मुक्ता ने पाॅंचवी बार द्वार खटखटाया। फिर अगला अभंग गाया-
संत उसे कहते हैं जग में, दया क्षमा है जिसके मन में।
लोभ अहंता निकट न आवै, वह विरक्त साधु कहलावै।
सदा नाम लेता ईश्वर का, मार्ग प्रशस्त कर आगे बढ़ता।
मिथ्या श्रम तुम छोड़ दो भाई, सत्य मार्ग पर चलो।
खोलो किवाड़ भईया मेरे, मुझ पर थोड़ी कृपा करो।।
भावार्थ- भईया, आप और निवृत्ति भईया ही तो कहते हैं कि संत वही है, जिसके हृदय में करुणा और क्षमा भाव है! लोभ और अहंकार जिसके निकट नहीं आता, वही सच्चा साधु, विरक्त वैरागी कहलाता है। ऐसा महात्मा सदा परब्रह्म के आदि-नाम का सुमिरन करता रहता है। इधर-उधर की बातों या व्यवहारों में नहीं उलझता। वह तो इस लोक में और परलोक में अपने लिए दिव्य राहें बनाता रहता है। इसलिए भईया, आप भी किसी तरह का व्यर्थ चितंन मत करो। अपनी सत्य की राह को पकड़ो। आनंदित होकर किवाड़ खोलो और अपनी छोटी बहन के लिए बाहर आओ।
मुक्ता ने छठी बार द्वार खटखटाया। फिर अगला अभंग गाया-
सरल हृदय ऋजुता अपनावो, निज समीप ईश्वर को पावो।
बतलाने की बात नहीं है, जहाॅं देखो वहाॅं दृश्य वही है।
गंगाजल सम तुम बन जावो, गुप्त आत्मधन अतुलित पावो।
जन तारो मुक्ता कहे, साथ ही आप स्वयं तरो।
खोलो किवाड़ भईया मेरे, मुझ पर थोड़ी कृपा करो।।
भावार्थ- ज्ञानेशा भईया! जितना-जितना वह दृश्य मन में दोहराओगे, उतनी-उतनी कटुता पनपती जाएगी। इसलिए छोड़ो न, जो भी हुआ! अपनी दृष्टि, अपना ध्यान, अपना मन और चित्त वहाॅं से हटा कर ईश्वर में लगाओ। उसके सर्वव्यापी दृश्यों में उसका दर्शन करो। उसकी कृपाओं को याद करो। पतितपाविनी गंगा जैसे शुद्ध और शीतल बन जाओ। छोड़ो बाहर के मांडे-वांडे! अपने अंदर के गुप्त आत्म-धन (जिस पर विसोबा चाटी की दृष्टि तक नहीं पड़ सकती) में आनंद मनाओ। उसके दर्शन का स्वाद उठाओ। यही भवसागर तरने की युक्ति है। इसलिए आनंदित होकर किवाड़ खोलो और अपनी छोटी बहन के लिए बाहर आओ।
मुक्ता ने सातवीं बार द्वार खटखटाया। अगला अभंग गाया-
जिसका भाव अशुद्ध नहीं है, ईश्वर उसके पास वहीं है।
स्वयं शुभ में रमिए, सबका शुभ करते रहिए।
मुझ ‘बच्ची’ में क्या शक्ति है,
आपको क्या समझा सकती है,
आपमें सद्गुरु की दृढ़ भक्ति है,
वही आपका संरक्षण करती है।
आपकी लाडली मुक्ताई बुला रही-
‘सब छोड़ भव-तरने का यत्न करो!’
