Tuesday, February 23, 2016

विश्वामित्र -new book

इस संसार में अंधकार भी है और प्रकाश भी; स्वर्ग भी है और नरक भी; पतन भी है और उत्थान भी; त्रास भी है और आनंद भी। इन दोनों में से जिसे चाहे, मनुष्य इच्छानुसार चुन सकता है। कुछ भी करने की सभी को छूट है, पर प्रतिबंध इतना ही है कि कृत्य के प्रतिफल से बचा नही जा सकता। स्त्रष्टा के निर्धारित क्रम को तोड़ा नहीं जा सकता। करने की छूट होते हुए भी उसे परिणाम भुगतने के लिए सर्वथा बाध्य रहना पड़ता है। यह दूसरी बात है कि इस प्रक्रिया के पकने में कुछ विलंब लगता है। मुकदमा दायर होने और सजा मिलने में अपने न्यायधीश भी तो ढेरों समय लगा लेते है। ईश्वर का कार्यक्षेत्र तो और भी अधिक विस्तृत है। उसके न्याय करने में यदि देर लग जाती है तो मनुष्य को धैर्य खोने की आवश्यकता नहीं है और न यह अनुमान लगाने की कि वहाँ अंधेरगरदी चलती है। चतुरता के बलबूते अपने यहाँ तो अनेक अपराधी दंड पाने से बच जाते हैं, पर सर्वव्यापी और सर्वसाक्षी न्यायाधीश के न्याय में किसी को ऐसे अवसर नहीं मिलते।
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          चंद्रगुप्त जब विश्वविजय की योजना सुनकर सकपकाने लगा तो चाणक्य ने कहा- ‘‘तुम्हारी दासी पुत्र वाली मनोदशा को मैं जानता हँू। उससे ऊपर उठो और चाणक्य के वरद् पुत्र जैसी भूमिका निभाओ। विजय प्राप्त कराने की जिम्मेदारी तुम्हारी नहीं, मेरी है।’’ शिवाजी जब अपने सैन्यबल को देखते हुए असमंजस में थे कि इतनी बड़ी लड़ाई कैसे लड़ी जा सकेगी, तो समर्थ रामदास ने उन्हें भवानी के हाथों अक्षय तलवार दिलाई थी और कहा था- तुम छत्रपति हो गए, पराजय की बात ही मत सोचो। राम-लक्ष्मण को विश्वमित्र यज्ञ की रक्षा के बहाने बला और अतिबला का कौशल सिखाने ले गए थे; ताकि वे युद्ध लड़ सकें- असुरता का समापन और रामराज्य के रूप में सतयुग की वापसी संभव कर सकें। महाभारत लड़ने का निश्चय सुनकर अर्जुन सकपका गया था और कहने लगा था कि ‘‘मैं अपने गुजारे के लिए तो कुछ भी कर लूँगा, फिर हे केशव! आप इस घोर युद्ध में मुझे नियोजित क्यों कर रहे हैं?’’ इसके उत्तर में भगवान् ने एक ही बात कही थी कि ‘‘इन कौरवों को तो मैंने पहले से ही मारकर रख दिया है। तुझे यदि श्रेय लेना है तो आगे आ अन्यथा तेरे सहयोग के बिना भी वह सब हो जाएगा, जो होने वाला है। घाटे में तू ही रहेगा- श्रेय गँवा बैठेगा और उस गौरव से भी वंचित रहेगा जो विजेता और राज्यसिंहासन के रूप में मिला करता है।’’ अर्जुन ने वस्तुस्थिति समझी और कहने लगा- ‘‘करिष्ये वचनं तव’’ अर्थात् आपका आदेश मानूँगा। ऐसी ही हिचकिचाहट हनुमान, अंगद, नल-नील आदि की रही होती तो वे अपनी निजी शक्ति के बल पर किसी प्रकार जीवित तो रहते, पर उस अक्षय कीर्ति से वंचित ही बने रहते, जो उन्हें अनंतकाल तक मिलने वाली है। युगसृजन में श्रेय किन्हीं को भी मिले, पर उसके पीछे वास्तविक शक्ति उस ईश्वरीय सत्ता की ही होगी, जिसने नई सृष्टि रचने जैसे स्तर की अभिनव योजना बनाई है और उसके लिए आवश्यक साधनों एवं अवसर विनिर्मित करने का साधन जुटाने वाला संकल्प किया है।
