Wednesday, February 24, 2016

स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस - एक परिचय PART-2

)षिकेश ;निकट हरिद्वारद्ध के स्वर्गाश्रम से उत्तर भारत के अधिकाॅंश धार्मिक व्यक्ति परिचित होंगे परन्तु जिनकी पावन स्मृति में इस आश्रम का निर्माण हुआ है उनके व्यक्तित्व से बहुत ही कम लोग परिचित हैं। उनका असनी नाम है स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस जन सामान्य जिन्हें प्यार से काली कमली वाले बाबा थे नाम से जानता है। विभिन्न मनीषियों ने इनको विभिन्न प्रकार के नामों से पुकारा है। अध्यात्म जगत् की प्रसिद्ध पुस्तक योगी कथामृत ;।नजवइपवहतंचील व िं
ल्वहपद्ध के लेखक श्री योगानन्द परमहंस ने अपनी पुस्तक में इनको गंध बाबा के नाम से सम्बोधित किया है तो एक अंग्रेज पत्रकार पाल ब्रंटन ने अपनी पुस्तक ‘गुप्त भारत की खोज’ ;प्द ैमंतबी व िैमबतमज प्दकपं। में इनको ‘बनारस के एक मायावी’ शीर्षक के अन्तर्गत रखा है। पाल ब्रटन एक उच्च प्रतिभा सम्पन्न ब्रिटिश पत्रकार थे जो भारत के योगियों के चमत्कारी किस्से सुनकर उनके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से भारत आए थे एवं भारतीय योगियों से प्रभावित हो देश-विदेश में हमारी संस्कृति का गुणगान करते घूमते थे।
स्वामी विशुद्धानन्द जी से किए साक्षात्कार के बारे में वो लिखते हैं कि स्वामी जी ने उनको बड़े प्रेम से अपने पास बैठाकर व अपनी करामात दिखाने के लिए उनसे रूमाल माॅंगा। अपना रूमाल दो, रेशमी हो तो अच्छा है। जैसे खूश्बू चाहते हो, पा सकते हो।“û रूमाल लेकर वह जादूगर बोला - ”कहिए कौन सी सुगन्ध चाहिए? मैं इसमें शीशे ;स्मदेद्ध की मदद से वह उत्पन्न कर सकता हूॅं।
जैसे ही पत्रकार ने बैले की सुगन्ध माॅंगी तो उन्होंने शीशे से सूर्य की किरणें उस पर थ्वबने कर रूमाल उनको वापिस कर दिया। पत्रकार आगे लिखते हैं - ”उसमें बैले की सुगन्ध भी। रूमाल को बड़े गौर से देखा। उसमें नमी नहीं थी न ही कोई इत्र छिड़का गया था। इस बार गुलाब की सुगन्ध माॅंगी गई। पुनः प्रयोग के उपरान्त जब रूमाल वापिस मिला तो उसमें गुलाब की खुशबू थी।“
अब पाल ब्रंटन महोदय हैरानी से उस काॅंच को स्मदे को अपने हाथ में लेकर देखने लगा तो वह एक साधारण काॅंच था। घर आकर पत्रकार ने वह रूमाल बहुत से लोगों को दिखाया सभी को वैसी खूश्बू आती मालूम पड़ी। अब पत्रकार के मन मे कुछ और चमत्कार देखने की इच्छा हुई तो उनको दूसरे दिन कड़ी धूप में आने को कहा गया।
अगले दिन नया प्रयोग आरम्भ हुआ। एक मृत गौरैया लाई गई व परीक्षण करने पर उसको मृत पाया गया। कुछ देर बाद जादूगर ने काॅंच निकाला व सूर्य किरणों को चिडि़याॅं की आॅंखों पर केन्द्रित किया। साथ-साथ कुछ अजीब भाषा में मंत्र पढ़ने लगे। थोड़ी देर बाद चिडि़या की लाश कुछ-कुछ हिलने लगी व पंख फड़फड़ाने लगी। कुछ समय पश्चात् फिर बंगले के पेड़ की डाल पर जा बैठी। पत्रकार महोदय का दिमाग चकरा गया व उनको अपना गुरु बनने का निवेदन करने लगे।
इस पर स्वामी जी ने मना कर दिया व कहा थ्क इसके लिए उन्हें तिब्बत ज्ञानगंज में रहने वाले अपने गुरु से अनुमति लेनी होगी।
पत्रकार ने प्रशन किया - ”आपके गुरु यदि सुदूर तिब्बत में हैं तो आप उनसे अनुमति कैसे ले सकते हैं?“
उन्होंने जवाब दिया - ”हम दोनों के बीच आत्मिक जगत् में व्यवहार अच्छी तरह चलता है।“
इसके बाद पाल ब्रंटन ने अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्न किए जिसका उत्तर स्वामी जी ने दिया। उन्हें मालूम हुआ कि स्वामी जी शून्य से अॅंगूर, मिठाईयाॅं उत्पन्न कर सकते हैं। यहाॅं की सामग्री को तिब्बत भेज सकते हैं, मुरझाएॅं फूलों को हरा-भरा कर सकते हैं। इस प्रकार पाल ब्रंटन ने अपनी भारत यात्रा के दौरान भारतीय योगियों की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएॅं देखी व उनका अपनी पुस्तक में उल्लेख किया। उनकी मुलाकात एक ऐसे योगी से हुई थी जिनकी उम्र 400 वर्ष थी। उन्होंने
