कहा जाता है कि दुर्घटनाएॅं
कभी-कभी जीवन में वरदान बनकर आती हैं। इटली का नट ‘द’ एंजलो नटबाजी में यदि न गिरता तो साधारण नट रह जाता।
गहरी चोट से उसमें अद्भुत शक्ति का जागरण हुआ था। वह अपने स्पर्श से गूॅंगे को
आवाज व जटिल रोगियों को स्वस्थ करने वाला देवपुरुष बन गया था। ठीक इसी प्रकार एक
दिन भोलानाथ की सीढि़यों से उतरते वक्त एक पागल कुते ने काट लिया। अनेक डाॅक्टरों
व पागल कुत्ते के काटे मरीजों का टोना-टोटका करने वालों से उपचार कराया गया परन्तु
कोई लाभ नहीं मिला। दिन-प्रतिदिन कष्ट बढ़ रहा था। सभी ने बालक के जीवन की आशा
छोड़ दी थी। अन्त में निराश बालक गंगा की पावन धारा में डूबकर इस असहाय वेदना से
मुक्ति का उपाय सोचने लगा।
किन्तु भगवान की
लीला कुछ और ही थी। गंगा तट पर सायंकाल यह निराश बालक एक विचित्र दृश्य देखता है।
एक जटाधारी संन्यासी बारम्बार गंगा में डुबकी लगा रहा है। जब वह डुबकी लगाकर खड़ा
होता है तो गंगा का जल भी साधु के साथ-साथ स्तम्भ के आकार में उळपर उठता है तथा
साधु के डुबकी लगाने पर उसके साथ-साथ नीचे चला जाता है। आश्चर्यचकित होकर बालक
भोलानाथ इस लीला को एकटक देखता रहा। सोम्यमूर्ति वह संन्यासी त्रिकालज्ञ थे। उनका
मुखमण्डल प्रशान्त था और दोनों चक्षु उज्ज्वल व स्नेहपूरित थे। बालक को देख वो
बोले, ”बच्चा घबरा मत, हम अभी तुम्हें अच्छा कर देते हैं।“ यह कहकर वो
गंगा जी से बाहर आए और अपना हाथ बालक के सिर पर रखा। बालक को बड़ी शान्ति व पीड़ा
में राहत की अनुभूति हुई। तत्पश्चात् संन्यासी ने समीप के जंगल से एक जड़ी लाकर
खिला दी और कहा - ”अब घर जाकर विश्राम करो। पेशाब के साथ पागल कुत्ते का सारा विष
निकल जाएगा और तुम पूर्ण स्वस्थ हो जाओगे। तुम दीर्घजीवी प्रसिद्ध येागी बनोगे। मन
से चिन्ता दूर कर दो।“ कुछ घण्टों उपरान्त बालक स्वस्थ हो गया घर में आनन्द की लहर
दौड़ गई।
बालक व परिवार वालों
के मन में संन्यासी के प्रति कृतज्ञता व असीम श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी व संन्यासी
के साथ जीवन जीने के लिए उन्होंने अपनी माॅं से प्रार्थना की। माता ने भी स्वीकृति
दे दी - ”वत्स! मेरे लिए तुम चले ही गए थे क्योंकि मैंने तो तुम्हारे जीवन की आशा
छोड़ दी थी। जिसने तुम्हें नवजीवन प्रदान किया है उनके साथ तुम प्रसन्नतापूर्वक जा
सकते हो। मैं आशीर्वाद सहित सहर्ष तुम्हें जाने की आज्ञा देती हूॅं। तुम्हारा मंगल
हो। हाॅं! कभी-कभी माॅं को अवश्य याद कर लेना व अवसर पाकर मिलने आना।“
दूसरे दिन बालक पुनः
गंगातट पर भोलानाथ उस संन्यासी को खोजने लगे व उनको अपनी कुशलक्षेम बताने के
पश्चात् उनसे प्रार्थना की - ”प्रभो! आपने मुझे जीवन दिया है। मैं अब आपका साथ
नहीं छोड़ सकता आप मुझे दीक्षा दें व अपने साथ ले चलें। मैं अपनी माता से आपके साथ
चलने और रहने की आज्ञा भी ले आया हूॅं।“
इस पर संन्यासी ने कहा कि
अभी उसकी पात्रता बढ़ाने का प्रयास करना होगा। उन्होंने भोलानाथ को आसन व बीजमंत्र
सिखाया व कहा - ”हम तुम्हारे गुरु नहीं हैं। शीघ्र ही तुम्हारी उनसे मुलाकात होगी।
इतने घर रहकर इस आसन व मंत्र का अभ्यास करो। इससे तुम्हारे तन और मन की शुद्धि
होगी। समय आने पर तुमको तुम्हारे गुरु के पास पहुॅंचा देंगे - इसके लिए निश्चिन्त
रहो।“
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