खोलो किवाड़ भईया मेरे,
मुझ पर थोड़ी कृपा करो।।
भावार्थ- ज्ञानेश्वर भईया! इस साधना-पथ पर हमारा एक ही तो संघर्ष है। अपने मनोभावों को शुद्ध और पावन रखने के लिए ही तो हम जूझते रहते हैं। क्योंकि हम जानते हैं- यदि मन सुन्दर है, तो हरि दूर नहीं है। इसलिए भईया, अपने मन को शुभ और सकारात्मक विचारों में ही रमाईए। दूसरों को भी रमना सिखाइए... वैसे मैं तो एक नादान बच्ची हूॅं। मैं आपको क्या समझाऊॅं? आपकी तो सद्गुरु में निरन्तर भक्ति है। वे ही आपको सूक्ष्म रूप से हर पल समझाते रहते हैं। आपकी प्यारी और लाडली मुक्ताई तो बस इतना चाहती है- आप ये सब छोटे-मोटे चिंतन छोडि़ए। केवल आत्म-कल्याण पर चित्त लगाइए। आनंदित होकर किवाड़ खोलिए और अपनी छोटी बहन के लिए बाहर आइए।
अबकि बार मुक्ता को द्वार नहीं खटखटाना पड़ा। वह स्वयं ही खुल गया। ज्ञानेशा आनंदित होकर बाहर निकल आया। उसके नेत्रों से झमझम अश्रु बरस रहे थे। भावातिरेक में उसने छोटी बहन मुक्ता को अपने कंठ से लगा लिया। मुक्ता की भी आॅंखों से अश्रु-मोती लुढ़क गए। ज्ञानेशा ने उन्हें पोंछा और कहा’ ‘नहीं... नहीं मुक्ता! रो मत बहन! तू तो साक्षात् परब्रह्म की चित्तकला है। तू ब्रह्मवादिनी है। तेरे मुख में वाग्देवी का वास है। मैं धन्य हुआ ऐसी बहन को पाकर! आज तक तो मैं तुझे ‘अन्नपूर्णा’ कहता था, जो हमारे उदर को पोषित करती है। पर आज से तुझे ‘आत्मपूर्णा’ भी कहूॅंगा, जो हमारी आत्मा को भी अपने ब्रह्म-विचारों से पोषित कर सकती है।’
हाॅं, आज तो हमारी मुक्ता माई ने हमें ‘ताटी के अभंगों’ का महा-भोज कराया है।’- श्री निवृत्ति ध्यान से उठते ही बोले। सोपान भी नेत्र खोल चुका था। उसने भी अपने स्वर जोड़े- ‘सच! अगली बार ‘ताटी के अभंग’ कब सुनाओगी, मुक्ता आई? मुक्ता लजा सी गई। चारों भाई-बहन खिलखिला कर हॅंस दिए। सिद्ध दीप पर छाए उदासी के काले बादल छट गए। इतने में ही...
‘साधो! साधो! पर केवल अभंगों और आत्म-विचारों से उदर की अग्नि तो शांत नहीं होती, बालकों!’- आॅंगन के बाहर से स्वर उभरा। चारों की दृष्टि स्त्रोत की ओर घूम गई। सामने सोमेश्वर शास्त्री खड़े थे। उनके हाथ में आटे की पोटली थी। वे यह कहते हुए भीतर प्रवेश कर रहे थे- ‘मुझे थोड़ी देर पहले ही पता चला, विसोबा चाटी का दुव्र्यवहार... इसलिए यह आटा लाया हूॅं। भोजन पकाओ और फिर हरि के गुण भी गाओ।’
श्री निवृत्ति ने आगे बढ़कर सोमेश्वर शास्त्री जी को प्रणाम किया - ‘आप धन्य हैं, शास्त्री जी। आप हरि के ही दूत हैं।’
ज्ञानेशा का अंतःकरण आंदोलित-सा हो उठा। कुछ सोचते हुए उसने कहा- ‘दादा! ऐसा क्यों होता है कि ... जैसे ही हम अशुभ विचारों से संघर्ष करके शुभ्रता की ओर बढ़ने लगते हैं, तो कोई शक्ति झट से आकर हमें थाम लेती है। हमारी हर जरूरत पूरी कर देती है। हर पराजय को जय में बदल डालती है। मानो उस शक्ति ने ही पहले दूर बैठकर हमारी परीक्षा के लिए सारा खेल रचा हो... और हमें उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ देखकर फिर वही शक्ति पुरस्कारस्वरूप अपनी प्रसन्नता का प्रसाद भेज देती है। सबकुछ अच्छा और बढि़या कर देती है।’ श्री निवृत्ति पुनः रहस्यमयी रूप से मुस्करा दिए।
‘हरि ¬! तुम दिव्य बालकों की दिव्य बातें तुम ही जानो। मैं तो चला। सूरज ढलने वाला है। वापिस गाॅंव भी पहुॅंचना है।’ इतना कहकर सोमेश्वर शास्त्री जी ने विदा ले ली। उनके जाते ही सोपान बोला-’अब हमारे पास दो विकल्प हैं। एक, हम इस आटे की सीधी सादी रोटी बनाकर खा लें... या फिर मुक्ता की बनाई हुई कंद-मूल की सब्जी और चटनी से मांडे खाएॅं। वैसे, मेरी दृष्टि में दूसरा विकल्प श्रेय भी है और प्रेय भी!’
