एक अन्य प्रसंग में
उन्होंने अपने विषय में बतलाया था, ”बचपन से ही सत्य के प्रति अनुराग था। झूठ नहीं बोल सकता था।
इसी में दादा गुरु मुझसे बहुत स्नेह करते थे। ज्ञानगंज में एक दिन स्नान करने जा
रहा था, उसी समय एक कुमारी को स्नान करते देख मेरे चित्त
चंचल हो उठा। मैं बिना
स्नान किए दादा गुरुदेव के पास चला गया। मुझे असमय आते देख वे तनिक हॅंसे। मैंने
बिना किसी प्रकार की भूमिका बाॅंधे अपने मन की शोचनीय स्थिति उनके सामने खोलकर रख
दी। सम्भव हो तो मेरे इस पाप के लिए प्रायश्चित की व्यवस्था कर दें नहीं तो मुझे
आश्रम से बाहर निकाल दें। मेरे जैसा आदमी यहाॅं रहने के योग्य नहीं है। दादा
गुरुदेव ने हॅंसते हुए कहा कि उनके आशीर्वाद से अब कभी काम हावी नहीं होगा। यह
कहकर उन्होंने मुझे एक प्रक्रिया सिखाई व उसका अभ्यास करने को कहा। दादा गुरुदेव
की शक्ति अप्रतिम है। तीनों लोक उनके भय से काॅंपते हैं।“
बंगाली होेने पर भी स्वामी
जी दिव्य जीवन की प्राप्ति के लिए खाद्य व अखाद्य पर भली-भान्ति विचार करते थे।
सत्संग की उपयोगिता पर बल देते थे अव साधना के लिए प्रेरित करते थे। उनका मानना है
कि साधना के विषय में जो जितना कर्म करेगा उतना सफल होगा। सबसे पहले चरित्र उत्तम
न होने से कुछ भी सम्भव नहीं। धर्म का आश्रय ग्रहण कर ही शान्ति मिल सकती है। Ÿदण्डी और संन्यासी जीवन के आठ वर्षों में
इन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष का पर्यटन किया और अच्छी साधना के और भी परिपुष्ट
किया। तत्पश्चात् ये ज्ञानगंज योगाश्रम में लौट आए। अब इनकी इच्छा ‘नाभि धौति’
सीखने की हुई जो हठ योग की अति कठिन किया है। जब इन्होंने यह इच्छा ज्ञानगंज के एक
वयोवृद्ध योगी के सामने रखी तो वह इनका उपहास उड़ाने लगे, ”तुम वामन हो कर चन्द्रमा के हाथ से पकड़ता चाहते
हो। हम सौ-सौ वर्ष योगाभ्यास करने वाले भी इस क्रिया में सफलता नहीं पा सके तुम कल
के लड़के कैसे सीखेंगे?“ जब भुगुराम जी यह
पता चला तो उन्होंने संन्यासी विशुद्धानन्द को यह क्रिया सिखाई। इस क्रिया द्वारा
शरीर शून्यमय हो जाता है। इससे शरीर को संकुचित तथा प्रसारित करने की क्षमता आ
जाती है। एक रोमकूप में से होकर किसी बड़े पदार्थ को भी शरीर के भीतर फसाया जा
सकता है अथवा बाहर निकाला जा सकता है।
इस प्रक्रिया द्वारा
स्वामी जी ने अपनी देह में प्रायः 400 स्फटिक गोलक तथा मस्तिष्क में बाणलिंग, शालिग्राम, माता आदि यथा स्ािान सजा कर रखे थे। प्रयोजन पड़ने पर पूजा
आदि के लिए वे उनको बाहर निकाल लेते तथा क्रियादि के उपरान्त फिर भीतर घुसा देते।
बड़े-बड़े स्फटिक गोलक रोमछिद्रों में से देह के भीतर प्रविष्ट करते हुए उन्हें
अनेक शिष्यों-भक्तों ने स्वयं देखा था। शरीर के एक भाग में प्रविष्ट कराके वे उसी
वस्तु को भीतर ही भीतर देह के दूसरे भाग में ले जाते थे। कभी-कभी संकोच प्रसार
करते समय एक दो स्फटिक अपने आप देह से बाहर छिटक जाते थे। जिसके कारण उग्र तथा
विशुद्ध पद्म गंध वातावरण में फेल जाती थी। वे शरीर के किसी भी अंग को
स्वेच्छानुसार छोटा, भारी या हल्का कर
सकते थे।
इस प्रकार ‘नीम-धौति
की उन्नत अवस्था विशेष को कहते हैं - ‘किरात धौति’ इसमें शरीर के किसी भी अंग में
यथेच्छा वायु भी ली जाती है जिसे कहते हैं - किरात कुम्भक। इसके बल से योगी आकाश
में उड़ पाता है और अपना बाह्य ज्ञान को बनाकर रख सकता है। Ÿक्रिया ;पूजाद्ध के समय बाबा की देह के भीतर भयानक ताप तथा विद्युत
शक्ति जाग्रत हो उठती। उस समय देह को ठण्डा रखने के लिए वो दो सर्पों को अपनी देह
पर लपेट लेते थे। इसके अतिरिक्त विद्युत शक्ति को शान्त रखने के लिए स्फटिक को शीत
स्पर्श गोलक सजा कर रखते थे। इस प्रकार ज्ञानगंज में स्वामी जी ने मंत्र, तपस्या तथा समाधि द्वारा अनेक सिद्धियाॅं
प्राप्त की थी जिसका प्रयोग वो लोकहित में ही करते थे। आग्रह तथा प्रार्थना से वे
जन सामान्य के क्लेश व रोग दूर कर दिया करते थे।
तीर्थ स्वामी पद पर
आसीन होने के उपरान्त इनको गुरु का आशीष मिला कि अब घर वापस जाकर गृहस्थ होना है व
लोककल्याण की भूमिका निभानी है। वे 14 वर्ष 3 मास की आयु में
ज्ञानगंज गए थे। इस आदेश की प्राप्ति पर उनकी आयु 35 वर्ष से उळपर हो चुकी थी। स्वामी जी को अब योग मार्ग में
इतना आनन्द आने लगा था व इतनी शक्तियों का विकास हो चुका था कि गृहस्थाश्रम प्रवेश
का आदेश उन्हें बड़ा भारी प्रतीत हुआ। उन्हें भय था कि परिवार व समाज में रहते -
रहते इतने कठिन परिश्रम से अर्जित )द्धियों-सिद्धियों कहीं लुप्त न हो जाएॅं। आश्रम
में रहते उन्होंने कभी गुरु आदेश का लेशमात्र लंघन नहीं किया था इस कारण गुरु के सामने
अपनी अनिच्छा व्यक्त न कर सके। उनके गुरु सर्वज्ञता बल के कारण उनके मनोभाव को जान
गए। उन्होंने इनको आश्वस्त विद्या कि गृहस्थ होने पर भी उनकी आध्यात्मिक क्षति
तनिक भी नहीं होगी और फलस्वरूप अधिक उन्नति होती जाएगी। लौकिक शिक्षा के अभाव में
वे कैसे परिवार का पालन पोषण करेंगे यह प्रश्न उनके सम्मुख था। दादा गुरु का आदेश
मिला ”डाॅक्टरी करना तथा योग ज्योतिष द्वारा जन्मपत्री
आदि का विचार कर लोगों के समुचित कवच आदि देना। इसी आय से तुम्हारा जीवन निर्वाह
अच्छा चलता रहेगा।
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