‘न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु, प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्।’
श्वेताश्वर उपनिषद् अर्थात् जो योगाग्निमय देह प्राप्त कर लेता है, उसको रोग, बुढ़ापा और मृत्यु नहीं व्यापते।
स्वामी रामकृष्ण व तेलंग स्वामी का
मिलन
स्वामी रामकृष्ण परमहंस काशी दर्शन के
लिए आए। उनके साथ रानी रासमणि के दामाद मथुरानाथ विश्वास व अनेक भक्त थे। गर्मी का
मौसम था। दशाश्वमेघ घाट पर आते ही उनके एक अज्ञात शक्ति आकर्षित करने लगी। उन्हें
समझते देर नहीं लगी कि कोई दिव्य आत्मा उन्हें आकर्षित कर रही है। परमहंस जी के
पैरों में जैसे पंख लग गए थे। वे नंगे पेर तेजी से घाट के किनारे-किनारे पैदल
पूर्व दिशा की ओर बढ़ते गए। तभी लोगो ने एक अद्भुत दृश्य देखा। सामने से एक नंग
धडंग साधु दोनों हाथ फैलाए चला आ रहा है। पास आते ही दोनो सन्त आपस में लिपट गए और
राम भारत का मिलन हुआ हो व एक दूसरे के मौन रहकर काफी समय तक देखते रहे। तत्पश्चात
परमहंस जी ने मथुरानाथ को कहा कि सुराज साक्षात विश्वनाथ सामने खड़े है इनका चरण
स्पर्श करके अपना लोक परलोक सुधार लें। यह सुनते ही सभी उनका चरण रज लेने लगें।
तभी तेलंग स्वामी के साथ आए कुछ लोगों ने जलपान की व्यवस्था की। सभी ने बाबा
प्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद ग्रहण करते समय परमहंस जी ने साथ आए लोगों से कहा ‘‘हम भी बाबा को खिलाएगें। देखते है बाबा
कितना खाते है काशी आकर अगर साक्षात विश्वनाथ को थोड़ा नहीं दिया तो यात्रा सफल
नही होगी।’’
इस घटना के बाद अवसर परमहंस जी तेलंग
स्वामी के आश्रम में जाते व मौन बाबा में चुपचाप बातें करते। वहाँ बैठे लोग इस
मनोहर दृश्य को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते थे। एक दिन घाट पर उपस्थित लोगों ने एक
विचित्र दृश्य देखा। परमहंस जी के साथ काफी लोग चल रहे हैं व सभी के सिर ओर हाथों
में बड़े-बड़े बर्तन है। यह काफिला तेलंग स्वामी जी की और बढ़ रहा है। तेलंग
स्वामी घाट पर लेटे हुए थे। काफिले को आते देख वे उठकर खड़े हो गए। पास आकर
रामकृष्ण बोले ‘‘आज अपने विश्वनाथ को खीर खिलाऊँगा।
देखूँ मेरे बाबा कितना खाते है?’’
परमहंस जी की बातें सुनकर स्वामी जी
मुस्करा दिए व पालकी मारकर बैठ गए। दनादन कटोरी में खीर उडेलकर परमहंसजी उन्हें
खीर खिलाने लगे। देखते ही देखते बीस सेर खीर बाबा जी खा गए। बाबा के बारे में यह
आश्चर्य था कि श्रद्धा प्रेम से कोई वस्तु चाहे उन्हें जितनी मात्रा में ही जाए वो
खा लेते थे। कभी-2 एक दो सप्ताह तक भोजन नहीं करते थे।
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सन् 1820 ई. की घटना है। नगर पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन था। गंगा पार
काशी नरेश का राज था। उज्जैन नरेश के मित्र थे, वे
उनके यहाँ अतिथि हुए। घाट का सौन्दर्य देखने के लिए दोनों राजा नौका बिहार कर रहे
थे। तभी वहाँ तैलंग स्वामी दिखायी दिए। उन्हें देख उज्जैन नरेश ने पूछा- ‘‘यह व्यक्ति कौन है जो सबके सामने नंगा
धूम रहा है।’’ काशी नरेश तैलंग स्वामी से परिचित थे।
उन्होंने कहा कि वो तेलंग स्वामी है जिनके काशी की जस्ता सिद्ध पुरुष के रूप में
मानती है। इस पर उज्जैन नरेश बोले- ‘‘हमारे
यहाँ अनेक विशिष्ट सत है चलो आज इनसे भी ज्ञान चर्चा की जाय।’’ उज्जैन नरेश बोले कि स्वामी जी के नाव
पर बैठाया जाए यही परमार्थ चर्चा होगी। तभी स्वामी जी हवा में उड़ते हुए आए व नाव
पर विराजमान हो गए व उज्जैन नरेश से बोले-‘‘कहिए
राजन ! आप मुझसे क्या पूछना चाहते हैं?’’ उज्जैन
नरेश ने कभी किसी सन्त के इस प्रकार हवा में उड़ते नहीं देखा था वे विस्मय व भय के
मारे गंूगे हो गए। तेलंग स्वामी के पुनः प्रश्न करने पर दोनों राजाओं ने उनको
प्रणाम किया व उज्जैन नरेश बोले- ‘‘स्वामी
जी हमें भगवान ने पृथ्वी पर भेजा है व यहाँ पर हम कोई प्रकार के सुख दुख भोगते है।
क्या इनसे मुक्ति पाकर हम भगवान को पा सकते है? सिद्ध
लोग तो भगवान के दर्शन कर जीवन धन्य कर लेते है परन्तु साधारण मानव के मुक्ति कैसे
