Tuesday, February 9, 2016

युग के विश्वामित्र का आवाहन (बसंत पंचमी 2016)

            कभी अपना देश भारत पूरे विश्व में जगतगुरु के रूप में प्रतिष्ठित था। यहाँ के 33 करोड लोगो का चिन्तन, चरित्र ओर व्यवहार इतने उच्च कोटि के होते थे कि पूरी दुनिया यहाँ के लोगो के देवी देवताओं की तरह सम्मान देती थी। ऐसा किस कारण था? यहाँ दो विशेषताएँ थी क्षात्र तेज ओर ब्रहम तेज। वीर शिवाजी, राणा प्रताप, तात्याँ टोपे, लक्ष्मी बाई, एवं सिक्खों के महान गुरुओं के क्षात्र तेज की गाथाएँ आज हम बड़ी श्रद्धा व आश्चर्य से सुनते है। राणा प्रताप का भाला इतना वजनी है कि आज मात्र पहलवान स्तर के लोग ही उसके उठाने की हिम्मत कर सकते है। लक्ष्मी बाई दोनो हाथों से तलवार चलाते हुए निर्भयतापूर्वक शुत्र की सेना पर विद्युत गति के आक्रमण करती थी। निर्दोष व्यक्तियों की रक्षा व मातृभूमि की सुरक्षा यह क्षात्र तेज के द्वारा ही सम्पन्न होती थी। इसी विशेषता रही है भारत का ब्रहम तेज। दूध का दूध व पानी का पानी अर्थात सच को सच कहना व झूठ को झूठ एवं निर्भयतापूर्वक सत्य का साथ देना यह भारत के ब्रहम तेज की विशेषता रही है। डाकू अंगलिमाल आम्रपाती का हृदय परिवर्तन, बढती चीनी सैनिको का मनोबल तोड देना ब्रहम बल के द्वारा ही सम्भव है। भारत पर आक्रमण करने को तत्पर सिकन्दर ने अपने गुरु से पूछा कि भारत से उनके लिए क्या लाया जाए? उनके गुरु ने उत्तर दिया ‘‘ब्रहम तेज से युक्त महापुरुष’’ जिसमें यूनान के लोगों का हृदय परिवर्तन हो ओर के सत्य, प्रेम व न्याय के लिए जीवन जीए न कि अंहकार भरा जीवन। इस पर सिकन्दर ने पूछा कि उसकी पहचान क्या है। गुरु ने उत्तर दिया ऐसा मनुष्य शस्त्र रहित होने पर भी मृत्युभय से मुक्त होगा, साधनहीन होने पर भी राजाओं की तरह अलमस्त होगा। भारत के ब्रहम तेज ओर क्षात्र तेज का सम्मान पूरा विश्व करता था। परन्तु आज हमने अपने निजी स्वार्थ व महत्वाकांक्षाओ के चलते पद, धन, वैभव सम्पन्न व्यक्तियों की चापलूसी व गुलामी स्वीकार कर ली है। चरित्र चाहे कैसा भी रहा हो डस्।ए डच् या कोई सेठ होना चाहिए। उन्ही से फीता व झण्डा रोहण कराना हम अपनी शान समझते है। देश तो आजाद हो गया पर बड़े पैसे व पद वालो की गुलामी हमें रक्त में बस गयी ।हम अपने स्वाभिमान अपने गौरव के भूल भेड़ बकरियों की तरह अपना जीवन जीने के लिए विवश है।
            परन्तु अब सन् 2011 से समय परिवर्तित हो रहा है। महावतारप्रक्रिया के अन्तर्गत क्षात्र तेज व ब्रहम तेज का विकास भारत के युवाओं में हेमा प्रारम्भ हो चुका है। ऐसे युवाओं व महान आत्माओं की खोज, संरक्षण, प्रशिक्षण एवं आवाहन के लिए यह पुस्तक लिखी गयी है।