पानीपत का प्रथम युद्ध ;सन् 1526ई.द्ध व पलासी का युद्ध ;सन् 1757 ई.द्ध स्वयं देखा था। यह सर्वविदित है कि अब से 150 वर्ष पूर्व लोकनाथ ब्रह्मचारी व तैलंग स्वामी 300 वर्ष के आस-पास जीवित रहे।
स्वामी जी का जन्म बंगाल प्रान्त के वर्धमान जिले में बंडुल गाॅंव के एक ब्राह्मण परिवार में सन् 1853 ई. में हुआ था। इनके पिता श्री अखिल चन्द्र चट्टोपाध्याय व माता राजराजेश्वरी देवी ने इनके भोले स्वभाव के कारण इनका नाम भोलानाथ रखा। यह बालक सामान्य शिशुओं की भान्ति न तो रोता था न व्याकुलता प्रकट करता था। बचपन ही पिता की मृत्यु होने पर इनका लालन-पालन
माता व चाचा चन्द्रनाथ ने किया। बचपन से ही इनको साधुओं के दर्शन व सत्संग व एकान्त सेवन में विशेष रुचि थी। जब भी अवसर मिलता भोलानाथ गाॅंव के पास शमशान में एक वट वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यान करते थे। इनकी आसाधारण बाल्य प्रवृत्तियों से लोगों ने अनुमान लगा लिया था कि यह बालक अवश्य ही आगे चलकर कोई सिद्ध महापुरुष बनेगा।
एक दिन जब ये सात वर्ष के थे सायं में इन्होंने सुना कि शमशान में कोई विचित्र संन्यासी आया है तो लोगों के पास आता उन पर ढेले फेंकता है कोई भी उनके पास जाने की हिम्मत नहीं कर पाया। इन्होंने संन्यासी से मिलने की इच्छा प्रकट की। घरवाले रात्रि में उन्हें शमशान जाने कैसे दे सकते थे? इन्होंने अपनी माता के पास सोने का अभिनय किया व माॅं के सो जाने पर अकेले रात्रि के
अॅंधेरे सन्नाटे में शमशान के लिए निकल पड़े। साधु-सन्तों के दर्शनार्थ खाली हाथ नहीं जाना चाहिए इसलिए गोशाला से एक पका कटहल कन्धे पर उठा लिया। दो मील की उळॅंची-नीची राह पार कर जब वह शमशान भूमि पहुॅंचे तो दूर से लपटें बिखेरता एक अग्नि पिण्ड दिखाई दिया। भोलानाथ समझ गए कि संन्यासी ने धूनी की आग से ये लपटें निकल रही हैं। पास आने पर देखा तो ये आग की लपटें संन्यासी के शरीर से निकल रही थी। क्षण भर के लिए बालक डरके मारे गुमसुम हो गया। जैसे ही संन्यासी ने बालक को देखा तो एक पत्थर उठाकर इनको मारने चले। यह देख भोलानाथ ने वहीं पड़े बाॅंस को उठा लिया जिससे संन्यासी का मुकाबला कर सकें। संन्यासी बालक के अद्भुत साहस को देखकर चकित हो गए व उन्हें प्रेम से अपने पास बुलाया।
भोलानाथ बोले - ”पहले तुम अपने हाथ से पत्थर फैंको, तब मैं बाॅंस फेंकूॅंगा।“ संन्यासी ने पत्थर छोड़ा व भोलानाथ ने बाॅंस तथा दोनों का मेल हो गया व बातचीत प्रारम्भ हो गई। भोलानाथ ने पूछा कि वो ऐसा अशिष्ट व्यवहार क्यों करते हैं? संन्यासी ने उत्तर दिया, ”जनसामान्य से दूरी बनाकर रखने के लिए“ भोलानाथ ने श्रद्धापूर्वक कटहल भेंट किया व संन्यासी ने देखते-देखते वह पाॅंच-सात सेर का कटहल कच्चा ही खा डाला। भोलानाथ ने जब संन्यासी की बातों से प्रभावित होकर उनके साथ रहने का अनुरोध करने लगा तो संन्यासी ने उनको समझाया, ”बालक! इतनी छोटी अवस्था में ही, इस भयानक अंधेरी रात में निर्जन अरण्य और घोर शमशान में तुम मेरे पास आ पहुॅंचे, आश्चर्य है। तुम अभी अपने असली रूप् को नहीं पहचानते। समय आने पर अपने आस्तित्व
को समझ सकोगे।“
यह संन्यासी कोई साधारण व्यक्ति नहीं वरन् तिब्बत में स्थित ‘गुप्त योगाश्रम -ज्ञानगंज’ के पूज्य अभयानन्द जी थे जिन्होंने बालक के सर्वप्रथम उनके विशेष योगी व विशेष जीवन को बोध कराया था। संन्यासी से विदा लेकर बालक भोलानाथ भागता हुआ घर आया। वहा आशंकित था कि कहीं घर में उनकी खोज न हो रही हो। रात के तीन बज चुके थे। परन्तु घर में सब गहरी नींद में सोए
थे यह देखकर ईश्वर को धन्यवाद देकर बालक चुपचाप अपनी माॅं की बगल में जाकर सो गया।

तेरह वर्ष की उम्र तक भोलानाथ कोई वस्त्र नहीं पहनते थे। यदि उन्हें डाट-डपट कर धोती पहना दी जाती तो उसे दान कर देते थे। चाचा चन्द्रनाथ ने इनको अंग्रजी शिक्षा देने का पूरा प्रयत्न किया परन्तु ये अंग्रेजी नहीं पढ़ पाए । अपितु नवद्वीप के तत्कालीन विख्यात विद्वान प. विद्यारत्न महाश्य से इन्होंने थोड़े ही समय में अपनी आलौकिक प्रतिभा से संस्कृत व शास्त्रों का उचित ज्ञान प्राप्त कर लिया था।

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