Sunday, August 17, 2014

गुरु भक्ति की पाराकाष्ठा part 1

दक्षिण भारत का एक अपूर्व क्षेत्र -श्रीरंगम। सांस्कृतिक और अलौकिक, दोनों ही परिमल बसी हुई थी यहाँ। आचार्य रामानुज अपने मठ में शिष्यों के संग निवास कर रहे थे।
एक शुभ दिवस- श्रीरंगम की गलियों से भगवान श्री रंगनाथ की शोभा-यात्रा निकल रही थी। पुष्पसज्जित रथ पर भगवान की सुन्दर मुर्ति स्थापित थी। ऊपर झूमर वाला छत्र झूल रहा था। दाएँ-बाएँ रेशमी पंखे झुलाए जा रहे थे। धूप-दीप, नैवेद्य से आरती-पूजन हो रहा था। ढोल, मजीरे और शहनाइयों की मधुर ध्वनियाँ थीं। सैकड़ों-छबीली मनोहर झाँकी पूरे श्रीरंगम को निहाल कर रही थी। जहाँ से भी यह शोभा-यात्रा गुजरती, गृह-दवार तुरन्त खुल जाते। खिड़कियाँ और झरोखे भी अनावृत हो जाते। उमंग भरी आँखें बाहर झाँकने लगतीं। कोई भी खुद को बंद किवाड़ो के पीछे थाम नहीं पा रहा था। भगवान श्री रंगनाथ के दर्शन का ऐसा ज्वार उठा था-श्रीरंगम की वीथिकाओं में!
यही मनोहर झाँकी पूरी सज-धज के साथ श्री रामानुजाचार्य जी के मठ के पास भी पहुँची। आचार्य जी के मठ के आँगन विराजमान थे। उनका एक शिष्य वदुगा नंबि रसोई घर में था। अपने आचार्य के लिए दूध गर्म कर रहा था। कुछ ही क्षणों में शोभा यात्रा मठ के दार पर पहुँच गई। सुगंधि और ध्वनियों ने वायुमंडल को मुग्ध कर दिया।
श्री रामानुज जी ने भी द्वार से बाहर झाँका। मुस्कुराए, उनकी बालवत् सहजता सतह पर आ गई। बड़े उत्साह से उन्होंने अपने शिष्य को पुकारा-वदुगा् ओ वदुगा बाहर आ! भगवान पेरुमाल का दर्शन कर ले
...देख, कितनी मनोहर झाँकी है... पेरूमाव्ठ की यात्रा गुज़र रही है! आ जा! दर्शन कर ले!
     आचार्य बड़े उत्साहित थे। शायद कुछ परखना चाह रहे थे। धीरे-धीरे यात्रा गुज़र गई। आचार्य पुनः आँगन में स्थापित अपने आसन पर आसीन हो गए। तेज़ कदमों से वदुगा रसोई से बाहर आ रहा था। उसके हाथों में गर्मागर्म दूध था, जिससे भाप उठती दिख रही थी। उसे देखते ही आचार्य ने ऊँचे स्वर में झिड़का- अब क्या गति दिखा रहा है! गज तो निकल गया। बाहर पूँछ भर रह गई होगी। तुझसे पेरूमाव्ठ के दर्शन छूट गए!रामानुजाचार्य जी ने मानो वदुगा को चिढ़ा सा दिया।
     पर उधर शिष्य में कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। उसने सहजता से गर्म दूध का प्याला गमछे से पकड़ कर आगे बढ़ाया, बोला- कोई नहीं! उस मूर्ति वाले पेरूमाव्ठ के दर्शन छूट गए तो क्या! इस (रामानुजाचार्य जी की ओर संकेत करते हुए) जीते-जागते पेरूमाव्ठ की सेवा तो मुझसे बीच में नहीं छूटी न! आप अपने पेरूमाव्ठ को संभालो! मुझे मेरे पेरूमाव्ठ को संभालने दो।इतना कहकर वदुगा आचार्य को पंखा झलने लगा। रामानुजाचार्य जी मुस्कुरा दिए। उनकी आँखों में चमक थी। ठीक वैसी ही जैसी एक सच्चा हीरा परखने पर जौहरी की आँखों में होती है। पर उन्होंने अपना यह गर्व दर्शाया नहीं। बस दूध की घूँट भरते हुए बोले- आज तूने इस दूध में क्या मिलाया है? स्वाद बहुत बढ़ गया है।
वदुगा- जी, कुछ नया नहीं! वही सब जो प्रतिदिन मिलाता हँू।

रामानुजाचार्य जी- अच्छा तो, बाहर से नहीं, भीतर से मिलाया होगा। हा...हा...हा... (आचार्य मुक्त हास कर उठे)

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