Sunday, February 7, 2016

पुराणपुरुष लाहिडी महाशय

प्रारम्भ प्रयोजन
            पांतजन योग दर्शन के साधन पाद में समाधि तक पहँुचने के लिए क्रियायोग के अनिवार्य बताया गया है।
‘‘तप स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रिया योगः । स हि क्रियायोगः समाधि भावनार्थः क्लेशतन्करणार्थश्च ।।’’
साधनपाद 2/1-2
            भावार्थ यह है कि तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान क्रिया योग के मुख्य अंग है। (विस्तृत जानकारी के लिए साधना समर पढ़े) इस क्रियायोग के द्वारा ही समाधि तक पहुँचा जा सकता है यह अविद्या के कारण उत्पन्न क्लेशों को क्षीण करता है। प्रत्येक मनुष्य द्वन्द्व में जीता है। समाधि ह ीवह अवस्था है जिसमें मनुष्य पूर्ण आनन्द से जीता है। समाधि से पूर्व वह अनेक प्रकारो के क्लेशो से घिरा रहता है जिसका विवरण पांतजल योगदर्शन में सूत्र रूप में दिया गया है।
            जिस क्रियायोग के द्वारा इन क्लेशो का शमन होता है व समाधि का द्वारा खुलता है उस क्रियायोग का सन्देश महावतार बाबा जी ने लाहिडी महाशय के माध्यम से पूरे विश्व को दिया। कुछ ऐसी क्रियाएँ जिनके माध्यम से षटचक्रो में चेतना का प्रवाह चले व कुण्डलिनी का जागरण हो क्रियायोग के अन्तर्गत आती है। एक सरल प्रयोग नीचे दिया जा रहा है ।
            प्रातः काल सूर्योदय के समय सूर्य नमस्कार आसन करें फिर गहरी-गहरी श्वास लें। श्वास के नाभि तक ले जाएँ, फिर नाडी शोधन प्राणयाम करें। पाँच-सात मिनट आसन पाँच-सात मिनट प्राणायाम व 15 मिनट ध्यान। उगते हुए स्वार्णिम सविता का ध्यान अपने आज्ञा चक्र पर करें व अपना शरीर व मन प्रकाशवान, ज्ञानवान, विवेकवान हो रहा है इस प्रकार की भावना करते हुए गायत्री सूत्र का जप करें। यह एक क्रिया कही जा सकती है। काल के अनुसार क्रिया में परिवर्तन सम्भव है।
            जो सन्देश श्री कृष्ण ने अर्जुन के क्रियायोग के विषय में दिया था आज का मानव उतना शारीरिक रूप से मजबूत नही है अतः ठीक वही पद्यठि का अनुसरण हानिकारक भी हो सकता है। जैसे हठयोग के द्वारा मत्सेन्द्रनाथ, गोरखनाथ जी वे अपने शरीर को बज्र के समान कठोर बना लिए था। वह उस समय की आवश्यकता थी क्योंकि भ्रष्ट तान्त्रिको के भयानक ऊर्जा के आघात इन्हें अपने शरीरो पर सहने पड़ते थे।
            पहले अपने शरीर के इतना मजबूत बनाया कि तन्त्र के कारण प्रयोग द्वारा शरीर की हानि न हो पाए फिर उन तान्त्रिको से संघर्ष किया। परन्तु आज यदि लोग हठ योग की वह प्रक्रियाएँ अपनाते है तो शारीरिक रोगों की उत्पत्ति हा जाती है। कारण बड़ा स्पष्ट है शीतल जल में स्नान किसी के लिए लाभप्रद रहता है व किसी के लिए हानिप्रद इसी प्रकार घी के सेवन से किसी का शरीर बलवान बनता है तो किसी के हृदयाघात ;भ्मंज ंजजंबाद्ध की सम्भावना बढ़ जाती है। 
            इसी प्रकार क्रियायोग के स्वरूप पर हिमालय की ऋषि संसद में खोज बीन चलती है व आज क मानव के लिए क्या उपयुक्त है वही धरती पर भेजा जाता है। लेखक के अनुसार क्रियायोग का एक सरल प्रारूप बताया गया है आज्ञा चक्र पर ध्यान। जब आज्ञा चक्र में चेतना का स्फुरण होने लगे तो उसके सहस्त्रार पर ले जाना होता है फिर पीछे से चेतना को नीचे उतारते हुए अन्य चक्रो का जागरण करना होता है।
