हम सभी ने रामायण का या प्रंसग सुना होगा कि जब हनुमान जी समुद्र लांघ रहे थे तो सुरसा नामक राक्षसी उनको खाने के लिए ललकारने लगी। हनुमान जी छोटा रूप कर समुद्र लांघ रहे थे। तुरन्त हनुमान जी ने अपना आकार बढ़ाया जिससे सुरसा उनका भक्षण न कर सके। सुरसा ने अधिक बड़ा मुख खोला, हनुमान जी ने उससे बचने के लिए अधिक बड़ा शरीर धारण किया। सुरसा ने उससे बड़ा मुख बनाया। हनुमान जी ने उससे विनती की कि अभी उन्हें जाने दिया जाय क्योंकि वो बहुत महत्वपूर्ण कार्य से जा रहे है जब सुरसा नहीं मानी तो उन्होंने अति लघु रूप धारण कर उससे मुख में प्रवेश किया व तुरन्त बाहर निकल आए। सुरसा अपने असली रूप में आ गयी व उन्हें आशीर्वाद दिया कि उनमें बल के साथ-साथ विवेक भी बहुत है अतः उन्हें अनके प्रयोजन में सफलता मिलेगी। सुरसा ने उन्हें बताया कि वो केवल उनकी परीक्षा लेने आयी थी।
सुरसा नामक बाधा, कष्ट कठिनाई अथवा परीक्षा हम सभी के जीवन में आती है। इस दुनिया में दो तरह के लोग है- एक वो जिनके जीवन का उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य है, ऐसे लोग बहुत कम है। दूसरे वो जो अपने पद प्रतिष्ठा, मान सम्मान, घर परिवार व धन संचय तक सीमित हैं। व्यक्ति जब भी उच्च लक्ष्य पर चलता है तो सुरसा नामक बाधाएँ उसके जीवन में बहुत आती है। उससे ऐसे लोग टकराते रहते है जो व्यर्थ में उसका रास्ता रोकने का प्रयास करते है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के पास दो मार्ग हैं या तो दूसरे अंह के साथ टकराने में अपनी शक्ति व्यर्थ करता रहें या फिर दूसरे के अंह को बड़ा रख स्वयं छोटा बन वहाँ से निकल जाए। यदि हम दूसरों के अंह से टकराने रहेंगें तो हमारा शक्ति व समय का बड़ा भाग इसी उलझन में व्यर्थ होता रहेगा। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि जिस लक्ष्य को लेकर हम चले थे वह पीछे छूट जाता है और आपसी टकराव व एक दूसरे से बदला लेने की भावना हमारे दिलोदिमाग पर हावी होती चली जाती है। भारत में अनेकों धार्मिक सामाजिक संस्थाएँ है इनमें अधिकांश श्रेष्ठ प्रयोजन के लिए समर्पित थी लेकिन आज अधिकांशत भीतरी अन्र्तकलह से जूझ रही है कही-कही यह विवाद इतना बढ़ जाता है कि जनता के समुख भी प्रकट हो जाता है कि संस्था के दो टुकडे़ हो गए अथवा एक ग्रुप को काबू करने के लिए पुलिस प्रशासन को हस्तेक्षप करना पड़ा।
अन्यथा यह विवाद भीतर ही भीतर सुलगता रहता है। यह विवाद उन संस्थाओं में अधिक होता है जहाँ महत्वपूर्ण पदों पर rotation नहीं होता व कुछ तथाकथित लोग अपने को अधिक योग्य समझकर कुर्सी पर कब्जा जमाए रहते है। मानव जीवन में अपने बड़े लक्ष्य को पाने के लिए व्यक्ति को छोटे-छोटे विवादों में अधिक ऊर्जा खर्च न करने की कला सीखनी चाहिए। यह तभी सम्भव है जब हमें अपने व्यक्तिगत अंह को नियन्त्रित करना आ जाए। अन्यथा क्या होगा? एक सेना (जैसे श्री कृष्ण की यादव सेना) बहुत बलवान थी दुश्मन से लड़ने चली। परन्तु मार्ग में उनमें छोटी बातों को लेकर आपस में विवाद बढ़ गया जैसे यह मार्ग जाने के लिए अधिक उपयुक्त है यह युद्ध नीति अधिक श्रेष्ठ है आदि-आदि ‘अच्छा मेरी बात नहीं सुनी गयी, मुझे अधिक महत्व नहीं दिया गया, में क्यों तुम्हारा सहयोग कँरू।’ विवाद इतना बढ़ा इतना बढ़ा कि सेना में दो गुट हो गए ओर आपस में टकराव प्रारम्भ हो गया। शत्रु सेना से तो क्या युद्ध करेंगो आपस में ही लड़ मरें।
जो व्यक्ति यह कला नहीं सींख पाते आस पास के घर परिवार, नौकरी, व्यापार के छोटे-छोटे विवाद उनको पथ भ्रष्ट कर देते हैं। ऐसा व्यक्ति कभी सफल जीवन नहीं जी पाता या जीवन में कोई महत्वपूर्ण कार्य करने में सफल नहीं हो पाता। इस पं्रसग के माध्यम से समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि अनावश्यक वाद विवादों में न स्वयं को उलझाया जाए। यदि सामने कला मूर्ख, नीच व बलवान है तो स्वयं को छोटा बना कर वहाँ से बचने का प्रयास करो। लड़ाई को अन्तिम विकल्प के रूप में सामने रखो। यदि दूसरा किसी भी प्रकार से आपको मार्ग नहीं दे रहा है फिर तो लड़ना ही पडे़गा।
यदि हम हनुमान जी की तरह विवेक का प्रयोग कर छोटा रूप धारण करना सीख जाँए तो 90 प्रतिशत विवादों में बिना लड़े ही काम चल जाएगा, बहुत ही थोड़े cases में हमें लड़ना पडे़गा। हर जगह यदि उलझते रहें तो एक दिन यह बहुमूल्य जीवन में ही हाथ से निकल जाएगा ओर अनेक प्रकार के रोग, मानसिक अशान्ति व पश्चाताप ही हाथ आएगा। हनुमान जी व सुरसा का प्रंसग कैसे तो देखने में एक सामान्य बात लगती है परन्तु जीवन प्रबन्धन (Life Management) का एक गहरा सूत्र हमें समझाता है।
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