भारतीय संस्कृति को मूल मन्त्रों में प्रमुख है ‘सत्यमेव जयते’ अर्थात् जीत सदा सत्य की ही
होती है। यदि हम सच्चाई के साथ युग निर्माण योजना की समीक्षा करें, यदि सच्चाई के साथ अपनी कमियों, कठिनाईयों का विश्लेषण करें
व सच्चाई के साथ उनका समाधान ढूंढे उनको हल करने का प्रयास करें तो निश्चित रूप से
जीत हमारी होगी। कठिनाई यह है कि हम सच्ची समीक्षा की जगह पक्षपात पूर्ण समीक्षा
करने लगते हैं। स्वयं के महान दिखाने के चक्कर में हम यह भूल जाते हैं कि कितना
बड़ा अनर्थ कर रहे हैं अपने मित्रों, रिश्तेदारों के प्रभाव में
आकर गलत निर्णय ले बैठते हैं व अन्तरात्मा की सच्ची प्रकार को नजरन्दाज कर देते
हैं।
एक बार एक ऐसी ही भूल एक राजा ने की थी। सीमा पर युद्ध के बादल मंडरा
रहे थे। राजा रानी दोनों दुर्ग के ऊपर चढ़कर दूरबीन से सीमाओं का निरीक्षण कर रहे
थे। कुछ समय पश्चात् सूर्य की तपिश से रानी का शरीर झुलसने लगा। वह सूरज पर
क्रोधित हुयी व राजा से बोली- ‘हे राजन! इस सूरज की
घृष्टता तो देखिए सारी धूप मुझ पर ही उडेल दी। यह भी नहीं सोचा कि में कोई साधारण
स्त्री नहीं,
वरण इस राज्य की महारानी हँू। इस घमण्डी के सजा दी जाए। राजा ने
बोखलाकर सेना के आदेश दिया- ‘तोपें दागकर इस सूर्य के
भगा दो’। आदेशानुसार सेनिको ने सूर्य की ओर तोपें तान दी व गोलाबारी आरम्भ
कर दी। परिणामतः कुछ समय पश्चात् तोपो के गोलो से आकाश में धुएँ के बादल बन गए ओर
सूर्य दिखना बन्द हो गया। रानी बड़ी प्रसन्न हुई कि सूर्य भाग गया। अगले दिन पुनः
सूर्योदय हुआ व उन्हें यह भी पता चला कि तोपो की गोलाबारी से बहुत नुकसान हो गया।
राजा का पुत्र जो सीमा की निगरानी के लिए गया हुआ था इस व्यर्थ की गोलाबारी में
मारा गया।
अब राजा रानी को अपनी मूर्खता का पता चला व उनके दुखों का पारावार न
रहा। जो सत्य को छुपाने का प्रयास करते हैं जो अपने स्वार्थ के चक्कर में सत्य को
दबाने का प्रयास करते हैं उसका परिणाम बड़ा भयानक भी हो सकता है। असत्य कितना ही
प्रयास करें,
सत्य के झुक नहीं सकता। विपरीत परिस्थितियाँ भरपूर जोर लगा लें
किन्तु पुरुषार्थो व दृढ़ निश्चयी के डिगा नहीं सकती। इसी प्रकार अधर्म का कोहरा
धर्म रूपी सूर्य के ढंकने का कितना ही प्रयास करे सूर्य के अस्तित्व के कोई आंच
नहीं आ सकती।
इसलिए आइए मित्रों आज प्रण करते हैं कि हम सदा सत्य का साथ देंगे व
विजय श्री का वरण करेगें।
सोंचते है कर्म भूमि को अपने पुरुषार्थ से, साधनारत रहते हैं जो भावना निःस्वार्थ से। गुरु आज्ञा धर शीश पर जो
आगे बढ़ते जाते हैं, वही तो मातृभूमि के सच्चे
सपूत, विश्वामित्र कहलाते हैं।।
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