह रहा था मैंने उनके असाधारण गुणों के विषय
में सुना था। उनके अनुयायी स्नेहपूर्वक उन्हें महाराजजी बुलाते थे।
जब मैं उनके निकट गया तो वे अपने सामने भूमि
पर अर्धगोलाकार में बैठे कुछ भारतीय शिष्यों से हिन्दी में बोल रहे थे। मुझे देखते
ही उनकी मोहक मुस्कान फूट पड़ी और उन्होंने मेरा स्वागत किया। उन्होंने अपनी
तर्जनी उठाई और एक अनुवादक के माध्यम से बोलने लगे। ‘‘तुमने ज्ञान की
खोज में अपनी सम्पत्ति एवं सभी सुख-आराम का त्याग किया है और बहुत संघर्ष करके
भारत आये हो। अब तुम अकेले भ्रमण कर रहे हो और भगवान् के लिए रो रहे हो, जबकि वहाँ दूर
बैठा तुम्हारा परिवार तुम्हारे लिए रो रहा है।’’ हाथ के सौम्य संकेत से उन्होेंने मुझे अन्यों के साथ बैठ
जाने के लिए कहा। ‘‘डरो मत,’’ उन्होंने ये शब्द
इतनी गम्भीरता से कहे कि उनकी भौंहे तन गई और होंठ कड़क हो गये। ‘‘सभी कठिनाईयों को
सहन करते हुए आनन्दित रहो। भगवान् श्रीकृष्ण ने तुम्हारी प्रार्थनायें सुन ली हैं
और वे तुम्हें वृन्दावन लाये हैं। राम और कृष्ण के नामों का कीर्तन करने से सबकुछ
प्राप्त हो जाता है ‘‘किन्तु,’’ सिर हिलाते हुए
उन्होंने कहा, ‘‘लोग निन्दा और
कलह की बुरी आदत के कारण स्वयं अपने लिए नरक उत्पन्न्ा कर रहे हैं। कभी भी दूसरों
के दोष मत देखो और अहंकार के मार्ग पर मत चलो।’’
ऐसा लगा कि शायद उन्हें मेरे बारे में सबकुछ
मालूम था और उन्होंने वही शब्द कहे जिनकी मुझे आवश्यकता थी। मैं मन्त्रमुग्ध और
आश्चर्यचकित हो गया। ‘‘किन्तु लगभग पूरी
दुनिया इसी जंजाल में फँसी है, मैं कैसे बच सकता हँू?’’ मैंने पूछा।
मुस्कुराहट के साथ उनकी आँखें दमक उठीं। ‘‘सब से प्रेम करो, सब की सेवा करो
और सब को भोजन खिलाओ। हनुमानजी के समान बिना स्वार्थ और लोभ के सेवा करो। यह कुँजी
है भगवान् को जानने की।’’
एक विनोदी बच्चे के भाव के साथ उन्होंने अपना
हाथ अपने मुख की ओर किया और संकेत द्वारा हमें प्रसाद के लिए आमन्त्रित किया।
प्रसाद के लिए बने विशेष हाॅल में प्रवेश
करते हुए मैंने अपने मार्गदर्शक से उनके गुरु के विषय में सुनने की आतुरता व्यक्त
की। वे मान गये। ‘‘मैं हिमालय में
स्थित नन्दीताल के निकट एक गाँव से हँू और बचपन से ही महाराजजी से प्रेम करता हँू।’’ हम भूमि पर
पंक्तियों में बैठ गये। एक भक्त ने हमारे सम्मुख पत्तल रख दी और करछी से उसमें
स्वादिष्ट प्रसाद परोस दिया। मेरे मेजबान सफेद कमीज और पैन्ट पहने हुए थे, उनके घुँघराले
काले बालों में तेल लगा था और वे सुन्दरता से कंघी किये थे। एक छोटी प्रार्थना के
पश्चात् वे नीम करोली बाबा की कुछ स्मृतियाँ बताने लगे। ‘‘महाराजजी एक
सिद्ध पुरुष हैं। मैंने स्वयं अपनी आँखों से उनके भूत, वर्तमान और
भविष्य के ज्ञान को देखा है। वास्तव में वे सदैव जानते हैं कि मैं कहाँ हँू और
क्या कर रहा हँू।’’ उन्होंने कुल्हड़
से शीतल लस्सी का घूँट भरा।
‘‘मैं तुम्हें कुछ और बताता हँू,’’ उन्होंने कहा। ‘‘महाराजजी कई बार
एक ही समय में दो स्थानों पर होते हैं। यह प्रमाणित हो चुका है। हम सर्वथा
अनपेक्षित क्षणों में उनके प्रकट या अप्रकट होने की अपेक्षा करते हैं। उनके विषय
