दो-ढाई वर्ष पश्चात्
पुनः इनकी उन संन्यासी से मुलाकात हुई व इन्होंने घर छोड़कर संन्यास लेने की इच्छा
प्रकट की। इन संन्यासी का नाम निमानन्द था। अबकी बार स्वामी नीमानन्द भोलानाथ को
अपने साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए। भोलानाथ का एक घनिष्ठ मित्र हरिपद भी इनके
साथ जाने की जिद पर अड़ गया। स्वामी निमानन्द ने उनकी धैर्य और निष्ठा की परीक्षा
लेने के अभिप्राय से कहा- ”अच्छी तरह सोच लो। बड़े दुर्गम पथ की यात्रा करनी
पड़ेगी। भयंकर वन पर्वतों में रहना पड़ेगा तथा अनेक कषटों को झेलना पड़ेगा।“
परन्तु दोनों बालक टस से मस न हुए व सारे कष्टों को सहर्ष स्वीकार करने के लिए
तैयार थे। अब निमानन्द ने इन दोनों बालकों की आॅंख पर पट्टी बाॅंध दी व अनेक
नदियाॅं, पर्वत, मैदान पर करते हुए एक रोमांचक यात्रा करते हुए अपने गन्तव्य
पर पहुॅंच गए। कहीं - कहीं इन्होंने आकाश मार्ग से भी गमन किया। एक स्ािान पर
पहुॅंचकर जब इनकी पट्टी खोली गई तो उन्होंने देखा कि सवेरे का समय है और ये लोग एक
दिव्य स्ािल पर आ पहुॅंचे हैं। चारों ओर गगनचुम्बी पर्वत-श्रेणियों श्वेत बर्फ से
ढकी शोभायमन थी।
बालोचित जिज्ञासा से
बालकों ने निमानन्द जी से पूछा कि इस समय वो लोग कहाॅं पहुॅंच गए हैं। वे बोले -
”तुम लोग इस समय उत्तरापथ के मध्य तिब्बत में स्थित एक प्रसिद्ध तथा अति दुर्गम
गुप्त योगाश्रम में हो जिसे ‘ज्ञानगंज योगाश्रम’ कहते हैं। ज्ञानगंज अपने आप में
अद्भुत था। यहाॅं कितने ही योगी नाना प्रकार के यन्त्र लेकर दिन-रात विज्ञान
आलोचना में लगे हैं। कितने ही ब्रह्मचारी तथा दण्डी कठोरतम साधना में लगे हैं। कुमारी
भोजन का आयोजन होने पर सहस्त्रों कुमारियाॅं आकर सेवा ग्रहण करती हैं। एक-एक परमहंस
की आयु 400-500 वर्ष तक है। परमहंस तुल्य
उन्नत योगिनी यहाॅं भैरवी माता कहलाती हैं। जिन निमानन्द जी के साथ वो आए थे उनकी
आयु भी 500 वर्ष से अधिक थी। नौ-दस
दिन वो विस्मयपूर्वक यहाॅं के क्रियाकलाप देखते रहे। तत्पश्चात् दोनों बालकों को
उत्तर तिब्बत के अति दुर्गम एवं अति रमणीय स्ािान मनोहर तीर्थ के एक आश्रम में ले
जाया गया। यहाॅं है ज्ञानगंज के परमहंसों के गुरु ब्रह्म)षि महातपा जी महाराज का
आसन। भोलानाथ ने देखा कि वे अतिवृद्ध हैं व आयु 1300 वर्ष है। उनकी गुरुमाता भी वहाॅं विधमान थी उनकी आयु भी
उतनी ही थी उन्हें दीपा माॅं कहते हैं।
महातपा जी ने दोनों
बालकों के सिर पर हाथ रखकर शक्ति संचार किया व बीज मंत्र प्रदान किया। महातपा
महाराज के एक प्रिय शिष्य श्री श्री भृगुराम परमहंस जी को बालकों की योग शिक्षा का
भार सौंपा गया। इनको ये दादा गुरु कहते थे क्योंकि इनकी आयु 600 वर्ष के करीब थी। एक अन्य स्वामी श्री
श्यामनन्द परमहंस ही को बालकों की विज्ञान शिक्षा के लिए नियुक्त किया गया। इस
सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी के लिए प. गोपीनाथ कविराज की पुस्तक ‘श्री श्री
विशुद्धानन्द परमहंस’ का अध्ययन आवश्यक है।
जिस विज्ञान की