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          उदारमना होना भी ईश्वर-भक्ति का अविच्छिन्न अंग है। कृपणता, निष्ठुरता एवं संकीर्ण स्वार्थपरता उसके रहते टिक ही नहीं सकती। संत, भक्तजन, इसीलिए अमीर नहीं रहते कि वे उपब्धियों का न्यूनतम उपयोग करके जो बचत संभव हो, उसे प्रसन्नतापूर्वक परमार्थ-प्रयोजनों में लगाते रहे। यह उदारता ही उनमें दैवी उदारता का आह्नान करती और उसे घसीटकर बड़ी मात्रा में सामने ले आती है। बादल उदारतापूर्वक बरसते रहते हैं। समुद्र उनके भंडार को खाली न होने देने की प्रतिज्ञा निभाते रहते हैं। नदियाँ भूमि पर प्राणियों की प्यास बुझाती हैं। उनमें जल कम न पड़ने पाए, इसकी जिम्मेदारी हिमालय पर पिघलती रहने वाली बरफ उठाती है। पेड बिना मूल्य फल देते रहते हैं, बदले में नई फसल पर उन्हें उतने ही नए फल बिना मूल्य मिल जाते हैं। गाय दूध देती है। इससे उसका थन खाली नहीं हो जाता; सबेरे खाली हो गया थन शाम तक फिर उतने ही दूध से भर जाता है। धरती बार-बार अन्न उपजाती है। उसकी उर्वरता अनादिकाल से बनी हुई है और अनंतकाल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी। उदार सेवा-भावना का जिसके चिंतन और व्यवहार में जितना पुट है, समझना चाहिए कि उस प्रामाणिक व्यक्ति को समाज का सम्मान भरा सहयोग और ईश्वर का अनुदान उसी अनुपात में निरंतर मिलता रहेगा। 
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          इक्कीसवीं सदी में यों अपनी-अपनी भावना और योग्यता के अनुरूप हर किसी को कुछ-न-कुछ करना ही चाहिए। व्यस्तता और अभावग्रस्तता के कुहासे में कुछ करना-धरना सूझ न पड़ता हो तो फिर अपनी मनः स्थिति और परिस्थिति का उल्लेख करते हुए शांतिकुंज, हरिद्वार से परामर्श कर लेना चाहिए।
          विशेषतः इस शताब्दी में प्रखर प्रतिभाओं की बड़ी संख्या में आवश्यकता पडे़गी। पिछली शताब्दी में प्रदूषण फैला, दुर्भाव बढ़ा और कुप्रचलन का विस्तार हुआ है। उसमें सामान्यजनों का कम और प्रतिभाशालियों द्वारा किए गए अनर्थ का दोष अधिक है। अब सुधार की वेला आई है तो कचरा बिखेरने वाले वर्ग को ही उसकी सफाई का प्रायश्चित्त करना चाहिए। तोड़ने वाले मजदूर सस्ते मिल जाते हैं, किंतु कलात्मक निर्माण करने के लिए अधिक कुशल कारीगर चाहिए। नव-निर्माण में लगाई जाने वाली प्रतिभाओं की दूरदृष्टि, कुशलता और तत्परता अधिक ऊँचे स्तर की चाहिए। उनका अंतराल भी समुज्ज्वल होना चाहिए और बाह्य दृष्टि से इतना अवकाश एवं साधन भी उनके पास होना चाहिए ताकि अनावश्यक विलंब न हो और नए युग की स्थापना व विश्वकर्मा जैसी तत्परता के साथ कर सकें।
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          ईश्वर का स्वरूप न समझने वाले उसे मात्र मनोकामनाओं की पूर्ति का ऐसा माध्यम मानते हैं, जो किसी की पात्रता देखे बिना आँखें बंद करके योजनाओं की पूर्ति करता रहता है; भले ही वे उचित हों या अनुचित, किंतु जिन्हें ब्रह्मसत्ता की वास्तविकता का ज्ञान है, वे जानते हैं कि आत्मपरिष्कार और लोककल्याण को प्रमुखता देने वाले ही ईश्वर-भक्त कहे जाने योग्य हैं। इसके बदले में अनुग्रह के रूप में सजल श्रद्धा और प्रखर प्रज्ञा के अनुदान मिलते हैं। उनकी उपस्थिति से ही पुण्य-प्रयोजन के लिए ऐसी लगन उभरती है, जिसे पूरा किए बिना चैन ही नहीं पड़ता। उस ललक के रहते वासना, तृष्णा और अहंता की मोह-निद्रा या तो पास ही नहीं फटकती या फिर आकर वापस लौट जाती है। नररत्न ऐसों को ही कहते हैं। प्रेरणाप्रद इतिहास का ऐसे ही लोग सृजन करते हैं। उनके चरणचिहृों का अनुसरण करते हुए सामान्य सामथ्र्य वाले लोग परमलक्ष्य तक पहुँच कर रहते हैं। यही उत्पादन यदि छोटे-बड़े रूप में उभरता दीख पड़े तो अनुमान लगाना चाहिए कि भावभरा बदलाव आने ही वाला है। कोपलें निकली तो कलियाँ बनेंगी, फूल खिलेंगे, वातावरण शोभायमान होगा और उस स्थिति के आते भी देर न लगेगी, जिससे वृक्ष फलों से लदते और अपनी उपस्थिति का परिचय देकर हर किसी को प्रमुदित करते हैं।