में कुछ नहीं कहा जा सकता। किसी भी क्षण वे प्रकट या अदृश्य हो सकते है; कभी दण्ड देते
हैं तो कभी प्रशंसा करते हैं; कभी पहेलियों में बात करते हैं तो कभी गहन सत्य बोलते हैं; किसी को यह संसार
त्यागने के लिए कहते हैं तो किसी को विवाह करने के लिए। किन्तु एक बात से हम सब
विश्वस्त हैं कि वे सदैव हमारे अच्छे गुणों को ऊपर लाते हैं और हमें भगवान् के
निकट ले जाते हैं।’’ वह गर्व से
मुस्कुराया। ‘‘यद्यपि नीम करोली
बाबा एक गम्भीर योगी हैं,
उनका नटखटपन
हमारा मन मोह लेता है। बिल्कुल हनुमानजी की तरह।’’
मुझे गरम-गरम हलवा परोसा गया, सूजी और घी से
बना। मुँह में लार उत्पन्न्ा कर देने वाली महक से कमरा भर उठा। हम खा ही रहे थे कि
नीम करोली बाबा दरवाजे पर आये। हमें प्रसाद का आनन्द लेते देखे वे
प्रसन्न्ातापूर्वक मुस्कुराये। मुझे भी उनके मधुर स्वभाव को देखकर बहुत आनन्द हुआ।
उन्होंने हमें जो सिखाया वे स्वयं उसके मूर्तिमान स्वरूप थे। ‘‘सभी से प्रेम करो, सभी की सेवा करो
और सभी को भोजन खिलाओं।’’
हनुमानजी की
भाँति।
अगले दिन मैं पुनः वहाँ आया और देखा कि
महाराजजी कुछ अनुयायियों के बीच बैठे रामायण से हनुमानजी की भक्ति-कथायें सुना रहे
थे। भावावेश में नीम करोली बाबा काँप रहे थे और उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाहित हो
रहे थे। अगले कुछ सप्ताहों तक मैं प्रतिदिन घण्टा-डेढ़-घण्टा महाराजजी के चरणों
में बैठकर बिताता। जब मैं वहाँ होता वे कोई औपचारिक प्रवचन नहीं देते, अपितु अपने
अनुयायियों के साथ बातचीत या कीर्तन करते। मैं यह देख सम्मोहित हो गया कि कैसे वे
प्रश्नों का छोटा किन्तु बुद्धियुक्तसटीक उत्तर देते थे, जैसे, ‘‘भगवान् की सृष्टि
के प्रत्येक जीवन की नम्रता, सम्मान और प्रेम से सेवा करो,’’ या, ‘‘केवल श्रीराम के नामों का कीर्तन करो और सबकुछ प्राप्त हो
जायेगा।’’ एक दिन वे मेरी
ओर मुड़े, उनकी आँखें मानो
मेरी आत्मा को टटोल रही थीं। तभी एक अँगुली उठाकर वे बोल उठे, ‘‘एक, एक, एक। भगवान् एक
हैं।’’
पश्चिमी लोग भी नीम करोली बाबा को जानते हैं, मुझे यह उस समय
तक मालूम नहीं पड़ा जब तक मेरी पीढ़ी के एक विख्यात् व्यक्ति बाबा रामदास वहाँ
नहीं आये। एक दिन जब मैं महाराजजी के चरणों में बैठा था रामदास के साथ विदेशियों
का एक छोटा समूह अचानक आश्रम में आ पहँुचा। रामदास बाबा 1960 के दशक के हिप्पी
आन्दोलन के प्रसिद्ध व्यक्ति थे। पहले वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक
विवादग्रस्त प्रोफैसर रिचर्ड एल्पर्ट थे जिन्होंने टिमेाथी लियरी के साथ मिलकर इस
दावे के साथ एल.एस.डी. (एक मादक पदार्थ) का प्रसार किया था कि इसके सेवन से आध्यात्मिक
चेतना विकसित होती है।
प्रवेश करने पर रामदास ने नम्रता से अपने
सफेद होते सिर को एक छोटे बालक के समान अपने गुरु की गोद में रख दिया। उनके गुरु
के हृदय से स्नेह उमड़ पड़ा और वे लाड़पन से अपने शिष्य की सफेद होती दाढ़ी को
खींचते और उसके सिर को एक बालक की भाँति थपथपाते हुए हँसने लगे। महाराजजी ने कहा, ‘‘हम तुम्हारी ही
