Tuesday, August 5, 2014

राधानाथ स्वामी की अध्यात्मिक खोज यात्रा part-5

            मैं नेपाल की राजधानी काठमाण्डू गया और वहाँ से सात मील पूर्व में स्थित बोधनाथ पर्वत पहुँचा। पर्वत के नीचे फूलों से भरे वृक्षों के एक कुंज में मैं ध्यान करने लगा। आँखें खोलने पर मैंने एक सुन्दर इन्द्रधनुष को देखा जो हिमालय की समूची घाटी पर खिंचा हुआ था और मानसून मेघों से रची नीली पृष्ठभूमि पर चमक रहा था मैंने शीतल सौंधी पवन की एक गहरी साँस ली। शीद्य्र ही ऊँची पदचापों ने मुझे मेरी स्वप्निल स्थिति से निकालकर मेरा ध्यान एक यूरोपी पर्यटक की ओर आकर्षित किया वह छाती फुलाये खाने-पीने के सामान का एक बड़ा थैला हाथ में लिए जा रहा था। छह फुट से ऊँचे, सुनहरे बालों और टी-शर्ट के नीचे से उभरती माँसपेशियों वाले इस व्यक्ति का डील-डौल एक बाॅडी-बिल्डर जैसा था। अचानक जंगल से निकले भूरे बन्दरों की एक टोली ने उसे घेर लिया। भले ही हर बन्दर उसके सामने पिद्दी दिख रहा था, वे बन्दर उसकी कमजोरी ढूँढ़कर हमला करने की कला अच्छी तरह से जानते थे। वे दाँत दिखाते हुए गुर्राये और डरावनी मुद्राओं से उसे धमकाने लगे। उस महाबली ने अपनी एक बलिष्ठ भुजा में अपना सामान पकड़ा और दूसरी से एक बड़ा पत्थर उठा लिया। फिर एक योद्धा की भाँति उस पत्थर को घुमाते हुए उसने उन छोटे लुटेरों का कचूमर बनाने की धमकी दी। किन्तु बन्दरों को कोई फर्क नहीं पड़ा तथा वे पहले से भी ज्यादा जोर से गुर्राने लगे। वे छोटी छलाँगे भर अपने शिकार के पास आये और उसके मन पर हमला करने में सफल हो गये। डर से उस पहलवान के हाथ-पाँव फूल गये और वह एक सहमे हुए बच्चे के समान काँपने लगा। अन्त में एक छोटा बन्दर ठीक उसके पीछे आया और उसके हाथ से थैला खींच लिया। पहलवान ने रोकने की चेष्टा भी नहीं की। बिना उसपर ध्यान दिये बन्दर थैले के इर्द-गिर्द खाने के लिए जमा हो गये। घबराहट से काँपता हुआ वह महाकाय दुबककर निकल गया।

            कुछ ही क्षणों में लगभग आठ वर्ष का एक दुबला-पतला नेपाली लड़का वहाँ पहुँचा। बन्दरों की टोली ने अपनी लूट का भोग करना आरम्भ ही किया था कि उस छोटे बच्चे को आता देख उनमें खलबली मच गई। बच्चा हाथ में पत्थर लिये उनकी ओर दौड़ा। लुटेरों का दल चीखने लगा, उनकी आँखों में आतंक उतर आया। अचानक उन्होंने थैला छोड़ा और भाग खड़े हुए। उस बच्चे ने थैला उठाया और खाने बैठ गया। सारे बन्दर चिन्ताग्रस्त हो दूर से देख रहे थे। मैं आश्चर्यचकित था। यह क्या हुआ? वह नटखट बालक मुश्किल से उस भीमकाय यूरोपी के एक साथ के बराबर था। बन्दर उस भीमसेन के धमकाने से टले नहीं क्योंकि उन्होंने उसके मन में बैठे भय को भाँप लिया था। किन्तु वे उस बालक से डर गये क्यांेकि उस बालक को उनसे कोई भय नहीं था। भगवान् की ओर निरन्तर स्पष्ट होते मेरे मार्ग पर यह घटना मुझे क्या सिखा रही थी। यदि हमारे मन में डर बैठ जाता है तो हम कमजोर होकर हार सकते हैं। वह विदेशी व्यक्ति बन्दरों से अपरिचित था, किन्तु नेपाली बच्चा जीवनभर बन्दरों के बीच रहा था। इसलिए, हम उससे डरते हैं जिसे हम नहीं जानते। अपने आध्यात्मिक स्वरूप के ज्ञान और भगवान् में सच्ची श्रद्धा से हम समस्त भयों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। हे भगवान्, कृपया मुझे ऐसा साहस दें जिससे मैं आप तक पहँुचने का मार्ग प्राप्त कर सकूँ। जीवन में भय एक प्रबल शक्ति है। बीमारी का भय, विफलता, अन्यों को निराश करने का या आर्थिक पतन का भय। शत्रुओं, चोरों, धोखेबाजों या जीवन में शंकाओं सहित अन्य अनेक वस्तुओं का भय। माँ की गोद में शिशु समस्त भय से मुक्त हो जाता है। ऐसी श्रद्धा हमें शान्ति प्रदान करती है, भले ही उस श्रद्धा की उत्पत्ति वैज्ञानिक या दार्शनिक ज्ञान से हो अथवा सरल विश्वास से। सच्ची श्रद्धा या तो भगवान् के प्रत्यक्ष अनुभव से आती है अथवा उन लोगों के संग से जिनके पास वह श्रद्धा है। मुझे ईसा मसीह के ये शब्द स्मरण हो आये, ‘‘जबतक कोई इस बालक के समान नहीं बनता, वह भगवान् के धाम में प्रवेश नहीं कर सकता।’’ हे भगवान्, क्या कभी मुझे ऐसी श्रद्धा का वरदान मिलेगा?

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