अब तीर्थ स्वामी विशुद्धानन्द गृहस्थ आश्रम के
लिए घर वापिस आ गए एवं उनकी माता ने प्रसन्न हो उनके विवाह के प्रयत्न प्रारम्भ कर
दिए। माना जाता है कि जब दादा गुरु भृगुराम देव जी ने विवाह का आदेश दिया उसी समय
उन्होंने इनके विवाह के लिए ऐसी कन्या का चयन किया था जो उनके प्रयोजन को पूर्ण
करने में सहायक सिद्ध होगी। गुरु माॅं के सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है उसके
अनुसार वे सुशीला, कर्मठ एवं निरभिमान
महिला थी तथा पूरे परिवार की सेवा में लगी रहती थी। उनका नाम कृष्णभामिनी देवी था
वो सन् 1892 ई. में स्वामी गृह में आई
थी। सन् 1894 के जून में इनके प्रथम
पुत्र दुर्गादास का जन्म हुआ। क्रम से एक अन्य पुत्र विष्णुपद तथा कन्या
विश्वेश्वरी देवी का भी जन्म हुआ।
Ÿडाॅक्टरी विद्या अपनाकर स्वामी जी वदर््धमान
जिला के गृष्करा नामक स्ािान में रहकर
चिकित्सा व्यवसाय के द्वारा
अपने परिवार का भरण-पोषण करने लगे। सन् 1893 में से गुष्कमा आए थे व सन् 1911 तक यहीं रहे, तत्पश्चात् दादा गुरु के आदेश पर ही यह स्ािान छोड़ा। Ÿडाॅक्टर के रूप् में गुष्करा में स्वामी जी की
ख्याति कुछ ही समय में फेल गई व दूर-दूर से धनी रोगी भी उनके पास चिकित्सार्थ आने
लगे। यहाॅं स्वामी जी दिन में कई बार स्नान करते थे। दिन में जन सेवाकर कर्म
रात्रि में अन्नाहार न करके तीव्र तप के साथ योग चर्चा में लगे रहते थे। Ÿअचानक शीतकाल में भी रात्रि को 2 बजे लालटेन हाथ में लटकाएॅं ये पोखर में स्नान
के लिए जाते थे। पोखर के जल में वे प्रायः आधे घण्टे तक निमग्न रहते। स्नानोपरांत
स्त्रोतपाट करते हुए घर आते व कमरे के द्वार बन्द कर गुप्त साधन क्रिया में लीन हो
जाते। उस समय सारा कमरा पद्म गन्ध से सुवासित हो उठता। प्रायः सात बजे तक वे बाहर
निकलते। उनका मानना था कि इस प्रकार दृढ़ता व एकाग्रता के साथ साधना करने पर ही
भगवद्प्रेम का अधिकारी बन सकता सम्भव हो सकता है। जीव भाव की शिव भाव में परिणति
कठोर साधना द्वारा ही सम्भव है। सात बजे जब बाबा बाहर आकर बैठते तब कोई उन पर पंखा
उठाकर हवा करता तो कोई उनके चरण दबाता। गम्भीर ध्यान का नशा उस समय भी उन पर छाया
रहता था। उस समय बैठक खाने के बरामदे में अनेक रोगी, साधु, गृहस्थ, बालक, वृद्ध, भोगी व योगी सभी
एकत्र होने लगते थे। बाबा सभी पर स्नेह दृष्टि डालकर पूछते - Ÿकहो क्या हाल है? अच्छे तो हो?
Ÿकोई कहता बाबा! दवा चाहिए्। कोई पूछता, बाबा मेरे उदार का उपाय बताओं? कोई सन्तान शोक से दुःखी होकर बाबा से शान्ति का
उपाय पूछता। कोई कपड़ा, खाना, धन प्राप्ति की प्रार्थना करता तो कोई बाबा से
अलग एकान्त में साधना तत्व के गूढ़ रहस्यों पर परामर्श के लिए आकुल भाव से
प्रार्थना करता। जो कोई जिस किसी मनोरथ को लेकर आता, बाबा उसका मनोरथ उचित ढंग से पूर्ण करते। बालक-बालिकाएॅं
प्रसाद पाने के लालच में बाबा के पास आते थे। वे उन्हें तरह-तरह के फल, मिठाईयाॅं और सुगन्धित पदार्थ बाॅंटकर उनको
सन्तुष्ट करते। इस प्रकार इस महापुरुष के रहते गुष्करा आनन्द का हाट हो गया था।
बाबा के निकास स्ािान से पदम गन्ध निरन्तर निकलती रहती थी। व बाबा जहाॅं भी जाते
वहाॅं भी वह गन्ध प्रतीत होती थी।
Ÿबाबा बालिकाओं में साक्षात् महाशक्ति जगदम्बा की
भावना रखते थे व कुमारी-भोजन को महायज्ञ मानते थे। उनका कहना था कि कुमारी भोजन से
जगदम्बा महाशक्ति विशेष रूप् से संतुष्ट होती है। इसके बुरे कर्मों के पापों से
छुटकारा मिल जाता है तथा अनेक विघ्न और संकटों का निवारण होता है। हर पूर्णिमा को
ग्यारह अथवा अधिक कुमारियों के भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए तथा 12 वर्ष की आयु तक की कन्याओं को पूरी, हलवा, दही, रसगुल्ला, आलू, परवल आदि की सब्जी से शुचिता के साथ भोजन कराया जाना चाहिए।
प्रातः दस बजे तक उन्हें भोजन कराएॅं। पहले कुमारियों के चरण धोएॅं फिर स्वच्छ