प्रतीक्षा कर रहे थे।’’ मेरे लिए यह
देखना बहुत रोचक था कि एक विख्यात् हार्वर्ड विद्वान् और प्रभावशाली व्यक्ति अपने
साथ हो रहे एक छोटे शरारती बच्चे जैसे व्यवहार का आनन्द ले रहा था। महाराजजी ने मुस्कुराते
हुए हमारी और देखा और हाथ हिलाते हुए बोले, ‘‘जाओ,
प्रसाद ले लो।’’ महाराजजी को
रहस्यमय तरीके से उनके असूचित आगमन का भान हो गया था, तभी अन्य दिनों
की अपेक्षा आज अधिक मात्रा में विशेष भोज की व्यवस्था की गई थी।
मुझे रामदास और उनके समूह को वृन्दावन के कुछ
पवित्र स्थलों पर ले जाने का सौभाग्य मिला। एक दिन हमने आनन्दमयी माँ के आश्रम में
उनके कीर्तन और प्रवचन में भाग लिया। उन्हें हिमालय में मेरे साथ हुई भंेट का
स्मरण था। विशाल श्रोता समूह को प्रवचन देते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा और सिर
हिलाया तथा मेरे आध्यात्मिक मार्ग की सही दिशा की पुष्टि करते हुए कहा, ‘‘जब भी तुम्हारे
लिए सम्भव हो पवित्र नाम के प्रवाह को बनाये रखो। भगवान् के नामों का उच्चारण
भगवान् के ही संग में रहने के समान है। यदि तुम अपने परम मित्र के साथ संग करोगे
तो वे तुम्हारे समक्ष अपना सच्चा सौन्दर्य प्रकट करेंगे।’’ जब कार्यक्रम
समाप्त हुआ रामदास और मैं अंतरंग वार्तालाप करने लगे। किन्तु राम हो रही थी, इसलिए उन्होंने
मुझे बातचीत जारी रखने के लिए अगले दिन अपने निवास पर आमन्त्रित किया।
मैं समय से पहले ही जयपुर धर्मशाला पहँुच
गया। वह अतिथिगृह कपड़ों की दुकानों और खाने-पीने के खोमचों के बीच शोरगुल से भरी
एक गली में बना था। दोनों ओर से आते रिक्शाचालक पैदल चलने वालों को हटाने के लिए
जोर-जोर से भोंपू बजा रहे थे। बाबा रामदास ने दरवाजा खोला। प्रातःकालीन सूर्य की
किरणों से उनका मुस्कुराता चेहरा चमक उठा। मैंने अपनी दृष्टि उनके कमरे में घुमाई
जो किसी विख्यात् प्रोफेसर का निवासस्थान नहीं अपितु एक सीधे-सादे साधु का कमरा लग
रहा था। शिष्टता से वे मुझे कमरे में रखे एकमात्र पलंग तक ले गये। मुझे बैैठाने के
पश्चात् वे स्वयं अपनी लहराती सफेद धोती को फैला चैकड़ी मारकर बैठे गये। हम
आमने-सामने बैठे थे। उनके गँजे होते सिर के सफेद बाल लहराकर उनके कँधे पर गिर रहे
थे।
पास की खिड़की से आये हवा के झोंके ने उनकी
बिखरी दाढ़ी को हल्के से हिला दिया। उनकी बड़ी नीली आँखें चमक रही थीं। आँखों के
कोनों में पड़ी धुँधली झुर्रियाँ उनकी मुस्कुराहट के साथ और गहरी हो जाती। बिना
कोई शब्द कहे हम केवल आँखों के माध्यम से एक-दूसरे के हृदयों में देख रहे थे। वे
क्षण मानो कालातीत थे। हमारे बीच उस लम्बी टकटकी ने मेरी दृष्टि को इस प्रकार
प्रभावित किया कि कभी वे मुझे एक मासूम बच्चे लगते तो कभी एक प्राचीन उदासीन साधु।
अनायास ही मुझे भगवद्गीता का एक श्लोक स्मरण
हो आया-‘‘जिस प्रकार
शाश्वत आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से युवावस्था और फिर वृद्धावस्था में प्रेवश
करती है, उसी प्रकार
मृत्यु के समय वह अन्य शरीर में प्रवेश करती है। आत्मज्ञानी व्यक्ति ऐसे परिवर्तन
से विमोहित नहीं होता।’’ एक विलक्षण