शिक्षा इन्हें यहाॅं दी जाती थी उसे सूर्य विज्ञान कहा जाता है। इसके विषय में
प्.गोपीनाथ ने लिखा है - ” सूर्य ही सभी विज्ञान का आधार है। सृष्टि, स्थिति और संहार सविता देवता के अधीन हैं। इच्छा
शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति का प्रसार सविता से
ही होता है। योग का परम उद्देश्य यही विज्ञान है। केवल प्रणाली में भेद है। योग
मार्ग में विज्ञान और विज्ञान मार्ग में योग एक-दूसरे के सहायक है। चन्द्र विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, वायु विज्ञान, स्वर विज्ञान एवं देव विज्ञान आदि सूर्य विज्ञान के
अन्तर्गत खण्ड विज्ञान मात्र हैं।
ज्ञान गंज के
नियमानुसार दोनो युवकों के 12 वर्ष ब्रह्मचर्य
व्रत का पालन कर कठोर तप करना पड़ा था। तदन्तर 4 वर्ष दण्डी तथा 4 वर्ष संन्यासी के रूप् में थे। तत्पश्चात् इनको तीर्थ
स्वामी पद पर प्रतिष्ठित किया गया। उन्हें आश्रम से नया नाम विशुद्धानन्द प्राप्त
हुआ। विशुद्धानन्द जी के अनुसार योग का मार्ग सुगम न होकर अत्यन्त कण्टकाकीर्ण तथा
दुर्गम है, जिसमें पग-पग पर बाधाएॅं
आती हें। यदि भगवतकृपा से सद्गुरु प्राप्त हो जाए तो वो आने वाले विध्नों से
निरन्तर सावधान करने के साथ-साथ रक्षा करते चलते हैं। आसक्ति तथा गर्व ;अहंद्ध ये दो मुख्य विघ्नकारक शत्रु हैं जो योगी
को पतन की ओर गिराते हैं जिनसे योगी को सतत सावधान रहना चाहिए। स्वामी
विशुद्धानन्द जी ने अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि तथा कठोर साधना के फलस्वरूप योग के
आठों अंगों पर पूर्ण अधिकतम प्राप्त कर लिया व अपने सहयोगियों से अधिक उन्नत हो
गए। स्वामी विशुद्धानन्द बड़े सरल हृदय के सत्यनिष्ठ व्यक्ति थे। एक दिन
बातों-बातों में वो अपने साधनाकाल के रोचक प्रसंग सुना रहे थे। पहले मैं कालिदास
से कम मूर्ख नहीं था। कालिदास जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे पर मैं उससे भी
एक डिग्री उळपर था। एक बार हम कई युवकों को पहाड़ के उळपर पेड़ पर एक पका आम दिखाई दिया। सभी की दृष्टि उस पर पड़ी
व युवक उसको पहले पाने के लिए पेड़ पर चढ़ने लगे। सबसे पहले आम पाने हेतु मैंने
बिना आगे पीछे सोचे पहाड़ी से छलांग लगा दी। फल तो पा लिया पर धरती पर गिरते ही
पैर फिसल गया और पहाड़ी से नीचे लुढ़क कर बेहोश गया। जब होश आया तो देखा दादा
गुरुदेव ;श्री भृगुराम जीद्ध
मुझे आकाशमार्ग से कहीं लिए जा रहे हैं। उनको देखकर मैं डर गया। उन्होंने मुझे
गाली दी व पहले आम खाने को कहा। जब मैं मन्द करने लगा तो उन्होंने कहा जिस आम के
कारण तुम्हारे प्राण जा सकते थे पहले उसे खा डालों। पहाड़ी से गिरने के कारण देह और
जाॅंघ कई जगह से फट गई थी। घावों पर दवा लगाने पर उन्होंने कहा कि बता अब तो कभी
ऐसा काम नहीं करेगा। मैंने कहा - क्यों नहीं करूॅंगा? आपके रहते मुझे डर किसका। दादा गुरु मुस्कराकर
सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देकर चले गए।“
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