Friday, August 8, 2014

अपमान को आत्मनिर्माण की सीढ़ी बनालो part-1

संत ज्ञानेशवर जिन्होंने अपमान को आत्मनिर्माण की सीढ़ी बना लिया    

 साधना पथ तो है ही यु का पंथ! यु भी किसी अन्य से नहींस्वयं अपने आप से! अस्त्र-शस्त्रों से लैस सैनिकों से नहींविकारों से लैस मन के विचारों से! इन्हीं शत्रु विचारों में से एक है- मेरे साथ ऐसा क्यों हुआयह तो अन्याय है! मेरा अपमान है!... उसने मुझसे ऐसे कटु लहजे में बात क्यों कीउसने मेरी ओर हेय दृष्टि से क्यों देखाउसने आखें क्यों तरेरीक्या मेरी कोई इज्जत नहींकोई सम्मान नहीं?’

     अक्सरइन विचारों के प्रबल शस्त्र साधक के मन को विदीर्ण कर डालते हैं। उसके भीतर कोहराम मचा देते हैं। मान-सम्मान का मोर्चा संभालता हुआ साधक थक-हार जाता है। इस परिस्थिति में विजय श्री का बिगुल कैसे बजाया जाएअन्याय और अपमान की स्थितियों में एक साधक का क्या कर्म हैक्या धर्म हैउसकी प्रति￘िया कैसी होनी चाहिए?
इस समस्या को सुलझाया महाराष्ट के प्रसिद्ध चार आत्मज्ञानी भाई बहनों ने - श्री निवृकत्तनाथ, श्री ज्ञानदेव, श्री सोपान और बहन मुक्ता। ये बचपन से ही दूध नहीं, अपमान के घूंट पी-पीकर बड़े हुए। इन्हें मुख्य बाॅंव आलंदी से बाहर सिद्धद्यीप में निष्कासित कर दिया गया। इनके माता-पिता को देह-त्याग करने के लिए विवश किया गया। माता-पिता ने ग्राम-सभा की इस अन्यायकारी बर्बरता को भर शिरोधाय कर लिया, अपनी जीवन-ल्ीला समाप्त कर छाली-सिर्फ इसलिए कि उनके बच्चों को गाॅंव बाले स्वीकार कर लें। परन्तु तब भी न्याय का प्रकाश नहीं हुआ। ये छोटे-छोटे अनाथ भई बहन बाॅंव के बाहर एक निर्जन कुटिया में जैसे-तैसे पलते-बढ़ते रहे। अपमानकारी ताने और अन्यायकारी व्यवहार-यही इनकी खुराक थी। परन्तु....परन्तु.... इतिहास साक्षी है, इन्होंने ‘अपमान को भी अपने ‘आत्मनिर्माण का साधन बना लिया! कैसे? आइण् जानें!
                                              साभार अखंड ज्ञान अगस्त २०१४
            पूना शहर से 15 मील दूर इन्द्रायणी नदी के किनारे आलन्दी नामक गाँव है जहाँ सिद्धेश्वर मंदिर है जिसमें नित्य श्रद्धालु भक्त नदी में स्नान करने के पश्चात् दर्शन के लिए आते है। श्रीमती रुक्मिणी बाई नित्य की तरह अपने पड़ोस में रहनेवाली सहेली सुनन्दा नायक के साथ दर्शन आयी थी। परिक्रमा समाप्त करने के बाद उसकी नजर एक ओर बैठे एक सौम्य संत पर पड़ी जो ध्यान लगाये एकटक मंदिर की ओर देख रहे थे। एक अनजाने आकर्षण से रुक्मिणी बाई ने संत के समीप जाकर जमीन से माथा टेककर प्रणाम किया। संत ने प्रसन्न्ा मुद्रा में कहा-‘‘सौभाग्यवती हो बेटी। दूधो नहाओ, पूतों फलो।’’
            सहसा रुक्मिणी बाई की आकृति पर विषाद की रेखाएँ प्रस्फुटित हो गयी। सुनन्दा ने प्रणाम करते हुए कहा- ‘‘ऐसा आर्शीवाद किस काम का जो फलदायक न हो।’’ संत ने विस्मय से पूछा-‘‘क्यों बेटी, मेरा आर्शीवाद फलदायक क्यों नहीं होगा?’’
            सुनन्दा ने तेज स्वर में कहा-‘‘जो नारी सुहागिन होती हुई विधवा-सा जीवन व्यतीत कर रही हो, वह भला दूधो नहाओ, पूतों फलो जैसा आर्शीवाद लेकर क्या करेगी। आप अपना आर्शीवाद लौटा लीजिए।’’ अत संत तनकर बैठ गये। कुछ क्षण तक गौर से रुक्मिाणी बाई की ओर देखने के बाद उन्होंने पूछा-‘‘आखिर बात क्या है? मैं प्रत्यक्ष रूप से देख रहा हँू कि यह देवी कई सुसंतानों की जननी होगी।