            इसके साथ-2 तप, स्वाध्याय व समर्पण इनका अभ्याद अनिवार्य है यह तीन सूत्र प्रत्येक कल में आवश्यक है अतः इनके खुला रखा गया बाकी चतंबजपबंस क्रिया के गोपनीय कर दिया गया। तप का सीधा अर्थ है श्।सूंले जतल जव विससवू जीम तपहीजमवने चंजीश् आस पड़ोस सभी उल्टा सीधा तइोक अजाकर धन, वैभव, विलास भरा जीवन जी रहे है। नही धर्म, मर्यादा ओर त्याग के साथ ही भोग (तेन त्यक्तेन मुंजोथ’) की अनुमति शस्त्र देता है यही तप है। स्वाध्याय का अर्थ है अच्छे विचारो व अच्छे व्यक्तियों का संग। समर्पण का अर्थ है आध्यत्मिक मार्ग पर चलते हुए जो भी सुख दुख मिल रहा है उसे ईश्वर की इच्छा अथवा प्रारब्ध का योग मानकर स्वीकर करना। यह मानना कि सब हमारे भले के लिए ही हो रहा है।
            जिस क्रियायोग का शुभरम्भ बाबा जी द्वारा आज से 150 वर्ष पूर्व किया गया उसका चरम कुछ वर्षो पश्चात् देखने को मिलेगा। लगभग एक लाख आत्माएँ क्रियायोग के द्वारा योग की उच्च अवस्थाओं को प्राप्त होने जा रही है जो भी व्यक्ति तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान रूपी क्रियायोग के अनुशासन के जीवन में धारण करने का प्रयास करेगें उन्हें सूक्ष्म जगत से क्रियायोग की दीक्षा अर्थात् शक्तिपात होगा।
            भारत की भूमि पुनः विश्व की आध्यात्मिक लीता स्थली बनने जा रही है। इसके लिए बाबा जी की महावतार प्रक्रिया सन् 2011 से प्रारम्भ हो चुकी है व आने वाले 40 वर्षो में पिछले 2000 वर्षो की गन्दगी का सफाया होकर पीछे का संविधान लागू हो जाएगा।
            इस विलक्षण समय में अपने हृदय के सद्भाव, भक्तिभाव से मुख्य व मस्तिष्क के सद ज्ञान व विवेक से परित कर योग की उच्च अवस्थाओं के प्राप्त कर सकें इस हेतु योगी चरितामृतकी एक श्रृंखला प्रारम्भ की गयी है। 12 वर्ष की आयु के अनेक बच्चों ने जब इन पुस्तकें के पढ़ना प्रारम्भ किया तो उन्हें अपनी संस्कृति की महानता का परिचय प्राप्त हुआ। घर-घर में इन महायोगियों की गाथाएँ सुनायी जाएँ जिसमें उच्च संस्कारो की स्थापना भारत के परिवारों में हो सकें, यही उद्देश्य लेकर इस श्रृंखला का शुभरम्ीा सन 2016 से किया जा रहा है। पुस्तक का मूल्य लेखक की ओर से कम से कम रखने का प्रयास किया गया है। पिछले वर्षों में आर्थिक घाटा उठाकर की साधना समरके जन-जन तक पहँुचाने का प्रयास किया गया जिसके परिणाम बहुत ही सुन्दर रहे। यह तो युग की माँग है कि इस राष्ट्र की संस्कृति को बचाने के लिए हम सभी किसी न किसी रूप में अपना सहयोग अपना प्रयास जारी रखें।
            उच्च आत्माएँ यह संकल्प लें कि इस योगी चरितामृतकी पुस्तकें 24 नए घरो में पहुँचाएगे। यह ऋषि ऋण होता है जो ज्ञान मिल रहा है उसे बाँटना आवश्यक है। आशा है इस पुनीत कार्य में पाठको के सहयोग मिलता रहेगा। इसी के साथ सबके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए यह पावन चरित आपके समक्ष प्रस्तुत है देवात्मा हिमालय से भी प्रार्थना है कि क्रियायोग का यह दिव्य प्रसाद आपके घर तक पहुँे व जीवन के दुखे कष्ट को दूर कर उच्च स्तरीय आनन्द व ज्ञान प्रदान करें।

            जय बाबा जी! जय देवात्मा हिमालय! जय पुराणपुरुष लाहिडी महाशय!

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