मिल सकती है?’’ इस पर स्वामी जी बोलें- ‘‘ज्ञान, वैराग्य, नम्रता, साधु संग के द्वारा मुक्ति की इच्छा उत्पन्न होती है। राजाओं में इन
गुणों का सामान्यतः अभाव होता है। राजा लोग अपनी आध्यत्मिक उन्नति का प्रयास नहीं
करते।’ यह सुनकर दोनों राजा लोग नाराज हो लगें
व अनेक वाद विवाद करने लगे।
सहसा काशी नरेश के हाथ से तलवार लेकर
स्वामी जी ने उतर पुलट कर देखने के बाद गंगा नदी में फेंक दिया। इस पर उज्जैन नरेश
कुपित हो उठे- ‘‘यह कैसा साधु है जो दूसरों का सामान
उठाकर फेंक देता है? बाते इतनी बड़ी-2 ओर काम इतना ओछा।’’
काशी नरेश ने भी इसके अपना अपमान समझा
व भीतर ही भीतर बाबा पर क्रोधित हो गए परन्तु सयमित वाणी में एक अल्लाह से कहा ‘‘घाट के किनारे गोताखोर होंगे, उनसे तलवार निकलवा कर लाइए।’’ तैलंग स्वामी नाव से नीचे उतरने लगे तो
काशी नरेश बिगडकर बोले ‘‘जब तक तलवार नहीं मिल जाती तबतक आप
कहीं नहीं जा सकते।’’
दोनों राजाओं का ज्ञान व वैराग्य एक तलवार
के पीछे समाप्त हो चुका था वे इतने क्रोधित थे कि तलवार न मिलने पर स्वामी जी के
बन्दी बनाने की बात सोच रहे थे। अन्तर्यामी बाबा से यह रहस्य छिपा नहीं रहा।
उन्होंने मुस्करा कर नदी में हाथ डाला व चार तलवारें राजा को देते हुए कहा- ‘‘इसमें से जो तलवार अपनी हो, उसे पहचानकर ले लो।’’
कहाँ एक तलवार के पीछे राजा इतने
उत्तेजित हो उठे थे कि स्वामी जी के बन्दी बनाने की बात सोच बैठे थे पर अब अपनी
तलवार को पहचानने की समस्या सामने आ गयी। स्वामी जी बोले, ‘‘एक सामान्य तलवार के लिए इतना क्रोध
अभी-अभी तुम लोग बड़ी आत्मा, परमात्मा, ज्ञान वैराग्य की बातें कर रहे थे ओर
क्षण भर में सारा वैराग्य समाप्त हो गया। घिरस्कार है ऐसे जीवन पर अपनी तलवार भी
नहीं पहचानने की योग्यता रखते हो तो भगवान के क्या पहचानेगें?’’
इतना कहकर उन्होंने एक तलवार राजा को
देकर बाकी गंगा में फेंक दी। इसके साथ ही वे नदी में कूद पडे़। देर तक दोनों राजा
स्वामीजी के निकलने की प्रतीक्षा करते रहे ताकि अपने अपराध के लिए क्षमा मांग लें, पर वे पानी से नहीं निकले।
आखिर मल्लाह ने कहा- ‘‘महाराज, रात्रि जा रही है, वापिस
लौट जाइए। स्वामी जी कई बार दो तीन से पानी के भीतर ही रह जाते है पता नहीं कहाँ व
कैसे रहते है?
काफी देर प्रतीक्षा करने पर काशी नरेश
ने गंगा नदी के प्रणाम करते हुए कहा- ‘‘मुझसे
गलती हो गई महाराज हो सके तो इस पापी के क्षमा कर देना।’’
वास्तव में आज भी इस राष्ट्र के सम्मुख
यही समस्या ज्यों थी त्यों है। व्यक्ति धर्म, अध्यात्म, ज्ञान, मोक्ष की बड़ी-बड़ी बाते बनाता है परन्तु अपने आचरण के सुधार की ओर
ध्यान बहुत ही कम देता है। आचरण व्यवहार, कर्मों
की पवित्रता इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए सर्वोपरि है। बाते यदि अच्छी मिठाईयों
थी की जाएँ व पी ली शराब जाए तो उन सभी बातों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। इसी
प्रकार कर्मो की पवित्रता के बिना ईश्वर कृपा, दैन
कृपा मानव के ऊपर नही आ सकती चाहे कितना भी पूजा पाठ, जप तप किया जाय। स्वामी जी ने राजा को
यही शिक्षा दी कि कर्मों के सुधार, आचरण
में नम्रता लाए बिना कोई साधु सन्त सहायक नही हो सकता। यह कार्य तो मानव के स्वयं
ही करना पडेगा। जैसा बच्चा यदि कदम नहीं बढ़ाता है तो उसकी चलना कोई नहीं सिखा
सकता। इसी प्रकार व्यक्ति यदि अपने आचरण के सुधार पर प्रयास नही करता तो उसका हित
कोई नहीं कर सकता। अतः आइए सर्वप्रथम हम कर्मयोग से अपनी आध्यत्मिक उन्नति का
प्रारम्भ करें। श्री मद्भगवद्गीता के भी निष्काम कर्मयोग का ग्रन्थ माना गया है
क्योंकि उसमें के विषय में अर्जुन के सबसे अधिक सचेत किया गया है। महात्मा बुद्ध
के समय भी यही समस्या भी इसलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान कर्मो के सुधार की ओर
लगाया। अंगुलिमाल, आम्रपाली के गलत कर्मों से छुडवाया।
महात्मा बुद्ध के समय में ईश्वर के विषम में वेदों के विषय में चर्चाएँ चलती रहती
थी परन्तु कर्मों के विषय में सब मौन रहते थे। बुद्ध ने धारा को उल्टा चलाया।
ईश्वर व वेदो के विषम में चर्चाओं के बन्द किया व लोगों को आत्म चिन्तन व कर्म
सुधार की ओर प्रेरित किया।