            सुनन्दा ने कहा- ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है महाराज? इनके पति लगभग 11-12 वर्ष हुए तीर्थयात्रा करने काशी गये थे। बाद में पता चला कि वहीं श्रीपादस्वामी संत से दीक्षा लेकर संन्यास ग्रहण कर लिया है। संन्यासी व्यक्ति कैसे पुनः गृहस्थ बन सकता है। सहसा संन्यासी महाशय की आकृति कठोर हो गयी। प्रश्नसूचक दृष्टि से देखते हुए उन्होंने पूछा- ‘‘उसके नाम और रंग-रूप के बारे में कुछ बता सकती हो? मैं यहाँ से काशी जाऊँगा। अगर वह काशी में कहीं होगा तो उसे यहाँ भेज दूँगा, क्योंकि युवा-पत्नी से छल करके संन्यास लेना अपराध है। इससे संन्यास-धर्म नष्ट हो जाता है। साधना निष्फल हो जाती है।’’
            सुनन्दा ने उत्तर दिया- ‘‘रुक्मिणी बाई के पति का नाम विट्ठल पंत है। दुबले-पतले, गोरा रंग है। दाहिने हाथ में एक बार फोड़ा हुआ था, उसका निशान है। बात करते समय नजर नीचे रखते है।’’ संत ने कहा- ‘‘तुम चिंता मत करो बेटी। काशी जाकर मैं स्वयं तुम्हारे पति की खोज करूँगा। उसे तुम्हारे पास अवश्य भेजँूगा। मेरा आर्शीवाद कभी निष्फल नहीं होगा। तुम एक-दो नहीं, कई संतानों की जननी बनोगी और वे स्वनामधन्य होंगे।’’
            रुक्मिणी तथा सुनन्दा ने एक बार पुनः जमीन से सिर लगाकर प्रणाम किया और फिर वापस चली गयीं। संत अन्य कोई नहीं, स्वयं श्रीपादस्वामी थे। विट्ठल पंत की रूपरेखा को सुनते ही वे समझ गये कि यह चैतन्य आश्रम ही है जिसने छल करके उनसे संन्यास लिया है। काशी आते ही एक दिन उन्होंने पुकारा-‘‘विट्ठल, यहाँ आओ।’’ इस संबोधन को सुनते ही चैतन्य आश्रम चैंक उठा। श्रीपादस्वामी ने अनुभव किया कि उनका संदेह ठीक था।
            चैतन्य आश्रम के पास आने पर उन्होंने कहा-‘‘वत्स, छल करने से साधना क्षतिग्रस्त हो जाती है। भले ही सर्वसाधारण न समझे, पर सर्वशक्तिमान् ईश्वर इसे जान लेते हैं। तुमने मुझे, अपनी पत्नी को, गाँव के निवासियों को धोखा दिया है। संन्यास-ग्रहण करते समय तुमने मुझसे कहा था कि तुम पत्नी-पुत्र-हीन हो। गुरु से कपट करते तुम्हें लज्जा नहीं आयी?’’ विट्ठल को स्वप्न में भी विश्वास नहीं था कि उनके गुरु तीर्थ-दर्शन के सिलसिले में उसके गाँव जायेंगे। वहाँ इनकी मुलाकात रुक्मिणी से हो जायेगी। वे हतप्रभ होकर गुरु के कटुवचन चुपचाप सुनते रहे।
            विट्ठल को चुप रहते देख श्रीपादस्वामी का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने मृदुस्वर में कहा-‘‘अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम्हारी पत्नी तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा कर रही है। मेरा आदेश है कि उस देवी को मनोकष्ट मत दो। घर वापस चले जाओ। गृहस्थ-जीवन में भी तुम साधना कर सकते हो। मेरी शुभकामनाएँ सर्वदा तुम्हारे साथ रहेगी।’’
            विट्ठल पंत गुरु की आज्ञा मानकर आलन्दी वापस आ गये। मध्ययुग में ब्राह्मणवाद अत्यन्त कठोर हो गया था। बार-बार मुसलमानों के आक्रमण और अत्याचारों के कारण कर्मकांडी पंडित उदार होने के बदले रूढि़वादी बनते गये। सारा हिन्दू-समाज इनके बंधनों में जकड़ता गया। ऐसे माहौल में विट्ठल पंत ने संन्यास-आश्रम त्यागकर पुनः गृहस्थ-आश्रम को अपनाया।   
            विट्ठल अपने यहाँ की समाज-व्यवस्था से अपरिचित नहीं थे। वे यह जानते थे कि यह एक अक्षम्य अपराध है, इसे समाज कभी क्षमा नहीं करेगा। संन्यासी बनने का अर्थ है- समाज तथा परिवार के निकट मृत बन जाना। संन्यासी कभी अपनी जन्मभूमि में वापस नहीं आते।
            आलन्दी आते ही उन्हें सारा समाज घृणा की दृष्टि से देखने लगा। वे समाज से बहिष्कृत कर दिये गये। गाँव के अंतिम छोर पर वे सपरिवार अछूतों-सा जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए।



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