शान्ति पूरे कमरे में छाई थी। इसी प्रकार शायद आधा घण्टा बीत गया, फिर रामदास ने एक
गहरी श्वास भरी, अपने कन्धों को
धीरे से उचकाया और खामोशी तोड़ते हुए ओउम् का उच्चारण किया।
‘‘क्या आप मुझे अपनी आध्यात्मिक यात्रा के विषय कुछ बता सकते
हैं?’’ मैंने उनसे पूछा।
मैं यह जानने के लिए उत्सुक था कि वे भारत कैसे आये और कैसे अपने गुरु से मिले।
रामदास पलंग पर थोड़ा हिलडुल कर सीधे बैठे
गये, मानो कथा सुनाने
के लिए स्वयं को तैयार कर रहे हों। ‘‘कुछ वर्ष पूर्व मैं भारत आया था,’’ उन्होंने आरम्भ
किया। ‘‘मैं अपने साथ
एल.एस.डी लाया, यह सोचते हुए कि
यहाँ हमें कोई तो मिलेगा जो इसके विषय में हम पश्चिमवासियों से अधिक समझ पायेगा।
यात्रा के दौरान मुझे एक अमरीकी साधु भगवान् दास मिले, जिन्होंने मुझे
नीम करोली बाबा के पास भेजा। यह 1964 की बातें हंै। मैं अपनी माँ की मृत्यु से
शोकग्रस्त था। महाराजजी ने मेरे हृदय में देखा और अकल्पनीय करुणा द्वारा मुझे ढाढस
बँधाया। मेरे द्वारा अपने जीवन के विषय में एक भी शब्द कहे बिना उन्होंने मेरे
हृदय को पढ़ लिया और मेरे भूतकाल की गोपनीय बातें बता दीं। उनकी शक्तियों ने उनके
प्रेम, बुद्धि और
हास्य-विनोद के साथ मिलकर मेरे जीवन को परिवर्तित कर दिया।’’
‘‘जब मैं पहली बार उनसे मिला मुझे भी ऐसा ही अनुभव हुआ था,’’ मैंने कहा। ‘‘ऐसा लगा मानो
उन्हें मेरे बारे में सबकुछ मालूम था।’’
बाबा रामदास मुस्कुराये। ‘‘एक दिन महाराजजी
ने मुझझे पूछा, ‘वह दवाई कहाँ है’। पहले तो मैं
चकरा गया किन्तु भगवान् दास ने बताया कि वे एल.एस.डी. के बारे में पूछ रहे हैं। कौतूहलवश
मैंने शुद्ध एल.एस.डी. की तीन गोलियाँ निकालकर उन्हें दे दीं और मुझे आश्चर्य में
डालते हुए वे उन्हें निगल गये। मैं वैज्ञानिक तरीक से उनकी प्रतिक्रिया को जाँचने
के लिए तैयार था, किन्तु कुछ नहीं
हुआ-कुछ भी नहीं। वे तो एल.एस.डी. से परे हैं!’’
हिमालय के योगियों की शक्तियों का प्रत्यक्ष
अनुभव होने के कारण मैं विस्मय से हँसने लगा।
रामदास कमर सीधी रखे चैकड़ी मारकर बैठे रहे।
ऊपर की ओर खुलीं उनकी हथेलियाँ उनकी गोद में रखी थीं। ‘‘मैं महाराजजी के
संग से स्वयं को अलग नहीं रख पाया और इसलिए जितना सम्भव हुआ उनके साथ रहा। मुझे
अपना शिष्य स्वीकारते हुए उन्होंने मुझे रामदास नाम दिया, अर्थात् भगवान्
राम का सेवक। उनके असाधारण संग में महीने बीत गये। भले ही मैं अमरीका में बहुत
प्रभावशाली था, महाराजजी ने मुझे
वहाँ से किसी को उनके पास लाने से मना कर दिया।’’ रामदास ने अविश्वास में अपना सिर हिलाया। ‘‘किसी भी संसारी
वस्तु की ओर उनका रुझान नहीं है, न धन, न नाम और न अनुयायी। मैंने उन जैसा व्यक्ति कभी नहीं देखा।’’ अपने गुरु के
प्रति प्रेम की अनुभूति करते हुए उनकी वाणी काँपने लगी। ‘‘जब मैं महाराजजी
के साथ बैठता हँू तो मुझे लगता है कि मेरे हृदय में सभी के प्रति निःस्वार्थ प्रेम
हैं’’ उसी वर्ष में
1962 में रामदास ने अपनी कथा एक प्रसिद्ध पुस्तक बी हीयर नाओ में प्रकाशित
की।
साभार: अनोखा सफ़र
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