मुक्ता (हॅंसते हुए)- पर सोपान भईया, आपका यह श्रेय-प्रेय का मार्ग खपरैल के बिना बड़ा दुर्गम है।
दोनों भाई-बहन हॅंस दिए। पर निवृत्ति ने ज्ञानदेव की ओर देखा। ज्ञानदेव आत्मलीन था। कुछ सोच कर वह बोला - ‘कोई बात नहीं, मुक्ता। तुम आटा गूॅंथो। आज हम मांडे ही खाएॅंगे। ‘पराजय’ को पूर्ण ‘विजय’ बनाएॅंगे।’
मुक्ता (उत्सुकता से)- पर कैसे, भईया?
ज्ञानेशा - साधक की योग-साधना के बल पर! जाओ, तुम सारी तैयारी करके आटा मेरे पास ले आओ।
मुक्ता ने वैसे ही किया। अब ज्ञानेशा पाल्थी मारकर बैठ गया। थोड़ा सा झुक कर औंधा हुआ। योगबल से उसने देह में उष्णता पैदा की। देखते ही देखते उसकी पीठ तप्त हो गई। ज्ञानेशा ने आह्वान किया - ‘मुक्ता, त्वरा करो! सारे मांडे सेक लो।’
मांडे बनाने का क्रम आरम्भ हुआ। मुक्ता बेल-बेल कर मांडे ज्ञानेशा की पीठ पर डाल देती। वे तुरन्त ही योगाग्नि से सिक कर करारे हो जाते। फिर मुक्ता उन्हें निवृत्ति और सोपान की थाली में परोस देती।
यह दृश्य आलौकिक था। साथ ही, सांकेतिक भी कि साधक चाहे, तो अपनी साधना के बल पर असंभव से असंभव कार्य को ‘संभव’ कर सकता है।
अब तक विसोबा चाटी के गुप्तचर ने उन तक सूचना पहुॅंचा दी थी। विसोबा चाटी सिद्ध दीप की एक झाड़ी के पीछे छिपकर सारा दृश्य देख रहे थे। बालकों को रोते-बिलखते देखने का उनका अरमान धूमिल हो गया था। पहले तो उनकी आॅंखें आश्चर्य से विस्फारित हुईं। फिर घोर पश्चात्ताप से नम! जो बात उन्हें बड़े-बड़े शास्त्रार्थी नहीं समझा सकते थे, वह इन साधकों की साधना ने समझा दी थी।
कुछ पलों बाद... विसोबा चाटी धराशायी थे। इन बालकों की चरण-धूलि में लोट रहे थे। यह साधकों की विजय-दशमी थी, जिसमें अहं, ईष्र्या, द्वेष, भेदभाव आदि शत्रु पराजित हो गए थे। पर हाॅं... जिस हृदय में ये शत्रु थे, उसे इन साधकों ने जीत लिया था।
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