स्ािान पर आसन पर बैठाकर श्रद्धा सहित साक्षात् जगदम्बा का स्वरूप मानकर उन्हें
भोजन कराएॅं। फिर चरण छूकर व दक्षिणा देकर विदा करें। बाबा कहते थे कि कुमारी भोजन
से बढ़कर इस समय में दूसरा कोई यज्ञ नहीं है।
प्रातः ठीक बजे बाबा
भोजन करते। उसके पश्चात् आए हुए भक्तगणों के साथ विविधविषयों पर शास्त्रक सम्बन्धी
आध्यात्मिक चर्चा करते। शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को सरल भाव से प्रत्यक्ष करके
समझाा देते। एक बजे से चार बजे तक आस-पास के गाॅंवों के बहुत से साधु-ब्राह्मणों व
पण्डित आदि वहाॅं पधारते व अपने संशयों का समाधान पाते थे। Ÿसूर्यास्त होते ही ठीक समय अपनी नित्य क्रिया के
लिए पूजा गृह जाकर द्वार बन्द कर परमात्मा के ध्यान में लग जाते थे। दूसरे किसी
लोकिक कार्य के लिए कभी अपनी साधन क्रिया में हस्तक्षेप नहीं होने देते थे। ठीक नौ
बजे रात्रि को शयन के लिए चले जाते। यही क्रम उनका प्रायः जीवन के अन्त तक चला।
बंगाल की भूमि किसी
समय साधु, सन्तों, भक्तों, योगियों की भूमि रही
है। चैतन्य महाप्रभु की लीलास्थली भी यही थी जिनके द्वारा पूरे बंगाल की धरती पर
भक्ति व संकीर्तन की गूॅंज सुनाई देती थी। इस पर भी बंगाल किसी समय शाक्य योगियों
का प्रान्त था। बड़े-बड़े शक्तिशाली योगी यहाॅं पैदा हुए थे। बहुत से बौद्ध योगी
भी थे। भक्ति मार्ग में जिस प्रकार नाना सम्प्रदाय और शाखाएॅं है उसी प्रकार
योगमार्गाे में भी अनेक पंथ हैं। सबकी साधना प्रणाली अलग-अलग रही है परन्तु शक्ति
विकास का सुयोग सभी में है। अन्य प्रदेशों के साधु भी बंगाली योगियों की सिद्धियों
से परिचित थे। कहते हैं अमरकण्टक के वनों में एक बंगाली साधु बाघ बनकर घूमता था
इसलिए सब उन्हें ‘बाघवा बाबा’ कहा करते थे। बंगाली महायोगियों की शक्ति से तो पूरा
भारत परिचित रहा है इनके नाम हैं - 1. श्यामाचरण लाहिड़ी 2. बादी के लोकनाथ ब्रह्मचारी 3. वर्दमान के विशुद्धानन्द परमहंस 4. स्वामी रामकृष्ण परमहंस 5. विजय कृष्ण गोस्वामी इनके समकक्ष योगियों में
काशी के तैलंग स्वामी व गोरखपुर के गम्भीरनाथ का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता
है।
इन सभी की शक्ति की
कोई सीमा नहीं थी। ये सभी अति उन्नत योगी थे। जिस समय हमारा राष्ट्र राजनैतिक व
आर्थिक दृष्टि से मृतप्रायः हो गया था इतने बड़े-बड़े योगियों ने आकर इस राष्ट्र
की रक्षा की। आज दुःख की बात है कि आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से भारत की स्थिति
कैसी भी हो परन्तु साधना की दृष्टि से आज बड़ी ही दयनीय स्थिति है। सुनते हैं कि
महात्मा बुद्ध के शरीर से सुगन्धि निकलती थी उनका शरीर गन्धमय था। वे जिस कुटी में
रहते थे, वह गन्धकुटी के नाम से प्रसिद्ध थी। इसी प्रकार
श्री राधा कृष्ण की देह से पद्म गन्ध की बात शास्त्रों में आती है। श्री चैतन्य
महाप्रभु की देह भी विशेष समय पर गन्धमय हो जाती थी। योगी लोग कहते हैं कि योग की
चार अवस्थाओं में देह शुद्धि के साथ दिव्य गन्ध का भी उदय होता है। पाश्चात्य
सन्तों में सन्त टेरेसा की देह से दिव्य गन्ध निकलती थी यहाॅं तक कि मृत्यु के बाद
भी निकलती रही।
यह राष्ट्र )षियों
की धरोहर है। इसका उत्थान निश्चित है। एक बार अमेरिकी डाॅक्टर स्ंततल ठतपससपंदज
नीम करौली के बाबा के आश्रम कैंची धाम में साधना करते थे। अपनी साधना में उन्हें
अपने गुरु कीअ ावाज सुनाई दी। जिसमें उनसे गुरु दक्षिणा के लिए कहा गया। भारत के
बच्चे च्वसपव व ैउंससचवग से पीडि़त न हो यह प्रयास तुमको करना है। उन डाॅक्टर ने ॅभ्व्
के माध्यम से भारत में ये व्यापक अभियान चलाकर अपने महान गुरु को यह अनमोल दक्षिणा
समर्पित की। हम सभी भारतवासी इन महान गुरुओं के )णी हैं व इनकी शिक्षाओं को जीवन
में अपनाकर ही अपनी श्रद्धांजलि इनके चरणों में प्रस्तुत कर सकते हैं।
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