          क्रान्तिवीर चन्द्रशेखर आजाद

          यहाँ परम क्रान्तिवीर चन्द्रशेखर आजाद के बचपन चर्चा प्रासंगिक होगी। यूँ तो वह बचपन से साहसी थे। पर कुछ चीजें उन्हें डरा देती थी। इनमें से एक अँधेरा था और एक दर्द। दस-बारह साल की उम्र में उनके यहाँ एक महात्मा आये। यह महात्मा महावीर हनुमान जी के भक्त थे। हनुमान जी की पूजा करना और रामकथा कहना यही उनका काम था। चन्द्रशेखर के गाँव में भी उनकी रामकथा हो रही थी। रामकथा के मार्मिक अंश बालक चन्द्रशेखर को भावविह्नल कर देते थे। तो कुछ प्रसंगों को सुनकर वह रोमाँचित हो जाता। अपनी भावनाओं के उतार-चढ़ावों के बीच बालक चन्द्रशेखर ने सोचा कि ये महात्मा जी जरूर हमारी समस्या का समाधान कर सकते हैं।
            और बस उसने अपनी समस्याएँ महात्मा जी को कह सुनायी। उसने कहा-स्वामी जी! मुझे अँधेरे से डर लगता है। महात्मा जी बोले-क्यों बेटा? तो उन्होंने कहा कि अँधेरे में भूत रहते हैं इसलिए। यह सुनकर महात्मा जी बोले- और भी किसी चीज से डरते हो। बालक ने कहा हाँ महाराज- मुझे मार खाने बहुत डर लगता है। उनकी यह सारी बातें सुनकर महात्मा जी ने उन्हें साँझ के समय झुरमुटे में बुलाया। और अपने पास बिठाकर बातें करते रहे। जब रात थोड़ी गाढ़ी हो चली तो वह उन्हें लेकर गाँव के बाहर श्मशान भूमि की ओर ले चले। जहाँ के भूतों के किस्से गाँव के लोग चटखारे लेकर सुनाते थे।
            राह चलते हुए महात्मा जी ने उनसे कहा-जानते हो बेटा-भूत कौन होते हैं? बालक ने कहा नहीं महाराज। तो सुनो, वे स्वामी जी बोले-भूत वे होते है जिनकी अकाल मृत्यु होती है। जो जिन्दगी से डरकर आत्महत्या कर लेते हैं। जो आदमी अपनी जिन्दगी में डरपोक था वह पूरे जीवन कुछ ढंग का काम न कर सका वह भला मरने के बाद तुम्हारा क्या बिगाडे़गा? रही बात मार खाने से डरने की तो शरीर तो वैसे भी एक दिन मरेगा और मन-आत्मा मरने वाले नही है। इन बातों को करते हुए वे महात्मा गाँव के बाहर श्मशन भूमि में आ गये। श्मशान भूमि में कहीं कोई डर का कारण न था। इस अनुभव ने बालक चन्द्रशेखर को परम साहसी बना दिया। हाँ यह जरूर है कि महात्मा जी ने उन्हें रामभक्त हनुमान जी की भक्ति सिखायी। महात्मा जी की इस आध्यात्मिक चिकित्सा ने उन्हें इतना साहसी बना दिया कि अंग्रेज सरकार भी उनसे डरने लगती। उन महात्मा जी का यह भी कहना था कि यदि कोई विशिष्ट आध्यात्मिक प्रयोग करने हों तो किसी तपस्थली का चयन करना चाहिए, क्योंकि ये आध्यात्मिक चिकित्सा के केन्द्र होते हैं।

स्वाध्याय (Self Study/ Study of Self)

            पाण्डिचेरी आश्रम महर्षि श्री अरविन्द के शिष्य नलिनीकान्त गुप्त ने स्वाध्याय के बारे में अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कई मार्मिक बातें कही है। यहाँ ध्यान दिलाना आवश्यक है कि नलिनीकान्त अपनी सोलह वर्ष की आयु से लगातार श्री अरविन्द के पास रहे। श्री अरविन्द उन्हें अपनी अन्तरात्मा का साथी-सहचर बताते थे। वह लिखते हैं कि आश्रम में आने पर अन्यों की तरह मैं भी बहुत पढ़ा करता है। अनेक तरह के शास्त्र एवं अनेक तरह की पुस्तकें पढ़ना स्वभाव बन गया था। एक दिन श्री अरविन्द ने बुलाकर उनसे पूछा-इतना सब किसलिए पढ़ता था। उनके इस प्रश्र का सहसा कोई जवाब नलिनीकान्त को न सूझा। वह बस मौन रहे।
            वातावरण की इस चुप्पी को तोड़ते हुए श्री अरविन्द बोले-देख पढ़ना बुरा नहीं है। पर यह पढ़ना दो तरह का होता है- एक बौद्धिक विकास के लिए, दूसरा मन-प्राण-अन्तर्चेतना को स्वस्थ करने के लिए। इस दूसरे को स्वाध्याय कहते हैं और पहले को अध्ययन। तुम इतना अध्ययन करते हो सो ठीक है, पर स्वाध्याय भी किया करो। इसके लिए अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुरूप किसी मन्त्र या विचार का चयन करो। और फिर उसके अनुरूप स्वयं को ढालने की साधना करो। नलिनीकान्त लिखते हैं, यह बात उस समय की है, जब श्री अरविन्द सावित्री पूरा कर रहे थे। मैंने इसी को अपने स्वाध्याय की चिकित्सा की औषधि बना लिया।
            फिर मेरा नित्य का क्रम बन गया। सावित्री के एक पद को नींद से जगते ही प्रातःकाल पढ़ना और सोते समय तक प्रतिपल-प्रतिक्षण उस पर मनन करना। उसी के अनुसार साधना की दिशा-धारा तय करना। इसके बाद इस तय क्रम के अनुसार जीवन शैली-साधना शैली विकसित कर लेना। उनका यह स्वाध्याय क्रम इतना प्रगाढ़ हुआ कि बाद के दिनों में जब श्री अरविन्द से किसी ने पूछा-कि आपके और माताजी के बाद यहाँ साधना की दृष्टि से कौन है? तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा-नलिनी। इतना कहकर थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, ‘नलिनी इज़ इम्बाॅडीमेण्ट आॅफ प्यूरिटीयानि कि नलिनी पवित्रता की मूर्ति हैं। नलिनी ने वह सब कुछ पा लिया है जो मैंने या माता जी ने पाया है। ऐसी उपलब्धियाँ हुई थीं स्वाध्याय चिकित्सा से नलिनीकान्त को। हालांकि वह कहा करते थे कि स्वस्थ जीवन के लिए शुरूआत अपनी स्थिति के अनुसार मन के स्थान पर तन से भी की जा सकती है। इसके लिए हठयोग की विधियाँ श्रेष्ठ हैं।