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          इन दिनों औसत आदमी संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में एड़ी से चोटी तक डूबा प्रतीत होता है। उनकी आँखें न सजल होकर इर्द-गिर्द बिखरे हुए पतन-पराभव को देखती हैं और न ऐसा कुछ सूझता है कि अवांछनीयता की औचित्य में बदलने के लिए उनसे क्या कुछ बन पड़ सकता है। जिनके कानों में कराह की पुकार ही नहीं पहुँचती है; जिन्हें घुँघरू के बोल ही सुहाते हैं, वे युग की पुकार और ईश्वर की वाणी सुन सकने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं! मानवीय भाव-संवेदना जहाँ से पलायन कर जाती है और जहाँ मरघट जैसी नीरवता और नीरसता ही छाई रहती है, वहाँ शालीनता का स्नेह-सद्भाव कैसे बन पडे़गा! कैसे उस दिशा में उनके कुछ कदम उठ सकेंगे! ऐसे वातावरण में यदि कोई पुण्य-परमार्थ को वरण करने की बात सोचता है। आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कत्र्तव्य के प्रति लगन का उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है।
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          आशा और विश्वास के बल पर कष्टसाध्य रोगों के रोगी बीमारियों से लड़ते-लड़ते देर-सबेर चंगे हो जाते हैं; जबकि शंकालु, डरपोक और अशुभ चिंतन करते रहने वाले साधारण रोगों को ही तिल का ताड़ बनाकर मौत के मुँह में जबरदस्ती जा घुसते हैं। देखा गया है कि अशुभ चिंतन के अभ्यासी अपना जीवट और साहस आधी से अधिक मात्रा में अपनी अनुपयुक्त आदतों के कारण ही गँवा बैठते हैं। कठिनाइयाँ और अड़चनें हर किसी के जीवन में आती हैं, पर उनमें से एक भी ऐसी न होगी जिसे धैर्य और साहसपूर्वक लड़ते हुए परास्त न किया जा सके। सहनशीलता एक ऐसा गुण है, जिसके साथ धैर्य भी जुड़ा होता है और साहस भी। आजीवन जेल की सजा पाए हुए कैदी भी उस विपत्ति को ध्यान में न रखकर घरेलू जैसी जिंदगी जी लेते हैं और अवधि पूरा करके वापस लौट आते हैं। सुनसान बीहड़ों में खेत या बगीचे रखाने वाले निर्भय होकर चैकीदारी करते रहते हैं; जबकि डरपोकों को घर में चुहिया की खड़बड़ भी भूत-बला के घर में घुस आने जैसी डरावनी प्रतीत होती है। शुत्र किसी का उतना अहित नहीं कर पाते, जितनी उनके द्वारा पहँुचाई जा सकने वाली हानि की कल्पना संत्रस्त करती रहती है। कुछ लोग गरीबी के रहते हुए भी हँसती-हँसाती जिंदगी जी लेते है; जबकि कितनों के पास पर्याप्त साधन होते हुए भी तृष्णा छाई दिखती रहती है। यह मन का खेल है। हर किसी की अपनी एक अलग दुनिया होती है, जो उसकी अपनी निज की संरचना ही होती है; परिस्थितियों और साथियों का इस निर्माण-कार्य मे यत्किंचित् सहयोगी ही होता है। जीवन गीली मिट्टी की भाँति है, उसे कोई जैसी भी कुछ चाहे, आकृति दे सकता है।
   "ईश्वर का परम प्रसाद प्रखर प्रज्ञा'      by Shri Ram Sharma Acharya      

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