पं. रामप्रसाद बिस्मिल

            एक भटकता हुआ आवारा किशोर महान् क्रान्तिकारी इतिहास पुरुष बन गया। हाँ यह सच्चाई पं. रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन की है। सरफरोशी का तममा अब हमारे दिल में है’- का प्रेरक स्वर देने वाले बिस्मिल किशोर वय में कुसंग एवं कुटेव के कुचक्र में फंस गए थे। गलत लोगों के गलत साथ में उनमें अनेको गलत आदतें डाल दी। स्थिति कुछ ऐसी बिगड़ी कि जैसा उनका व्यक्तित्व ही मुरझा गया।
            इसी दौर में उनके कुछ शुभ संस्कार जगे, कुछ पुण्य बीज अंकुरित हुए और उनकी मुलाकात एक महापुरुष से हुई। ये महापुरुष संन्यासी थे और नाम था स्वामी सोमदेव। इनकी साधना अलौकिक थी। इनका तप बल प्रबल था। वे पं. रामप्रसाद को देखते ही पहचान गए। उन्होंने अपने परिचित जनों से कहा कि यह किशोर एक विशिष्ट आत्मा है। इसका जन्म भारत माता की सेवा के लिए हुआ है। पर विडम्बना यह है कि इसके उच्चकोटि के संस्कार अभी जाग्रत नहीं हुए। और किसी जन्म के बुरे संस्कारों की जागृति ने इसे भ्रमित कर रखा है। क्या होगा महाराज इसका? इन संन्यासी महात्मा के कुछ शिष्यों ने इनसे पूछा। वे महापुरुष पहले तो मुस्कराए फिर हंस पड़े और बोले- इस बालक की आध्यात्मिक चिकित्सा करनी पड़ेगी। और इसे मैं स्वयं सम्पन्न करूँगा। बस तुम लोग इसे मेरे समीप ले आओ।    
            ईश्वर प्रेरणा से यह सुयोग बना। पं. रामप्रसाद इन महान् योगी के सम्पर्क में आए। इस पवित्र संसर्ग में पं. रामप्रसाद का जीवन बदलता चला गया। वह यूं ही अचानक एवं अनायास नहीं हो गया। दरअसल उन महान् संन्यासी ने अपनी आध्यात्मिकऊर्जा का प्रयोग करके इनके बुरे संस्कारों वाली परत हटानी शुरू की। एक तरह से वह अदृश्य ढंग से अपनी आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति का प्रयोग करते रहे। तो दूसरी ओर दृश्य रूप में उन्होंने रामप्रसाद को गायत्री महामंत्र का उपदेश दिया। उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता के पाठ के लिए तैयार किया। दिन मास वर्ष के क्रम में युवक रामप्रसाद में नया निखार आया।

            उनकी अन्तर्चेना में पवित्र संस्कार जाग्रत् होने लगे। पवित्र संस्करों ने भावनाओं को पवित्र बनाया, तदानुरूप विचारों का ताना-बाना बुना गया। और एक नये व्यक्तित्व का उदय हुआ। एक भ्रमित-भटके हुए किशोर के अन्तराल में भारत माता के महान् सपूत पं. रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म हुआ। इस नव जन्म ने उनके जीवन में सर्वथा नए रंग भर दिए। यह सब चित्त के संस्कारों की आध्यात्मिक चिकित्सा के बलबूते सम्भव हुआ। जिसने पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों को जाग्रत् कर एक नया इतिहास रचा।

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